आइए जाने क्यों मनाते है शीतला सप्तमी
- डॉ.रत्नदीप निगम
मित्रों , आज आपको शीतला सप्तमी की वास्तविक, प्रामाणिक एवम भारत के आयुर्वेद विज्ञान की रोचक कथा बताता हूँ । हुआ यूँ कि प्राचीन काल मे कोरोना की तरह ही एक वाईरस द्वारा जनित महामारी फैली । इस महामारी में शरीर पर लाल लाल पानी युक्त दाने निकलने लगे और बुखार ( ज्वर ) आने लगा । तत्कालीन महामारी ने धीरे धीरे कोरोना की तरह एक बड़ी आबादी को अपनी चपेट में ले लिया । इसका कोई ईलाज तत्कालीन चिकित्सक ढूंढ पाते उसके पहले ही भावना प्रधान समाज ने इसे दैवीय प्रकोप घोषित कर दिया । जिस शरीर पर बड़े बड़े और पीप युक्त दाने हुए उसे बड़ी माता और जिस शरीर पर छोटे और पानी युक्त दाने हुए उसे छोटी माता घोषित कर दिया । अब माताजी को मनाने के प्रयास प्रारम्भ हुए । उसके लिए देखा कि माताजी का प्रकोप गर्मी में अत्यधिक हुआ और प्रकोप से पीड़ित व्यक्ति बुखार की गर्मी और प्यास से विचलित हो जाता है तो शीतलता की माँग करता है तो यह विचार उत्पन्न हुआ कि माताजी को शीतलता पसंद है । अतः पीड़ित व्यक्ति को शीतल जल की पट्टी से नियमित सिंचन किया जाने लगा तो पीड़ित व्यक्ति को लाभ मिला तो यह यह तय हो गया कि माताजी ने शीतलता से प्रसन्न होकर प्रकोप कम कर दिया ।अब माताजी को और प्रसन्न करने के उपाय होने लगे । तो उसमें शीतल भोजन पीड़ित को दिया जाने लगा , उससे भी लाभ होने लगा तो यह भी तय हो गया कि माताजी शीतल भोग से प्रसन्न हो गई । जब प्रकोप पूरी तरह शांत हो गया तो यह निर्णय लिया गया कि माताजी फिर से कुपित अर्थात नाराज न हो जाये तो उनको प्रसन्न बनाये रखने और प्रकोप शांत करने के लिए धन्यवाद ज्ञापित करने हेतु उनकी पूजा की जाए । लेकिन पूजा के लिए मूर्ति की क्या कल्पना की जाए , तो विचार हुआ कि चूँकि माताजी के प्रकोप से व्यक्ति का शरीर विकृत छिद्रयुक्त हो जाता है तो माताजी का यही स्वरूप है । इसलिए दानेदार छिद्रयुक्त पत्थर को स्थापित कर शीतला माता की स्थापना की गई और उनकी पूजा का विधान प्रारम्भ किया गया , जो आज तक परंपरागत रूप से मनाया जा रहा है । इसीलिए जब आज भी किसी को इन दोनों माताजी में से किसी एक का भी प्रकोप होता है तो ठीक होने के बाद प्रकुपित व्यक्ति और उसकी माता बहने शीतला माताजी के मंदिर में प्रणाम करने अर्थात धन्यवाद ज्ञापित करने और नारियल चढ़ाने जाते हैं । आपने सुना होगा कि ये पूजा माँ बच्चों के स्वस्थ रहने के लिए करती है क्योंकि ये महामारी प्रकोप अधिकतर बच्चों को ही होता रहा है ।
उपरोक्त वर्णन से तो आपको हमारी परम्परा निर्माण की पद्धति और सामूहिक विचार विमर्श की समृद्ध विरासत का ज्ञान हो गया होगा । लेकिन इसके आयुर्वेदिक चिकित्सकीय एवम आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विमर्श को भी समझने की आवश्यकता है । आयुर्वेद के अनुसार यह विषाणु जनित रोग है जिससे बाह्य विष अर्थात विषाणु के शरीर मे प्रवेश होने पर पहले पित्त का संतुलन बिगड़ता है अर्थात मेटाबोलिज्म बढ़ जाता है जिसके फलस्वरूप ज्वर ( बुखार ) उत्पन्न होता है । फिर शरीर मे वात का संतुलन बिगड़ता है जिससे सम्पूर्ण शरीर मे जकड़न और दर्द पैदा होते हैं । फिर इस विष से लड़ने के दौरान शरीर की प्रतिरोधक क्षमता अनुसार कफ उत्पन्न होता है जो इस बड़े हुए पित्त को संतुलित अर्थात शांत कर देता है । यह पूरा संक्रमण काल 7 से 14 दिन का होता है । चूँकि यह विषाणु एक से दूसरे को प्रसारित होता है अतः आयुर्वेद शास्त्रों में इस रोग से पीड़ित व्यक्ति को बिल्कुल एकांतवास में रखने अर्थात ग्राम , नगर से बाहर कुटी बनाकर रखने का विधान किया गया जिसे आज के युग मे क्वारन्टीन करना कहते हैं । तत्कालीन आयुर्वेद चिकित्सकों ने रोगी का रोग दूर हो इसके लिये औषधि निर्माण के साथ साथ इसका प्रसार न हो तथा प्रकोप होने के बाद भी अधिक हानि न हो उसका सम्पूर्ण चिंतन कर विधान किया गया । यह रोग शरीर के रोम रोम में प्रकुपित होता है इसलिए आयुर्वेद के आचार्यों ने इसका रोमान्तिका नामकरण किया है ।
अब आते हैं आधुनिक चिकित्सा के विमर्श पर । आधुनिक चिकित्सा के अनुसार भी यह एक वाईरस जनित रोग है । यह वाईरस कोरोना की तरह ही अपने आपको रूपांतरित करता है अतः प्रारंभ में इसका ईलाज भी लक्षणों के आधार पर किया जाने लगा जैसे बुखार कम करने की दवा , पीप सुखाने की दवा , दर्द कम करने की दवा अर्थात एंटीसेप्टिक , अन्तिपायरेटिक और एनाल्जेसिक मेडिसिन । जैसे अभी कोरोना में रेमदेसिविर । आवश्यकता यह थी कि इसका संक्रमण कैसे रोका जाए तो आधुनिक चिकित्सा शास्त्रीयों ने इसके संक्रमण को रोकने के लिए वैक्सीन (टीका) बनाने का निर्णय लिया और विविध प्रक्रियाओं से गुजर कर इसका वैक्सीन बनाने में सफलता प्राप्त की , जिस तरह से कोरोना का वैक्सीन बनाने में सफलता प्राप्त की । अब वैक्सीन बनने के बाद समाज के प्रत्येक व्यक्ति को यह वैक्सीन लगे ,इसके लिए शासन के माध्यम से यह नियम बनाया कि बच्चे के जन्म के साथ ही निश्चित समय के भीतर यह वैक्सीन बच्चे को लगाया जाए । इस नियम के पालन से लगभग इस रोग पर विजय प्राप्त कर ली गई । ऐसा नहीं है कि आज के समय यह रोग नहीं होता है , होता है लेकिन दुर्लभ रूप से लेकिन महामारी के रूप में नही जैसे कोरोना ।
जिस तरह प्राचीन काल में इस तरह के विषाणु जनित रोगों को दूर करने का विधान तत्कालीन आयुर्वेद चिकित्सकों ने किया और आधुनिक चिकित्सकों ने वैक्सीन निर्माण के माध्यम से वाईरस के संक्रमण को समाप्त कर हमारी शीतला माता को प्रसन्न कर हमें और हमारे बच्चों को सुरक्षा प्रदान की ठीक उसी तरह से वर्तमान की कोरोना माता अर्थात कोविड वाईरस को भी प्राचीन आयुर्वेदीय विधान अर्थात आहार विहार का पालन तथा आधुनिक चिकित्सा के अनुसार वैक्सीन लगवाकर नई कोरोना सप्तमी की परंपरा प्रारम्भ कर इस कोरोना माता के प्रकोप से अपने और अपने परिवार की सुरक्षा करें । ध्यान रहे प्राचीन समय मे भी ग्राम , नगर के बाहर कुटी में शीतला प्रकुपित रोगी को रखा जाता था , ठीक इसी तरह कोरोना संक्रमित व्यक्ति को क्वारन्टीन किया जाता है । जैसे नियमो और परम्पराओ का पालन नहीं करने पर शीतला माता अप्रसन्न हो जाती थी ठीक उसी तरह लॉकडाउन एवम मास्क के नियमों का पालन नहीं करने पर कोरोना भी अप्रसन्न हो जाता है । निर्णय हम सब करें कि हमें क्या क्या पूजना है ।
लेखक आयुर्वेदिक चिकित्सक है
मो. 9827258826