September 29, 2024

पत्थर, जूते और अजय सिंह

प्रकाश भटनागर

एक शअ‍ेर है। आज के लिहाज से मौजू। अजय सिंह राहुल के लिहाज से तो पूरी तरह मौजू। किसी ने फरमाया था, “शीशे का कस्र हो, कोई पयंबर, या कि मेरी जात। कुछ तो वहां जरूर था, पत्थर जहां गिरा।” यानी शीशे का महल हो, कोई पुण्यात्मा या फिर किसी की खास शख्सियत। ईष्यार्लुओं द्वारा फेंका गया एक न एक पत्थर इन पर जरूर गिरता है।

यहां आशय सिंह की तुलना किसी पयंबर से करने का नहीं है। लेकिन जिस तरह उनके क्षेत्र में घटनाएं घट रही हैं, वह वाकई गौर करने लायक है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे चेहरे शिवराज के लिए कांग्रेस के हिसाब से बहुत बड़ी चुनौती हैं। ग्वालियर चंबल क्षेत्र में तो जन आशीर्वाद यात्रा निर्विघ्न रूप से गुजर गई। छिंदवाड़ा अभी बाकी है। पता नहीं चुरहट में इस यात्रा पर पत्थर और जूते किसने बरसाए, लेकिन यह हुआ उन अजय सिंह के इलाके में, जो नाथ या सिंधिया की तुलना में शिवराज के लिए बहुत छोटी चुनौती ही हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और चुनाव अभियान समिति के संयोजक की तुलना में अजय सिंह भावी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में भी कहीं नहीं दिखते हैं, किंतु शिवराज सरकार सहित भाजपा संगठन जिस तरह नेता प्रतिपक्ष पर तलवारें लेकर टूट पड़ा है, यह देख सवाल सहसा उठता है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में कहीं सिंह ही तो बहुत बड़ी चुनौती बनकर शिवराज का विजय रथ रोकने की स्थिति में नहीं आ रहे हैं?

सत्यदेव कटारे का असमय निधन नहीं हुआ होता, तो यह तय था कि सिंह शायद ही फिर कभी नेता प्रतिपक्ष बन पाते। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उन्हें तवज्जो नहीं दे रहा है। राज्य इकाई में भी उनकी कोई पूछ-परख नहीं है। नाथ या सिंधिया तो दूर, दीपक बाबरिया भी सिंह को खास महत्व नहीं दे रहे हैं। फिर भी होता यह है कि विधानसभा के अहम सत्र से ऐन पहले जिसमें वे सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का एलान करते हैं, सिंह का पारिवारिक विवाद अदालत पहुंचाने से पहले विधिवत रूप से सार्वजनिक भी कर दिया जाता है। इस शोर में यह चर्चा दब जाती है कि किसलिए उस सत्र को आनन-फानन में समाप्त कर दिया गया। सत्र को “निपटाने” से पहले ही शिवराज सहित उनके गृह मंत्री और संगठन के कर्ताधर्ताओं की फौज यकायक सिंह को निपटाने उन पर पिल पड़ती है। दीपक बाबरिया से कांग्रेस का बड़ा तबका नाराज है, किंतु उनकी पिटाई की स्थिति पहली बार सिंह के गृह क्षेत्र में ही बनती है। अब पत्थर और चप्पल पुराण पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह तथा गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह जिस तरह सिंह का नाम लेकर आक्रामक हुए हैं, वह भी बताता है कि नाथ या सिंधिया की तुलना में यह एक चेहरा भी भाजपा और सरकार के निशाने पर प्रमुख रूप से है।

तो सवाल यह कि दिवंगत अर्जुन सिंह के चिरंजीव फिलवक्त मुसीबत में लाकर किसके लाभ का अधिक सबब बनाये जा सकते हैं। शिवराज? नहीं। उनका सीधा मुकाबला तो नाथ एवं सिंधिया से है। कमलनाथ या ज्योतिरादित्य? जवाब “हो सकता है”, है। वजह यह कि कांग्रेस की जीत की सूरत में नाथ एवं सिंधिया के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर बराबरी का संघर्ष होना तय है। यदि बीच का रास्ता तलाशने की नौबत आई तो अजय सिंह उसी तरह लाभ की स्थिति में आ सकते हैं, जिस तरह सुभाष यादव बनाम माधवराव सिंधिया के घमासान में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बना दिए गए थे। तो क्या यह मान लें कि कांग्रेस की ओर से प्रायोजित किसी मल्लयुद्ध में सिंह को भाजपा धोबीपछाड़ देने की कोशिश कर रही है?

ऐसा हो सकता है। हुआ भी है। नेता प्रतिपक्ष के तौर पर डॉ. गौरीशंकर शेजवार का समय याद कीजिए। अपने पूर्ववर्ती विक्रम वर्मा की तुलना में शेजवार ने दिग्विजय की नाक में वाकई दम कर दिया था। तब यह चर्चा आम थी कि दिग्विजय के भाजपाई मित्रों की बदौलत ही शेजवार के पंख कतरे गए थे। बहुत दूर क्यों जाएं? दिग्विजय तो एकबारगी उमा भारती की काट निकालने में भी सफल हो गए थे। नौकरी से निकाले गए हजारों दैनिक वेतनभोगियों का आंदोलन उमा की अगुआई में दिग्विजय की मुसीबत बनने जा रहा था। यकायक भारती को वह आंदोलन वापस लेना पड़ा। उसके अगले दिन शिवाजी नगर स्थित विश्व संवाद केन्द्र में मीडिया के सामने रूआंसी हुईं उमा की खामोशी बता रही थी कि मामला “मुझे अपनों ने लूटा, गैरों में कहां ये दम था…” वाला है।

जब यह सब हो चुका है तो फिर बहुत मुमकिन है कि सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ किया जा रहा हो। मामला क्योंकि संभावनाएं टटोलने का है, इसलिए यह भी बता दें कि शिवराज की यात्रा पर जूते और पत्थर चाहे चुरहट में पड़ें या कहीं ओर, लाभ शिवराज का ही होना है और नुकसान कांग्रेस के खाते में आना है। कांग्रेस फिर अधिक से अधिक यही कर सकती है कि संबंधित क्षेत्र के कर्ताधर्ता को इस नुकसान का दोषी ठहरा दे। फिलहाल वह स्थान चुरहट है। वह कर्ताधर्ता अजय सिंह राहुल हैं। बाकी वही कांग्रेस तथा भाजपा है। घुटे हुए चेहरे हैं और पार्टीगत निष्ठा से अधिक “दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त” वाले संक्रमण का ताकतवर असर भी कायम है। जन आशीर्वाद यात्रा के रथ पर पड़े पत्थर एवं शिवराज पर फेंकी गई चप्पल पर किसी के हाथ की छाप की तस्दीक शायद ही हो सके। किंतु उस पत्थर एवं चप्पल पर स्वार्थ की सड़ांध मारती राजनीति का ट्रेड मार्क जरूर लगा हुआ है। जिस पर भाजपा या कांग्रेस सहित किसी भी सियासी दल का एकाधिकार नहीं है। यह द्रोपदी जैसा मामला है। सत्ता में रहने वाले उसे अपनी-अपनी मानते हैं और विपक्षी उसके चीरहरण का कोई अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहते।

You may have missed

Here can be your custom HTML or Shortcode

This will close in 20 seconds