दुनिया चाहे नकारे,हम नहीं छोडेंगे अंग्रेजी मीडीयम
शिक्षा की भाषा-कुछ विचारणीय बिन्दु
(तुषार कोठारी)
ग्लोबलाईजेशन के इस जमाने में अनपढ और गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चे को पढा लिखा कर बडा और सफल आदमी बनाने की चाहत रखता है। मध्यमवर्गीय और नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए तो बच्चों की सुव्यवस्थित शिक्षा बडी चुनौती है ही। हर व्यक्ति अपने बच्चों को लगातार तेेज होती जा रही शैक्षणिक प्रतिस्पर्धा में जीतने वाला बनाना चाहता है। इन सारी चुनौतियों में भारत के आम आदमी की धारणा यह भी है कि उच्चस्तरीय शिक्षा की एकमात्र चाबी है अंग्रेजी। अपने बच्चों को फर्राटेदार अंग्रेजी सिखाने की चाहत में अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी भी कीमत पर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में प्रवेश कराने की चाहत रखते है। नतीजा यह है कि गली-गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल चुके है और नन्हे बच्चे टाई लगाकर अंग्रेजी माध्यम में छपी किताबों से भरा बस्ता लेकर स्कूल जा रहे है। उन्हे देख देख कर उनके अभिभाषक अपने आपको न सिर्फ गौरवान्वित महसूस करते है बल्कि स्वयं को धन्य भी मानते है कि उन्होने अपनी जिम्मेदारी को अत्यन्त सफलतापूर्वक निर्वाह कर दिया है।
वैसे यह समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है,बल्कि दुनिया के तमाम विकासशील देशों के अभिभावकों के सामने यही चुनौती है। अंग्रेजी आज विश्वभाषा का दर्जा हासिल कर चुकी है और अंग्रेजी का ज्ञान बेहद जरुरी हो चुका है। भारत समेत दुनिया के अनेक देश किसी जमाने में इग्लैण्ड के गुलाम हुआ करते थे। इन देशों में अंग्रेजी तभी से महत्वपूर्ण है। हर गुलाम अपने मालिक की नकल करने में ही अपना विकास समझता है। एशिया और अफ्रीका के कई देशों में आज भी अंग्रेजी के प्रति उच्चता का भाव विद्यमान है। अंग्रेजों के गुलाम रहे देशों में अंग्रेजी को लेकर दोहरा दबाव है। एक तो गुलामी की मानसिकता अंग्रेजी को महत्वपूर्ण बनाती है,वहीं वर्तमान युग का ग्लोबलाईजेशन अंग्रेजी को विश्वभाषा का दर्जा देता है। ऐसे में सामान्य अभिभावक के लिए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढाने की मजबूरी स्वाभाविक ही है। परिणाम यह है कि नन्हे बच्चों का बचपन अंग्रेजी के बोझ के नीचे दबता जा रहा है। इसके विपरित मातृभाषा में शिक्षा दिए जाने की वकालात करने वाले लोगों को हमारे यहां पुरातनवादी और पिछडा माना जाता है। जैसे ही किसी ने अंग्रेजी मीडीयम की बुराई की,कि उसे पिछडा हुआ करार दे दिया जाता है। किसी अभिभावक ने यदि अपने बच्चे को हिन्दी माध्यम के स्कूल में दाखिला दिलवा दिया तो आसपास के लोग ही उसे परेशान कर देते है। अरे,आपको बच्चे के भविष्य की चिन्ता नहीं है,आपने हिन्दी स्कूल में बच्चे को डाल दिया,उसका भविष्य तो अंधकारमय हो गया है।
शिक्षा का माध्यम-बडी समस्या
असल में शिक्षा का माध्यम विश्व के कई देशों के सामने एक बडी समस्या रहा है। इसी समस्या का समाधान करने के लिए अनेक देशों में इस विषय पर बडे बडे शोध किए गए। विभिन्न देशों में शिक्षा के माध्यम पर हुए विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों और शोध का सामूहिक निष्कर्ष यदि भारत के अभिभावकों की जानकारी में आए तो उनके बच्चों की मानसिक क्षमता और बुध्दिमत्ता का अधिक विकास होने की पूरी संभावना है। वैसे भी भारत के लोगों को विदेशी विद्वानों और विश्वविद्यालयों में हुए रिसर्च और स्टडीज पर अधिक भरोसा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेषज्ञ समितियों और दुनिया के अनेक देशों में अलग अलग समय पर किए गए शोध और अध्ययनों का एक ही सामूहिक निष्कर्ष है कि किसी बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही दी जाना चाहिए। किसी बच्चे को उसकी मातृभाषा से वंचित करना ना सिर्फ मानवाधिकारों का हनन है बल्कि उस बच्चे की क्षमताओं को कुण्ठित करने का भी माध्यम है। इसके विपरित मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा दिया जाना किसी भी बच्चे के लिए उसकी बौध्दिक क्षमताओं का विकास करने के लिए जरुरी है। बच्चे को अंग्रेजी जैसी किसी विदेशी भाषा की शिक्षा दी जाना चाहिए,इससे उसकी योग्यता बढती है लेकिन इसके लिए उसकी शिक्षा का माध्यम ही बदल देना उस बच्चे के प्रति अपराध के समान है।
यूनेस्को-एजुकेशन फार आल
संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को द्वारा वर्ष २००५ में एजुकेशन फार आल-ग्लोबल मानिटरिंग रिपोर्ट तैयार की गई है। इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए किए गए अध्ययनों में यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में होना बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए बेहद आवश्यक है। स्टाकहोम यूनिवर्सिटी के सेन्टर फार रिसर्च आन बायलैंगुईज्म के कैरोल बेन्सन द्वारा किए गए शोध में कहा गया है कि भाषा ही संवाद (कम्यूनिकेशन) और समझ(अण्डरस्टैण्डिंग) की चाबी है। बेन्सन का कहना है कि बच्चों को उसकी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा में शिक्षा देना वैसा ही है जैसा किसी व्यक्ति को तैरना सिखाए बिना गहरे पानी में फेंक देना।
शिक्षा के माध्यम पर किए गए अध्ययनों में मातृभाषा से अलग भाषा माध्यम में शिक्षा देने के लिए सबमर्शन शब्द का उपयोग किया जाता है। शोध प्रबन्धों में मातृभाषा या बच्चे की समझ में आने वाली भाषा को एल-१(लैंग्वेज-१) और द्वितीय या विदेशी भाषा को एल-२(लैंग्वेज २) कहा जाता है। यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक एल-२ सिखाने के लिए जरुरी है कि सीखने वाले को एल-१ की समझ हो। भाषिक योग्यता का स्थानान्तरण तभी सफलतापूर्वक हो पाता है जब कि सीखने वाला एल-१ में पढना लिखना सीख चुका हो। एल-१ को पढना लिखना सीख चुका बच्चा एल-२ को अधिक आसानी से पढ व लिख पाता है। इसके विपरित एल-२ माध्यम से शिक्षा सीखने वाले और सिखाने वाले दोनो के लिए अत्यन्त जटिल साबित होती है। यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है कि एल १ का क्लासरुम बच्चों को उनका व्यक्तित्व निखारने और बौध्दिक क्षमता(इंटैलेक्ट) बढाने के अवसर देता है। एल-१ के क्लासरुम में बच्चों की पढने की प्रेरणा(मोटिवेशन),रचनात्मकता(क्रिएटिविटी) और पहल करने की क्षमता(इनिशिएटिव) बढती है।
लैंग्वेज लर्निंग बनाम काग्रिटिव लर्निंग
इसके विपिरत सबमर्शन स्कूलिंग(अन्य माध्यम की शिक्षा) में काग्रिटिव लर्निंग और लैंग्वेज लर्निंग दोनो ही चीजे कठिन हो जाती है। इस बात को और अधिक इस तरह स्पष्ट किया गया है कि लैंग्वेज लर्निंग अर्थात भाषा सीखना एक अलग विषय है जबकि काग्रिटिव लर्निंग पूरी तरह अलग विषय है। काग्रिटिव लर्निंग का हिन्दी में पारिभाषिक अर्थ है संज्ञानात्मक सीखना। इसे व्यापक रुप में समझा जाए तो इसका अर्थ है विभिन्न विषयों को जानने समझने की क्षमता विकसित करना और समस्याओं को बौध्दिक रुप से सुलझाने की क्षमता विकसित करना। इस लिहाज से यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि सबमर्शन स्कूलिंग बच्चों की काग्रिटिव लर्निंग और लैंग्वेज लर्निंग दोनो को ही कठिन बना देता है।
कहां कहां हुए शोध
कैमरून में वहां के शिक्षा मंत्रालय द्वारा वर्ष २००७ में इसी मुद्दे पर वैज्ञानिक अध्ययन किया गया। ग्वाटेमाला में भी १९९१ से १९९९ के बीच इसी प्रकार का अध्ययन किया गया। नाईजीरिया में वर्ष
१९८९में छ:वर्षीय प्रोजेक्ट इसी विषय पर चलाया गया। बोलिविया, विएतनाम,मारिशस,दक्षिण अफ्रीका जैसे अनेक देशों में इस तरह के अध्ययन पिछले दो दशकों में किए गए है। १९७३ में मैक्सिको में किए गए एक अध्ययन में मोडिएनो कहता है कि सबमर्शन प्रोग्राम(अन्य भाषा माध्यम) में पढने वाले बच्चों की तुलना में एल-१ में पढने वाले बच्चे क्लासरुम में अधिक हिस्सेदारी करते है। इन बच्चों का आत्मविश्वास अधिक होता है और ये क्रिएटिव भी होते है। एल-१ बच्चों को अपनी भावनाएं व्यक्त करने का पूरा मौका देती है इसलिए बच्चे अपने पूरे ज्ञान,अनुभव और कौशल का उपयोग करते है। इसके विपरित सबमर्शन स्कूलिंग बच्चों को क्लासरुम में चुप्पी साधे रहने का दबाव बनाती है। सबमर्शन स्कूलिंग उन्हे मशीनी अंदाज में दोहराव के लिए बाध्य करती है,जिससे बच्चों में कुण्ठा(फ्रस्ट्रेशन),असफलता(फैल्युअर) और पढाई से मन उचटने जैसी समस्याएं सामने आती है।
माध्यमों का तुलनात्मक अध्ययन
कैमरुन में वर्ष २००७ में किए गए प्रभावी अध्ययन को कोम एक्सपेरिमेन्टल पायलट प्रोजेक्ट कहा गया। इस प्रयोग में मातृभाषा कोम में शिक्षा देने वाले १२ स्कूलों का चयन किया गया इसी तरह अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले बारह स्कूलों को भी प्रयोग के लिए चुना गया। इन स्कूलों के बच्चों का तुलनात्मक अध्ययन बेहद रोचक रहा। ग्रेड २ के बच्चों की बौध्दिक क्षमता का स्तर नापा गया। इंग्लिश माध्यम से पढाई करने वालों ने ४२.८ प्रतिशत क्षमता का प्रदर्शन किया वहीं मातृभाषा कोम में पढने वाले बच्चों के प्रदर्शन का स्तर औसतन ७३.८ प्रतिशत रहा। ग्रेड ३ में भी विभिन्न विषयों पर छात्रों का प्रदर्शन देखा गया। इंग्लिश मीडीयम वाले छात्रों का प्रदर्शन २२.१ प्रतिशत रहा वहीं कोम माध्यम के छात्रों ने ६२.९ प्रतिशत प्रदर्शन किया। इसी अध्ययन में यह रोचक तथ्य भी सामने आया कि एक परीक्षण के दौरान अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले ७० प्रतिशत बच्चे प्रश्नों को समझ ही नहीं पाए और जब वास्तविक टेस्ट की बारी आई तो इंग्लिश मीडीयम के अधिकांश बच्चों ने उत्तर देने का प्रयास तक नहीं किया। इसी तरह ग्रेड २ और ३ में इंग्लिश मीडीयम के बच्चों में से मात्र १५ से २० प्रतिशत बच्चे प्रश्नों को समझ पाए जबकि मातृभाषा कोम में पढने वाले बच्चों ने अत्यन्त श्रेष्ठ प्रदर्शन किया।
कैमरुन,ईरिट्रिआ व अन्य कुछ देशों में किए गए अध्ययनों के आधार पर विश्व के प्रख्यात भाषा विज्ञानी स्टीफन एल वाल्टर ने मदरटंग बेस्ड एजुकेशन इन डेवलपिंग कंट्रीस-सम इमर्जिंग इनसाईट्स शीर्षक से शोध प्रबन्ध तैयार किया है। स्टीफन वाल्टर के मुताबिक बच्चों को उनकी समझ में आने वाली भाषा से पढाया जाना ही उनके व्यक्तित्व को विकसित करने का एकमात्र तरीका है।
इन्ही प्रयोगों के आधार पर वाल्टर व डेविस ने बच्चों के स्किल डेवलपमेन्ट का भी अध्ययन किया। उन्होने पाया कि अंग्रेजी मीडीयम वाले बच्चों में भाषा का रीडींग स्किल(पढने की क्षमता) विकसित होने में ५ से ६ वर्ष लगे जबकि मातृभाषा में पढने वाले बच्चों में यह क्षमता ३ वर्ष से भी कम समय में विकसित हो गई। इसी अध्ययन में एक और बिन्दु पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया। प्रयोग में लिए गए १२ -१२ स्कूलों के बच्चों की अंग्रेजी सीखने की क्षमता को भी जांचा गया। इसके लिए मातृभाषा कोम में पढने वाले बच्चों को अंग्रेजी एक विषय के रुप में पढाई गई। इन बच्चों को एक सप्ताह में करीब तीन घण्टे अंग्रेजी पढाई गई। इसके विपरित अंग्रेजी मीडीयम वाले बच्चों ने सप्ताह में करीब साढे बाईस घण्टे अंग्रेजी भाषा में विभिन्न विषयों की पढाई की। साल के अन्त में दोनो समूहों के बच्चों ने मौखिक अंग्रेजी (ओरल इंग्लिश) में समान प्रदर्शन किया। इतना ही नहीं मातृभाषा कोम में पढने वाले बच्चों ने ग्रेड २ व ३ तक पंहुचते पंहुचते इंग्लिश मीडीयम वाले बच्चों से दुगुना स्तर प्रदर्शित किया।
थामस व कोलियर ने १९९७ में अमेरिकन स्कूलों में एक अध्ययन किया। स्कूल इफैक्टिवनेस फार लैंग्वेज माइनारिटी चिल्र्डन नामक रिसर्च में वे कहते है कि बच्चों की पढाई के शुरुआती ६ वर्षों तक मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाने पर वे अंग्रेजी या कोई भी अन्य विदेशी भाषा पर जल्दी अधिकार जमा पाते है। थामस व कोलियर ने इस प्रयोग से सिध्द किया कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाले बच्चे वास्तव में सीखते है,जबकि अंग्रेजी मीडीयम बच्चों की सीखने की क्षमता को बाधित कर देता है।
यूनिवर्सिटी आफ टोरन्टो के जिम कमिंस अपने शोध बाईलैंगुअल चिल्र्डनस मदर टंग-वाय इज इट इम्पोर्टेन्ट फार एजुकेशन में कहते है कि टू रिजेक्ट ए चाईल्ड्स लैग्वेज इन द स्कूल इज टू रिजेक्ट द चाईल्ड। अर्थात स्कूल में बच्चे की मातृभाषा को नकारना उस बच्चे को नकारने के समान है।
शिक्षा के मिथक
दुनिया भर में हुए प्रयोगों के आधार पर तैयार की गई यूनेस्को की एजुकेशन फार आल रिपोर्ट में शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में स्थापित मिथकों का भी रोचक वर्णन है। यूनेस्को की यही रिपोर्ट कहती है कि गुलाम रहे देशों में एक धारणा यह भी है कि स्थानीय भाषा आधुनिक विषयों को व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। मजेदार बात यह है कि यह मिथक भारत ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों में है। यूनेस्को की रिपोर्ट में इसे कालोनियल कांसेप्ट कहा गया है। इसी तरह यह भी एक मिथक है कि अंग्रेजी मीडीयम में शिक्षा प्राप्त करने से ही योग्यता बढती है। इसे भी रिपोर्ट में कालोनियल कांसेप्ट कहा गया है। असल में अंग्रेजी माध्यम की बीमारी सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि विश्व के अनेक विकासशील देशों में है।
भारत में नहीं कोई अनुसंधान
मजेदार तथ्य यह है कि भारत में अब तक इस प्रकार का कोई वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं किया गया है। हम भारत के लोगों में से ज्यादातर अपने बच्चों को इंग्लिश मीडीयम स्कूल में दाखिल करवान गर्व का विषय और अपनी महती जिम्मेदारी समझते है। वैज्ञानिक प्रयोगों को माना जाए तो यह भी मानना होगा कि अंग्रेजी माध्यम से सफलता प्राप्त कर रहे बच्चो को यदि शुरुआती दौर में मातृभाषा में पढाया गया होता तो उनका प्रदर्शन और भी उत्कृष्ट होता,हांलाकि हम उसी प्रदर्शन से संतुष्ट है। हमे समझना होगा कि किसी भाषा को सीखने के लिए शिक्षा का माध्यम बदल देना अत्यधिक अवैज्ञानिक और मूर्खताभरा खतरनाक कदम है। जबकि अधिकांश उच्चशिक्षित अभिभावक भी इस मूर्खतापूर्ण सोच के साथ अपने बच्चों के साथ खिलवाड कर रहे हैं।
क्षमताएं बढाना जरुरी
इस लेख का विषय अंग्रेजी के महत्व को कम करना नहीं है बल्कि बच्चों की क्षमताओं को बढाना है। वैसे भी इस लेख में जितने अध्ययनों का उल्लेख है उनमें भारत का कोई जिक्र नहीं है। अंग्रेजी को एक भाषा के रुप में पढना और उस पर पूरा अधिकार करना इतना कठिन नहीं है,जितना कि इंग्लिश मीडीयम के साथ पढाई करना और विषयों को समझना। दुनिया के विभिन्न देशों में किए गए इन अनुसंधानों की तमाम रिपोर्ट्स आज इन्टरनेट के माध्यम से हर किसी के लिए उपलब्ध है। इसके बावजूद हम भारतीय भेडचाल में चलने के आदी है और गुलामी की सोच हमारी हड्डियों तक में समा गई है। शायद इसीलिए इतने सारे अनुसंधानों के बावजूद हमारे देश में इंग्लिश मीडीयम स्कूलों की मांग आने वाले सालों में भी बनी रहेगी।