November 18, 2024

यह दंभोक्ति शोभा नहीं देती

प्रकाश भटनागर

अपने सक्रिय जीवन के अंतिम दिनों में कांग्रेस की आदिवासी नेत्री जमुना देवी ने कहा था कि शिवराज सिंह चौहान के मुंह में विकास का कैसेट फंसा हुआ है। इसलिए वह विकास के बारे में खोखले दावे करते रहते हैं। तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष का उस समय के मुख्यमंत्री के लिए यह आंकलन चौहान के बहुत अधिक बोलने की आदत के लिहाज से पूरी तरह ठीक था।

आदतें आसानी से नहीं जातीं। फिर मामला मुख्यमंत्री जैसे अहम पद से मिली ताकत से जुड़ा हुआ हो तो पेचीदगी और बढ़ जाती है। इसी आदत और पेचीदगी के इर्द-गिर्द शिवराज सिंह चौहान का बतौर पूर्व मुख्यमंत्री दिये गये बयान की तफ्तीश की जा सकती है।

शिवराज ने कहा है कि वह ऊंची कूद लगाने के लिए कुछ कदम पीछे हटे हैं। सरकार जाने के तुरंत बाद उनके श्रीमुख से यह भी सुना जा चुका है कि हो सकता है पांच साल से पहले ही वह फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन दिख जाएं। जैसा कि स्वाभाविक है, शिवराज के कथन में छिपे अर्थ तलाशने का काम शुरू हो गया है। वह भी युद्धस्तर पर। लेकिन क्या ऐसा किया जाना जरूरी है? शिवराज पीछे नहीं हटे, बल्कि जनता के द्वारा धकेल कर पीछे किये गये। जिस ऊंची कूद की बात वह कह रहे हैं, उसे आने वाले आम चुनाव में महती जिम्मेदारी से जरूर जोड़ा जा सकता है, लेकिन इस बात के आसार फिलहाल न के बराबर दिखते हैं कि राज्य की मौजूदा सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी।

यह सत्य है कि ‘तेरा निजाम है, सिल दे जुबान शायर की…’ वाली तर्ज पर केंद्र सरकार के पास राज्य सरकारों को हिला देने का अस्त्र मौजूद है, लेकिन यह भी सही है कि ज्यूडिशियल एक्टिविज्म के इस दौर में ऐसा करने पर उत्तराखंड की तरह मात भी खाना पड़ सकती है। यह रूप उसने गोवा और अरुणाचल प्रदेश घटनाक्रम के बाद दिखाया, जहां सरकार बनाने के लिए वह किसी भी हथकंडे से गुरेज नहीं कर रही थी। लेकिन पार्टी को जल्दी ही यह अहसास हो गया कि ऐसा करके वह एक या इससे अधिक राज्य में सरकार तो बना लेगी, लेकिन जनता के बीच अपनी छवि की मिट्टीपलीद भी कर गुजरेगी।

ध्यान रखिए कि मध्यप्रदेश में जिस समय शिवराज और उनके खास मंत्री बहुमत मिलने का दावा कर रहे थे, उसी समय नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में पार्टी की हार की बात स्वीकार ली थी। वह भी तब, जबकि मोदी के ऐसा करने के करीब दस घंटे बाद यह स्पष्ट हुआ कि मध्यप्रदेश में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है। कहा जा सकता है कि मोदी ने इस राज्य में जोड़तोड़ की कोशिशों को भांप लिया था और हार स्वीकार कर उन्होंने शिवराज सहित राज्य की भाजपा इकाई को यह संकेत दे दिया कि सरकार में बने रहने के लिए कोई अप्रिय जतन न किया जाए। सीधी सी बात है कि मोदी की नजर आम चुनाव पर है। वह नहीं चाहेंगे कि उससे पहले पार्टी की अलोकप्रियता में इजाफा हो और उसकी दोबारा सरकार बनाने की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़े।

मीडिया और जनता का बहुत बड़ा तबका शिवराज की हार से खुश नहीं है। इस खुशी का विस्तार उस रूप में तो दशमलव एक प्रतिशत में भी नहीं हो सकता, जो दिग्विजय सिंह के शासन के अवसान के समय व्यापक रूप से साफ महसूस की गयी थी। शिवराज निकम्मे मंत्रियों के चलते हारे। संगठन भी अपने कार्यकर्ताओं के असंतोष को थामने में कामयाब नहीं हो पाया लिहाजा, भाजपा वर्सेस भाजपा हुए चुनाव ने भी गणित बिगाड़ने में सक्रिय योगदान दिया। रही-सही कसर मनमानी पर आमादा अफसरों ने पूरी कर दी। फिर भी कुछ कदम पीछे हटने जैसी दंभोक्ति शिवराज को शोभा नहीं देती। तब भी नहीं, जबकि राज्य में 109 विधानसभा सीटों वाले बहुत सशक्त विपक्ष को खड़ा करने का सीधा-सीधा श्रेय सिर्फ और सिर्फ उन्हें ही दिया जा सकता है।

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