हे रुपए! तुम और गिरो
प्रकाश भटनागर
बीते काफी दिनों से मन में बैचेनी थी। हमारा रुपया गिर रहा है। इसकी वजह मालूम ही नहीं चल पा रही थी। अर्थशास्त्रियों ने इसका कारण बताया। वह समझ नहीं आया। क्योंकि उनकी भाषा हिंदी में प्रकाशित राजपत्र यानी गजट जैसी क्लिष्ट थी। लेकिन न समझने वाले को भी डराने में सक्षम है। किसी आम आदमी से पूछिए तो वह इसे खराब स्थिति बताएगा। अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ से संपर्क करें तो बताएगा कि हमारी मुद्रा के स्तर में चिंतनीय गिरावट हुई है। लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार या उसके अफसरों से बात कीजिए। सरकार आपका सवाल सुनते ही मोहन दास करमचंद गांधी के बुरा मत सुनो वाले बंदर की मुद्रा अपना लेगी। उसके अफसर घाघ स्वर में नोटबंदी की तर्ज पर जवाब देंगे, जरा इंतजार कीजिए, सब ठीक हो जाएगा। घबराने की बात नहीं है।
पर आज सुबह का अखबार खोलते ही बोधिसत्व की प्राप्ति हो गई। रुपया क्यों गिरा, यह तो शायद आगे पता चले, लेकिन कहां गिरा, यह पूरी तरह समझ आ गया। उसे दो हजार करोड़ रुपए से अधिक की शक्ल में स्टेच्यू आॅफ यूनिटी पर चढ़ाया गया। अब वह माखनलाल चतुवेर्दी का रिजेक्टेड पुष्प तो था नहीं, जो मृत्य के सालों बाद देवता बनाए जा रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल के शीश पर चढ़कर इतराता। उसकी फितरत चंचल होती है। सो फिसल पड़ा। अब इतनी ऊंचाई से गिरा है तो पड़ा होगा वहीं कहीं। उसे ढूंढना होगा। जरूरी है ऐसा करना। वरना बहुत सारी दिक्कतें मुंह बाएं खड़ी हैं।
मध्यप्रदेश में जन आशीर्वाद यात्रा का मजमा फिर कैसे जम सकेगा? उत्तरप्रदेश में जीवित इंसानों तथा जानवरों सहित दिवंगत विभूतियों की और अधिक प्रतिमाएं तानने का रास्ता कैसे प्रशस्त होगा? केरल में भारतीय सेना की बजाय यूएई के सम्मान में पोस्टर लगाने की देशभक्ति का परिचय कैसे दिया जा सकेगा? पश्चिम बंगाल में दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगाने के पक्ष वाली दलीलों के लिए अदालती खर्च कैसे वहन किया जाएगा? दक्षिणी राज्यों में गाय के बछड़े खरीद, उन्हें बीच सड़क पर काटने और फिर उनके पकवान तैयार करने के खर्च की जुगाड़ कहां से हो पाएगी? कर्नाटक में मुख्यमंत्री के घूंट भरने के लिए और अधिक जहर का प्रबंध होना है। देश-भर की पवित्र नदियों में एक अदद अटलजी की आश्चर्यजनक रूप से अनगिनत में तब्दील हुई अस्थियों को सरकारी खर्च पर विसर्जित किया जाना है। इस सबके लिए रुपया चाहिए। जो फिसल गया है। गुम गया है। उसे तलाशिए। वरना सरकारें काम कैसे करेंगी? वो भला कैसे अखबारों में लाखों-लाख रुपए के विज्ञापन देकर बता पाएंगी कि अमुक योजना, जो दृष्टिगोचर नहीं होती, पर काम पूरा हो चुका है और भविष्य की मिस्टर इंडियानुमा योजनाओं पर और काम किया जाना है?
कम से कम एक बात की तो राहत है। रुपए में गिरावट, वक्त ने किया हंसी सितम की तर्ज पर उस काल में हो रही हैे जब हर तरफ गिरने की होड़ लगी है। जब गिरने को दैनिक जीवन के कमोबेश समस्त आयाम में वैधानिक मान्यता दी जा चुकी है। कई नेता हद दर्जे के गिरे हुए हैं। लेकिन केंद्र सरकार अदालत से कह रही है कि उनके चुनाव लड़ने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। संसद और विधानसभाओं में अविश्वास प्रस्ताव आए दिन अकबर के सामने महाराणा प्रताप के सैनिकों सरीखे गिर रहे हैं। बड़ा रोमांचक खेल है यह। नतीजा सभी को पता है, लेकिन नतीजे को लेकर कयास अंत तक लगाए जाते हैं। क्योंकि गिरता देखने का आनंद ही कुछ और है। जो जितना नीचे गया, वह टीवी चैनल की टीआरपी उतनी ही ऊपर लाने की ग्यारण्टी बन चुका है। गिरने के चरम को छूने के बाद भी यदि किसी लम्पट गुरमीत राम-रहीम या आसाराम के लिए लोग करबद्ध खड़े हों तो इसे पतन को मान्यता देने के महान सामाजिक आंदोलन का ऐतिहासिक कदम ही कहा जाना चाहिए।
तो फिर रुपए के गिरने पर क्यों हायतौबा की जाए? वह तो हाथ का मैल है। इसीलिए सत्ता में आते ही हरेक दल तेजी से हाथ मैले करने लग जाता है। ताकि अधिक से अधिक रुपया पैदा किया जा सके। पौराणिक मान्यता है कि देवी पार्वती के मैल से श्रीगणेश का जन्म हुआ। वह शरीर का मैल था, इसलिए केवल एक देवता की उत्पत्ति करके रह गया। आज मैल शरीर सहित आत्मा, वचन, कर्म और नीयत, सबमें भरा हुआ है। उसे मिलाकर रुपया बनाया जाता है। फिर वह मैल की तरह ही खर्च होता है। इसलिए मैल के गिरने पर विलाप कैसा? नेता हैं। चुनाव हैं। सरकारें हैं। ताकत है। बदनीयती है। तिकड़मी दिमाग है। आने वाली सात पुश्तों के कल्याण की चिंता है। और इन सबसे बढ़कर हमारा महान लोकतंत्र है। जब यह सब हैं तो फिर मैल भला कैसे कम पड़ सकता है? फिर रुपए की कमी जैसे मूर्खतापूर्ण खयाल को लेकर परेशान होना कहां तक उचित कहा जा सकता है? इस समय तो वैसे भी मोदी जी प्रधानमंत्री हैं, घबराने की बात केवल तब थी, जब डॉ. मनमोहन सिंह के समय रुपया, डॉलर के मुकाबले 59 रूपए के आसपास तक गिर गया था। इस सरकार के लोग उस समय संसद की उन बैंच पर बैठते थे, जहां विरोधी दलों का स्थान तय होता है। आज के कई मंत्री तब विरोधी पक्ष के सांसदों की हैसियत से मनमोहन सिंह की नीतियों को कोस रहे थे। रुपये में गिरावट को लेकर चिंता जता रहे थे। ऐसे में यह समझ से परे है कि 59 के मुकाबले सत्तर रूपए तक की गिरावट कैसे चिंता जताने का सबब नहीं बन पा रही है? पता तो है क्यों, आखिर मोदी जी प्रधानमंत्री है जो खूब बोलते हैं पर रूपए के गिरने पर मुंह में दही जमा लेते हैं। तो मित्रत्रों फिर इतनी हायतौबा क्यों?
हे रुपए! तुम और गिरो और खूब गिरो। नहीं चाहोगे तब भी ऐसा करने के सतत रूप से चल रहे इंतजाम तुम्हें गिरा ही देंगे। मूर्ख हैं वह जो तुम्हारी तुलना अमेरिकी डॉलर से करते हैं। हम तो डॉलर नाम की बनियान बनाकर पहनने लगे हैं। तुम्हारी तुलना तो वेनेजुएला की मुद्रा बोलिवर से की जाना चाहिए। क्योंकि उसके मुकाबले तुम अब भी कुछ ठीक हालत में हो। वह देश आर्थिक रूप से नंगा हो चुका है और ऐसे ही हालात की पूरी संभावना देखते हुए हमारे देश में हर बात पर लंगोट पहनने वाले मोहनदास करमचंद गांधी की याद दिला दी जाती है। ताकि आवाम इस बात के लिए तैयार रहे कि जब लंगोट पहनने से महात्मा बन सकते हैं तो इसके भी न बचने की सूरत में दिगम्बरत्व तो मिल ही जाएगा। यह तुम्हारी गिरावट के आने वाले चरम का जबरदस्त पूर्व-नियोजित आपदा प्रबंधन है।
रुपए! सरकारों को चाहिए कि आने वाले समय में तुम्हारे स्तर की तुलना बोलिवर से ही हो। हां, ऐसा ही रहा तो एक दिन तुम वेनेजुएला वाले से भी नीचे की स्थिति में पहुंच ही जाओगे। लेकिन चिंता मत करो। सर्वांगीण एवं सर्वाधिक पतन के बावजूद तुम स्टेच्यू आॅफ यूनिटी का प्रतीक रहोगे। क्योंकि तुममें समान फितरत वालों को एकजुट करने की जो ताकत है, वह अनेकता में एकता वाले इस देश में ईश्वर के पास भी नहीं बची है। अत: तुम और गिरो, हम जल्दी ही दो हजार करोड़ रुपए से और अधिक का खर्च कर राष्ट्रीय गिरावट दिवस का विराट आयोजन भी करवा देंगे। क्या अब अलग से बताने की जरूरत है कि रुपया क्यों गिरता जा रहा है?