April 16, 2024

चले आ रहे हैं / गोपालप्रसाद व्यास

है कद इनका गुटका
मगर पेट मटका,
अजब इनकी बोली,
गज़ब इनका लटका,
है आंखों में सुरमा,
औ’ कानों में बाला,
ये ओढ़े दुशाला चले आ रहे हैं!
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं!

कभी ये न अटके,
कभी ये न भटके,
खरे ही चले इनके
सिक्के गिलट के।
खरे ये न खोटे,
लुढ़कने ये लोटे,
बिना पंख देखो उड़े जा रहे हैं!
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं!

है ओठों पे लाली,
रुखों पर गुलाली,
घड़ी जेब में है,
छड़ी भी निराली,
ये सोने में पलते,
ये चांदी में चलते,
ये लोहे में ढलते हैं गरमा रहे हैं!
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं!

ये कम नापते हैं,
ये कम तोलते हैं,
ये कम जांचते हैं,
ये कम बोलते हैं,
ये ‘ला’ ही पढ़े हैं,
तभी तो बढ़े हैं,
न छेड़ो इन्हें, हाय शरमा रहे हैं!
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं!

ये पोले नहीं हैं,
बड़ा इनमें दम है,
ये भोले नहीं हैं,
छंटी ये रकम हैं,
बड़ा हाज़मा है,
इन्हें सब हज़म है
हैं बातें बहुत, हम न कह पा रहे हैं!
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं!

पढ़ें इनके नौकर,
अजी, ये गुने हैं,
किसी भाड़ में ये न
अब तक भुने हैं,
हो सरदार कोई,
या सरकार कोई,
ये बढ़ते रहे हैं, बढ़े जा रहे हैं,
ये लाली के लाला चले आ रहे हैं।

You may have missed

Here can be your custom HTML or Shortcode

This will close in 20 seconds