November 22, 2024

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तथाकथित प्रगतिशील वर्ग के मापदंड अलग

-डॉ.रत्नदीप निगम

आजकल देश और देश के मिडिया में एक अजीब नजारा देखने को मिल रहा है । हैदराबाद की घटना के कुछ तथ्य जो सामने आने से रोके जा रहे थे ,वे तथ्य सोश्यल मिडिया पर सामने आने से देश का एक वर्ग इतना विचलित हो गया है कि अब उसे फ्रेम्ड किये जाने के शब्दों से घोर घृणा हो गयी और वह सभी प्रकार के मिडिया और समाज में स्पष्ट दिखाई देने लगी है । जिस वर्ग का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है वह वो वर्ग है जो आज तक सभी को फ्रेम्ड करता था और प्रमाण पत्र बाँटता था , लेकिन रोहित की दुर्भाग्यपूर्ण आत्महत्या ने अतीत के झरोखों से जब झाँकना शुरू किया तो दलित चिंतन के स्वयम्भू ठेकेदार और प्रगतिशीलता के पैरोकारो ने ऐसे तर्कों को गढ़ना प्रारम्भ किया जिस पर विपक्षी वैचारिक वर्ग द्वारा अपेक्षित प्रतिक्रिया दी गयी , वहीँ से अजीब नज़ारे देश को देखने को मिले । रोहित की राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के चलते हुए निलंबन एवम् उसकी आत्महत्या को जोड़कर उसकी जाति के आधार पर उसे कुछ भी गलत करने की स्वतंत्रता की माँग करने वाले वर्ग को जब वैचारिक युवा तुर्को ने राष्ट्रद्रोही कहना प्रारम्भ किया , तो प्रिंट मिडिया के संपादको से लेकर इलेक्ट्रानिक मिडिया के एंकर तक और टीवी चैनलो के पेनलिस्ट में एक भूचाल आ गया । हर तरफ यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही थी कि देश में मोदी , बीजेपी समर्थक और आरएसएस उनसे असहमत विचार वाले लोगो को राष्ट्रद्रोही कहती है और उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं है । आश्चर्य और महत्व इस बात का है कि यह वे लोग कह रहे है जिन्होंने अपने प्रभाव काल में प्रिंट , इलेक्ट्रानिक मिडिया , अकादमिक संस्थान और साहित्य व् फ़िल्म के माध्यम से अपने से असहमत विचार को साम्प्रदायिक करार दिया था । फर्क सिर्फ यह है कि उस काल खण्ड में बीजेपी और संघ विचारधारा के वर्ग द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जाती थी । यदि कोई प्रतिक्रिया दी भी जाती थी तो प्रिंट मिडिया में बैठे संपादक मंडल और इलेक्ट्रानिक मिडिया के मालिको द्वारा समाज के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जाती थी क्योंकि इन संचार माध्यमो में बैठा वर्ग भी उन्ही वैचारिक अधिष्ठानों से दीक्षित था । अब परिस्तिथियाँ और युग दोनों बदल चुके है , अब साम्प्रदायिक करार दिए गए वर्ग का प्रभाव और वैचारिक स्वीकृति पूरे देश एवम् विश्व में हो चुकी है और दमित और शोषित किये वर्ग ने नव संचार माध्यम से अपने विचारों को प्रेषित करना प्रारम्भ किया , जो किसी संपादकीय पक्षपात से मुक्त थे । इस नए प्रभावशाली वर्ग ने याकूब मेनन , अफजल गुरु , बाटला हॉउस , मालदा से लेकर रोहित की आत्महत्या तक की घटनाओं का छिद्रान्वेषण किया तो प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हो रहे राष्ट्रघाती कर्म सामने आने लगे ,तब इस एक्सपोज़ पर इस तथाकथित प्रगतिशील और पक्षपाती वर्ग को राष्ट्रद्रोही कहा जाने लगा , जिसके प्रति यह वर्ग असहिष्णु हो गया और विलाप करने लगा कि हमें राष्ट्रद्रोही कहकर संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को छीना जा रहा है , । प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए की क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नंदीग्राम और सिंगूर के किसानो को नहीं था । क्या प्रतिवर्ष केरल और बंगाल के कामरेडों द्वारा की जा रही आरएसएस के कार्यकर्ताओ की हत्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ? तर्क यह दिया जा रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी की धार्मिक भावनाओ को ठेस न पहुँचाना चाहिए । इस तर्क को भी जब कसौटी पर कसा जाता है है तो पुनः वही पाखण्ड सामने आता है कि कमलेश तिवारी , साध्वी प्राची , योगी आदित्यनाथ की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मकबूल फ़िदा हुसैन , बुद्ध देव भट्टाचार्य , करूणानिधि , सलमान रशदी , तस्लीमा नसरीन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस प्रगतिशील वर्ग के मापदंड अलग अलग है । जिस तरह इन विषयो पर पक्षपाती मापदंड अपनाये जाते है वैसे ही आतंकवादियों को मानवता वादी बताकर न्यायालय से उनके लिए माफ़ी की अपेक्षा करना और उनके लिए देश के विश्वविद्यालयों में छात्रो को आंदोलनों को प्रेरित करना राष्ट्र के हित में तो कैसे कहा जा सकता है , यदि इस कृत्य को वैचारिक स्वतंत्रता मान भी लिया जाये तो कश्मीर से लेकर मालदा तक के लोगो को न्याय दिलाने के लिए यह वर्ग सक्रिय क्यों नहीं होता है ? राष्ट्रद्रोही शब्द से इस तिलमिलाहट का मुख्य कारण है असहमति को स्वीकार न करने की अधिनायकवादी मानसिकता , क्योंकि इस मानसिकता को यह मंजूर नहीं कि कोई इनका प्रतिकार करे और इनके द्वारा गढ़ी गयी परिभाषाओं को चुनौती दे । इसलिए आज देश भर में राष्ट्रद्रोही शब्द को आपत्तिजनक बताया जा रहा है , लेकिन यह वर्ग देश में हुए परिवर्तन को न तो समझ पा रहा है और न ही स्वीकार कर पा रहा है । इस अस्वीकृति की कुंठा से उत्पन्न बयानबाजी से जातिवाद का विरोध अप्रासंगिक हो गया है ।

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