‘जी हुकुम, जो हुकुम’ वाले कमलनाथ
प्रकाश भटनागर
मरहूम जसपाल भट्टी का दूरदर्शन धारावाहिक ‘उलटा-पुलटा’ खूब प्रसिद्ध रहा। इसका एक ऐपिसोड ऐसे कार्यालय को समर्पित था, जहां काम के नाम पर केवल मीटिंग होती हैं। उनमें भी कोई निर्णय नहीं हो पाता। बदनामी के चलते आफिस में एक मीटिंग बुलाकर वाकई कोई ठोस निर्णय लेने की बात तय होती है। इसके बाद दफ्तर का प्रमुख मीडिया से कहता है, ‘पहली बार हमारे यहां किसी बैठक में अंतिम निर्णय लिया गया। निर्णय यह कि हमने अगली बैठक की तारीख तय कर ली है।मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के चयन से लेकर मंत्रिमंडल का गठन और विभागों के वितरण में सब उलटा-पुलटा ही नजर आ रहा है। मुख्यमंत्री बनने के बावजूद कमलनाथ की हैसियत किसी हरकारे से अधिक नहीं दिखती। आलाकमान जो संदेश देता है, वह उसे यहां आकर प्रेषित कर देते हैं। यही हास्यास्पद स्थिति मंत्रिमंडल के गठन में दिखी और ऐसा ही विभागों के बंटवारे में हो रहा है।
जरा सोचिये कि जो मुख्यमंत्री अपने ही दल के भीतर इतना कमजोर हो, वह कुआं और खाई की स्थिति वाले जोखिम भरे बहुमत का सामना भला किस तरह कर पाएगा? जुलाई, 1990 में हरियाणा मे हुकुम सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उनके पूर्ववर्ती ओमप्रकाश चौटाला को किसी वजह से इस्तीफा देना पड़ा था।
हुकुम पूरी तरह खड़ाऊ मुख्यमंत्री थे। तब एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक ने कार्टून प्रकाशित किया था। इसमें फोन का रिसीवर थामे सिंह कह रहे थे, ‘जी हुकुम, जो हुकुम।’ जाहिर है कि फोन के दूसरे हिस्से पर चौटाला के होने की बात जताई गई थी। आज नाथ को इस कार्टून में रखकर देखा जा सकता है। जिसके दूसरे हिस्से पर राहुल गांधी के होने की बात रहेगी। कार्टून में वह पुराना लैंडलाइन फोन दिखाया गया था, जिसके रिसवीर वाला तार जलेबी की तरह घूमा हुआ होता था। कार्टून में यदि नाथ इसी रिसीवर को हाथ में लिए महसूस किए जा सकते हैं तो जलेबी की मानिंद गोल तार में आप दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के होने का तसव्वुर भी बेझिझक किया जा सकता है। क्योंकि यही वह चेहरे हैं, जिनकी जिद और व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते नाथ सरकार दिल्ली से भोपाल के बीच त्रिशंकु बनी लटक रही है।
खैर, हो सकता है कि समय के साथ ही परिदृश्य बदल जाए। मौजूदा मुख्यमंत्री किसी अनाथ की तरह दिखने की बजाय वाकई नाथ जैसे ताकतवर दिखें। आखिर, बतौर मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की पारी की शुरूआत में वह भी अर्जुन सिंह जैसे बरगद के तले पनपने की कोशिश करते पौधे जैसे दिखे थे। बाद में परिदृश्य ऐसा बदला कि दिग्विजय ने उत्तरोत्तर ताकत अर्जित की और अपने सियासी गुरू सहित उनके तमाम दायें-बायों को उन्होंने सम्मानपूर्वक ठिकाने लगा दिया। हालांकि ऐसा करने के लिए नाथ को अपनी शख्सियत में जो भारी तब्दीली लाना होगी, वह सत्तर साल से अधिक की आयु में संभव नहीं दिखता है। तो आशंका यही है कि मध्यप्रदेश में ‘जी हुकुम, जो हुकुम’ वाला प्रहसन लम्बे समय तक चलता नजर आ जाए।
दिग्विजय और सिंधिया को मध्यप्रदेश में कांग्रेस की जीत का चाहे जितना श्रेय दे दिया जाए, लेकिन यह भी पूरी तरह सच है कि इस समय पार्टी की हो रही छीछालेदर का स्वाभाविक दोष भी उन्हें ही दिया जा सकता है। यह राहुल गांधी के निर्णय एवं नेतृत्व क्षमता पर भी सवालिया निशान लगाता है। यदि किसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को किसी राज्य में मंत्रिमंडल के गठन जैसे मामले भी खुद ही सुलझाना पड़ें तो कहा जा सकता है कि बतौर मुख्यमंत्री उसका चयन गलत था और एक राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर वह यह संदेश देने में नाकाम रहे हैं कि उनके द्वारा चुने गये शख्स का निर्णय हर किसी को मानना ही पड़ेगा। यह उलटा-पुलटा सरकार दिख रही है और उसकी दशा देखकर फिलहाल जसपाल भट्टी को याद कर ठहाका ही लगाया जा सकता है। ऐसा ही रहा तो बाद में किस-किस को रोना है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है।