दुर्घटना में हाथ-पैर खोए, अब है अमेरिका में प्रोफेसर
भोपाल,11 जून(इ खबरटुडे)। आसमां छूने का हौसला हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किलें बौनी हो जाती हैं। कुछ करने की ठान लें तो सबकुछ मुमकिन है। इसकी मिसाल हैं भोपाल बेस्ड सत्या गोपालकृष्णन। महज 13 साल की उम्र में एक सड़क हादसे में अपने दोनों पैर और एक हाथ गवां चुकीं सत्या आज अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी में एन्वायरनमेंटल साइंस की प्रोफेसर हैं।
हादसे के वक्त सत्या की मदद की दिव्यांगों के लिए कार्यरत संस्था आरुषि ने और वे आज 17 साल बाद भी संस्था से जुड़ी हुई हैं।लेकिन एक नि:शक्त की तरह नहीं बल्कि सशक्त वॉलेंटियर की तरह, जो अरुषि की हर जरूरत का ख्याल रखती है। सत्या का मानना है कि, “आपके फिजिकल चैलेंज को एडॉप्ट कर लेना उस समय बहुत आसान हो जाता है, जब आपके पास जिंदगी जीने का एक सही एटिट्यूड हो। आरुषि ने मुझे यही एटिट्यूड दिया। उसी के बल पर मैं यूएस के ओहियो स्टेट के कोलंबस शहर में अकेली रह पा रही हूं।”
मैंने अपने ढंग से जिंदगी जीने का तरीका ढूंढ़ा
सत्या ने बताया, स्कूल में पढ़ रही किसी बच्ची के दोनों पैर और हाथ छिन जाना यानि उसकी जिंदगी से हर सकारात्मकता का निकल जाना। मेरे लिए भी उस हादसे के मायने यह हो सकते थे, लेकिन मैं खुशकिस्मत थी कि मेरे आस-पास हमेशा इतने सकारात्मक लोग रहे, कि मुझे डिसेबिलिटी का कभी अहसास ही नहीं हुआ। उस घटना ने मेरा हौसला तोड़ा नहीं बल्कि मुझे हिम्मत दी कि मैं अब भी जो चाहूं वह कर सकती हूं।
एक दिन अचानक अरुषि के वॉलेंटियर अनिल मुदगल से मुलाकात हुई। उन्होंने विश्वास दिलाया कि डिसेबिलिटी के साथ भी जिंदगी में रंग आ सकते हैं। वे हमेशा बोलते- ‘तुम अब भी खुलकर जी सकती हो… जैसे चाहो वैसे।” दो साल तक मेरी थेरेपी चली। हम साथ में वॉक करते थे।
वे मेरी व्हीलचेयर पर बैठते और मैं पार्क में टहलती थी। मेडिकल कंडीशंस के कारण चलना तो संभव नहीं हुआ, लेकिन तब मिले हौसले ने मुझमें इतना आत्मविश्वास भरा कि मैंने जिंदगी को अपने तरीके से जीने का ठान लिया। फिर मैंने द भोपाल स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस (बीएसएसएस) से ग्रेजुएशन किया। पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए यूएस की राह पकड़ी।
मैंने ड्यूक यूनिवर्सिटी में आरुषि क्लब बनाया है। इसमें लोग समय-समय पर ऐसी एक्टिविटीज करते हैं, जिससे आरुषि में रहने वाले बच्चों की जरूरतें पूरी हो सकें। हाल ही में सत्या ने दिव्यांगों की चेन्न्ई ट्रिप का खर्च उठाया है।