एक था मुख्यमंत्री शिवराज
प्रकाश भटनागर
एक सज्जन आंगन में पालतू बिल्ली को बड़े प्यार से नहला रहे थे। कुछ देर बाद वह रोने-चीखने लगे। पता चला कि उनकी प्रिय बिल्ली मर गयी है। लोगों ने वजह पूछी। सज्जन रोेते हुए बोले, ‘सोचा बिल्ली को अच्छे से साफ कर दूं। इसलिए उसे निचोड़ दिया।’ शिवराज सिंह चौहान जितने परिपक्व राजनेता हैं, उसे देखकर यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह आज रो रहे होंगे, किंतु किसी प्रिय बिल्ली के अपनी और अपनों की नादानी से निचुड़कर मर जाने जैसा अफसोस यकीनन उन्हें साल रहा होगा। सत्ता की यह बिल्ली पलक झपकते ही दम तोड़ गई। वह भी, ‘पास मंजिल के मौत आ गयी, जब फकत दो कदम रह गये,’ वाली शैली में।
सच कहें तो मध्यप्रदेश में भाजपा को भी तरोताजा करने के नाम पर ऊपर बतायी गयी बिल्ली की तरह ही अंतत: निचोड़ दिया गया। भाजपा को कांग्रेस ने नहीं हराया, उसे भाजपा ने ही हराया है। विपक्ष के तौर पर पिछले दो चुनावों की तरह कांग्रेस ने यह चुनाव कमलनाथ के नेतृत्व में बेहतर तरीके से लड़ा। बावजूद इसके अगर कांग्रेस की जीत का श्रेय देना हो तो वो भाजपा के अहंकार में आ गए नेतृत्व, (अकेले शिवराज नहीं) और इससे बिफरे उसके देवतुल्य कार्यकर्ताओं को ही जाता है। उस पार्टी ने जो तेजी से अपने मूल विचार और सिद्धांतों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षों के हवन कुंड में आहुति देती जा रही है। इसमें शिवराज अकेले सर्वेसर्वा नहीं हो सकते हैं। उन्होंने हार का दोष अपने पर ओढ़ लिया है ये अलग बात है लेकिन इसमें पार्टी के वे तमाम दिग्गज शामिल हैं जिन्होंने अहंकार के अतिरेक में उम्मीदवारों का मनमाना चयन किया। शिवराज आज अपने उन कई निर्णयों पर पछता रहे होंगे, जिनके चलते पार्टी जीतते-जीतते हार गयी और कांग्रेस हारते-हारते जीत गयी।
कुछ निर्णयों में जरा-सी सजगता बरती गयी होती तो आज वह परिदृश्य नहीं होता, जो दीनदयाल उपाध्याय भवन में सियापे की शक्ल में बिखरा नजर आ रहा है। सजगता बरतने की बजाय मनमानी का चश्मा पहनकर फैसले किए गए। राजनीति की जिन बुराईयों, वंशवाद से लेकर व्यक्तिवाद और पट्ठावाद को भाजपा अपने कार्यकर्ताआें के बीच कोसती चली आ रही है, नेताओं का आचरण उसी का अनुसरण करने वाला रहा। विदिशा से मुकेश टंडन हारेंगे, यह खुद टंडन और शिवराज के अलावा बाकी हर कोई मानकर चल रहा था, लेकिन मामला मुख्यमंत्री की पसंद का था, मुख्यमंत्री के पट्ठे का था तो टंडन भी पहलवान हो गए। जिन्हें मतदाता ने ऐसी पटखनी दी कि भाजपा के खासे असरवाली यह सीट कोई चार दशक बाद कांग्रेस जीत पाई। जबकि विदिशा जिले की बाकी सारी सीटें भाजपा ने आराम से जीती। पता नहीं महापौर की कुर्सी में कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं कि शिवराज अपने प्रिय आलोक शर्मा को भोपाल उत्तर से चुनाव लड़ने के लिए राजी नहीं कर सके। फातिमा रसूल के रूप में अल्पसंख्यकों को खुश करने की कोशिश का असर यह हुआ कि आरिफ अकील पहली बार इस सीट पर भारी अंतर से जीत गए। भोपाल दक्षिण-पश्चिम में उमाशंकर गुप्ता के विरुद्ध तैरती नाराजगी को बगैर किसी खास प्रयास के साफ महसूस किया जा सकता था। फिर भी टिकट उन्हें ही देना था, गोया उस पर गुप्ता के नाम का पट्टा लिख दिया गया हो। गुप्ता का तो भाजपा यहां के अलावा पचासों जगह और उपयोग कर सकती थी।
दरअसल, भाजपा के बड़े नेता आत्ममुग्धता की सीमाओं का बेदर्दी से अतिक्रमण करते हुए कब मनमानी पर उतर आए, यह वह खुद भी नहीं समझ सके। तो फिर बाकी लोग इसमें क्यों पीछे रहते? गौरीशंकर शेजवार के पुत्र मोह ने सांची जैसी सीट उठाकर कांग्रेस के खाते में डाल दी। क्या यह जरूरी था कि गौरीशंकर शेजवार को चुनाव नहीं लड़ना या लड़ना था तो उनका बेटा ही भाजपा के पास इकलौता योग्य उम्मीदवार था। टिकट काटने में तो मनमानी का स्तर बेवकूफी के चरम तक पहुंच गया। 78 साल के सरताज सिंह का टिकट काटने की जिद और अस्सी साल के जुगलकिशोर बागरी को चुनाव लड़ाना कैसा निर्णय था? पिछली बार बागरी का टिकट काट कर उनके बेटे को दिया गया था, वो नहीं जीता तो इस बार फिर बागरी को दिया गया, वे जीत गए। रामकृष्ण कुसमारिया वह शख्स हैं, जिनके कुर्मी समुदाय और उमा भारती के लोधी समाज की बदौलत भाजपा ने कांग्रेस के गढ़ बुंदेलखंड को अपने नाम किया था। उन्हें पथरिया से क्यों नहीं टिकट दिया जा सकता था? लेकिन उम्मीदवारी से वंचित किए जाने के बाद कुसमरिया या सरताज सिंह की बगावत का जो असर हुआ, वह सबके सामने है। ग्वालियर-चंबल संभाग में नरेंद्र सिंह तोमर को मिले फ्री-हैंड ने वहां पार्टी की गत कर दी। जो मंत्री हारे हैं, उनकी कार्यकर्ताओं से दूरी और अक्रियता के किस्से आम थे, जिन पर शिवराज लहर के भरोसे ध्यान ही नहीं दिया गया। इंदौर तीन से महू जाकर जीत गर्इं ऊषा ठाकुर का वायरल हुआ वीडियो भाजपा के बदलते चरित्र को परिलक्षित नहीं करता है क्या? और भी ऐसे ढेर सारे निर्णय हैं जिन्होंने भाजपा को चौथी बार सत्ता के करीब आते-आते थाम लिया। मंदसौर जिले में जहां किसान आंदोलन का हव्वा खड़ा किया गया था, वहां भाजपा ने बड़ी सफलता हासिल की लेकिन इकलौता उम्मीदवार वही हारा जो पिछली बार मोदी लहर में उज्जैन संभाग में हारने वाला इकलौता उम्मीदवार था। क्या कोई दूसरा दावेदार भाजपा तैयार नहीं कर पाई। बाप रिटायर तो कुर्सी बेटे के नाम। फिर तो नेतृत्व को अपने देवतुल्य कार्यकर्ताओं की नाराजगी झेलने के लिए तैयार रहना ही चाहिए। आखिर कार्यकर्ता बधुआ मजदूर तो अब नहीं होता।
इस बात के लिए शिवराज की तारीफ करना होगी कि पन्द्रह साल की सरकार के बावजूद वह पार्टी को चौथी बार भी 109 सीटों तक ले आए। वरना छत्तीसगढ़ का हाल भी सामने है। यदि पार्टी सत्ता में नहीं आ सकी, तब भी संख्या के लिहाज से इतना सशक्त विपक्ष खड़ा कर देना शिवराज की बड़ी उपलब्धि है। इस तरह मायावती की मजबूर सरकार वाली इच्छा कम से कम इस प्रदेश में तो पूरी होती दिख रही है। फिर भी अंतत: जीत का फैक्टर ही काम करता है, जो शिवराज के पक्ष में नहीं गया। मूंगफली खाने की प्रक्रिया का एक खास पक्ष होता है। लगातार उसका स्वाद मुंह में घुलकर तबीयत खुश करता जाता है, लेकिन इसी बीच एक भी सड़ा या खराब दाना मुंह में आ जाए तो अब तक खायी गयी सारी अच्छी मूंगफली का स्वाद बेकार हो जाता है। राज्य में 109 सीटों तक शिवराज सरकार ने अच्छी मूंगफली ही खायी, लेकिन गलत चयन के महज कुछ फैसलों वाली सड़ी मूंगफली ने सारा मजा किरकिरा कर दिया है।
अतीत के किस्सों को सुनाने की कई शैली होती हैं। इनमें एक वह है, जिसमें किसी पात्र की असफलता या गलती को भी पूरे गौरव के साथ गिनाया जाता है। अंत में ‘दुर्भाग्य’ ‘दैवयोग’ या ‘नीयती’ जैसे विशेषण के जरिए उसकी नाकामी को अन्य कारणों से जोड़ दिया जाता है। मध्यप्रदेश के इस चुनाव का किस्सा सुनाने वाले शिवराज के लिए भी ऐसी ही दास्तान तैयार कर चुके होंगे। जिनकी शुरूआत, ‘एक था मुख्यमंत्री शिवराज’ से होगी और अंत ‘ऐसा था एक मुख्यमंत्री शिवराज’ से होगा। हां, अंत से पहले-पहले किसी न किसी रूप में बिल्ली को निचोड़े जाने की बात जरूर कही जाएगी, ताकि आने वाली भाजपाई पीढ़ी इससे कुछ सबक ले सके। कम से कम अगले पांच साल इस पीढ़ी को सबक लेने के लिए मिल ही चुके हैं। बाकी पार्टी का भाग्य। अभी तो लोकसभा की चुनौती में भी भाजपा के इन नेताओं के पास खुद में सुधार करने का मौका है। क्योंकि आने वाली यह चुनौती भी कम बड़ी तो नहीं है।