“ठंडा खून”
कड़कती ठंड से,ठिठुरता शहर,
जाग रहा है उनींदा सा,
फैला रखे हैं पंख ठंड ने,
बिखरी हुई है वो पेड़ों पर, छतों पर
और आंगन में ,
ठंड से ठंडा हो चला है आदमी
उसका खून ठंडा हो चला है,
ठंडी है उसकी संवेदनाएं,
उसका लहू गर्म नही होता है,
किसी दो वर्षीय कली के रेप पर,
वो डूबा हुआ है,भोग विलास में
मशीनी युग में मशीन सा बन गया है वो,
भरी जेबों के भीतर गर्मी है रुपयों की,
मुर्दा जानवरों के शरीर नोचता,
तलाशता है सुख,
नन्ही नन्ही जीवित गर्म देहो में,
गर्म होने के लिए जरूरत पड़ती है
उसे शराब की,
थोड़ा जीवित रहता है,
कलियों को मसलते समय,
फिर मर जाता है,
ज़मीर से भी ओर शरीर से भी |
इन्दु सिन्हा”इन्दु”
रचना मौलिक ओर स्वरचित ओर अप्रकाशित है