Raag Ratlami Corruption : रिश्वत लेते रंगे हाथों धरा रहे है बाबू और पटवारी,भ्रष्टाचार के तालाब की बडी मछलियां पकड से अभी भी कोसों दूूर
-तुषार कोठारी
रतलाम। बीते दिनों सरकारी दफ्तरों में रिश्वतखोरी करते सरकारी कारिन्दों को रंगे हाथों पकडे जाने के कई मामले सामने आए। रंगे हाथों रिश्वतखोरी करते हुए पकडे गए कई कारिन्दों के खिलाफ अदालतों के फैसले भी हुए और इन रिश्वतखोरों को सलाखों के पीेछे भी भेजा गया। लगातार हो रहे ऐसे मामलों के बावजूद सरकारी कारिन्दों को लगी रिïश्वतखोरी की आदत छूटने का नाम नहीं ले रही है।
कुछ सालों पहले कानूनी पेचिदगियां कुछ इस तरह की होती थी,कि रिश्वतखोरी करते हुए पकडाए सरकारी कारिन्दे की बल्ले बल्ले हो जाती थी। लेकिन कुछ सालों से हालातों में कुछ तब्दीली आ गई है। अगर कोई सरकारी कारिन्दा रिश्वतखोरी करता हुआ पकडा जाता है तो तीन चार साल की मुदकमेबाजी के बाद उसका सींखचों के पीछे जाना तय हो जाता है। लेकिन पहले ऐसा नहीं था।
करीब एक दशक पहले रिश्वतखोरी करने वाले किसी कारिन्दे को पकडवाना,शिकायत करने वाले की बडी गलती साबित होती थी। कानून बनाने वालों ने कानून ही ऐसा बनाया था कि रंगे हाथों पकडाने वाले की बल्ले बल्ले हो जाती थी। रिश्वतखोरी करते हुए रंगे हाथों पकडाने वाले कारिन्दे के खिलाफ केस तो दर्ज होता था,लेकिन हाथों हाथ जमानत भी दे दी जाती थी। पकडे जाने के अगले ही दिन भ्रष्ट कारिन्दा फिर से अपनी उसी टेबल पर नौकरी कर रहा होता था,जहां उसे पकडा गया था। जिसने शिकायत कर उसे पकडवाया था,उस व्यक्ति का काम भी उसी कारिन्दे के पास होता था। शिकायत करने वाले से जिस काम को करने के लिए रिश्वत मांगी गई थी,शिकायत करने के बाद उस काम का पूरा होना असंभव हो जाता था,क्योकि दफ्तर का हर आदमी शिकायत करने वाले को हिकारत की नजर से देखने लगता था। कोई भी कारिन्दा उसके काम को होने नहीं देना चाहता था। इतना ही नहीं रिश्वत के लिए जो रुपए दिए जाते थे,वे भी शिकायत करने वाले की जेब से जाते थे और फिर अदालत के केस के लिए जब्त करके रख लिए जाते थे। सिर्फ इतना ही नहीं रिश्वतखोरी करने वाले कारिन्दे के खिलाफ अदालत में मामला चलाने के लिए सरकारी की इजाजत जरुरी होती थी और सरकार के राजधानी में बैठे अफसर बीस बीस साल तक मामला चलाने की इजाजत ही नहीं देते थे। नतीजा ये होता था कि शिकायत करने वाला तो थक ही जाता था,रिश्वतखोरी करने वाला कारिन्दा अपनी नौकरी पूरी करके रिटायर्ड हो जाता था। लेकिन तब भी अदालत में उसके खिलाफ मामला शुरु नहीं हो पाता था।
लेकिन आजकल हालात काफी बदल गए है। अदालतों ने इस पूरी नौटंकी को बदल कर रख दिया है। पहले जहां रिश्वतखोर कारिन्दे के खिलाफ मामला चलाने के लिए सरकार की इजाजत जरुरी होती थी,अब ऐसी कोई इजाजत लेने की जरुरत नहीं है। अदालतों ने सरकारी इजाजत लेने के रिवाज को खत्म कर दिया है। इतना ही नहीं अदालतों ने रिश्वतखोरी करने वाले कारिन्दे को उसी दिन सस्पैण्ड करने के फरमान भी जारी कर दिए है और साथ ही रिश्वतखोर कारिन्दे को उस दफ्तर से हटाकर मुख्यालय पर अटैच करने के फरमान दे दिए गए है।
इसका नतीजा ये है कि रंगे हाथों पकडे गए सरकारी कारिन्दे को पकडाने के फौरन बाद सस्पैण्ड करके मुख्यालय से अटैच कर दिया जाता है। दो तीन महीनों में ही उसके खिलाफ अदालत में मामला शुरु हो जाता है और अदालते दो तीन साल में मामले का फैसला सुना देती है। सौ में से कम से कम 95 मामलों में रिश्वतखोर कारिन्दे को सींखचों के पीछे भेज दिया जाता है।
तो कुल मिलाकर आजकल जो भी कारिन्दा रंगे हाथों पकडा जाता है,उसकी आगे की जिन्दगी खराब हो जाती है। उसे तीन चार साल सींखचों के पीछे गुजारने पडते है। नौकरी छीन ली जाती है और उसका सारा कैरियर तबाह हो जाता है। लेकिन इसके बावजूद सरकारी कारिन्दे बेधडक रिश्वतखोरी करे जा रहे हैैं।
इसके पीछे की कहानी थोडी सी उलझी हुई है। सरकारी बाबू और पटवारी या सचिव जैसे छोटे कर्मचारी जब भी रिश्वतखोरी करते हैैं वे सिर्फ अपने लिए नहीं करते। बल्कि रिश्वत की रकम का बडा हिस्सा बडे अफसरों के लिए होता है। क्योकि आखिरकार जिस भी काम के लिए रिश्वत दी जाती है और उस पर आखरी दस्तखत तो अफसर ने ही करना होते है। अफसर अपनीअफसरी के रौब में रहता है इसलिए लेन देन अपने बाबू या पटवारी के जरिये ही करता है। यानीअगर रंगे हाथों पकडने के लिए कोई जाल बिछा हो तो उस जाल में अफसर कभी नहीं फंसेगा।
नामली हो या पिपलौदा,जहां भी कोई छोटा कर्मचारी रिश्वतखोरी करता हुआ रंगे हाथों पकडा जाता है तो उसके पीछे अफसर की मांग जरुर छुपी हुई होती है। ये अलग बात है कि छोटे कारिन्दे की लालच का भी इसमें रोल होता है। लेकिन जब भी कोई कारिन्दा पकडा जाता है,सारे के सारे अफसर उससे अपना पिण्ड छुडा लेते है। पकडने वाले भी जानते है कि उनके जाल में भ्रष्टाचार के तालाब की छोटी मछलियां ही फंसती है,बडी मछलियां तो उनके जाल से दूर ही बनी रहती है।
रेवेन्यू वाले महकमे के कारिन्दे तो फिर भी छोटे खिलाडी है। सडक़ और गाडियों वाला महकमा इन कामों में सबसे अव्वल दर्जे पर माना जाता है। अभी हाल में भोपाल का करोडों रुपए कमाई वाले एक सिपाही की चर्चा पूरे देश में हो रही है। सडक़ और गाडियों वाले महकमे के अफसर तो ठीक छोटे बाबू भी इतने चालाक हो गए है कि खुद अपने हाथों में कभी रकम नहीं लेते। उन्होने इन सारे कामों के लिए प्राइवेट लोग किराये पर लगा कर रखे होते है। इस महकमे के लोग परमिट और लायसेंस जैसे कामों की रिश्वत खुद नहीं लेते बल्कि दफ्तर के आस पास के दुकानदार या उनके खुद के रखे हुए प्राइवेट लोगों के जरिये रकम उनके पास पंहुचते है। नतीजा ये है कि सबसे ज्यादा भ्रष्ट महकमे के लोग रंगे हाथों तो कभी पकडाते ही नहीं है। रतलाम में इस महकमे का आलम ये है कि महकमे के बडे साहब ने हर काम की कीमत दुगुनी कर दी है और बस ट्रक वाले इसका रोना ना जाने कहां कहां रोते है। लेकिन महकमे के साहब की रंगबाजी इतनी बढी हुई है कि वे धडल्ले से अपनी कमाई बढाने में जुटे हुए है।
स्वच्छता के लिए रैली
शहर के इतिहास में यह शायद पहला मौका होगा,जब शहर को स्वच्छ रखने के लिए और लोगों में जागरुकता लाने के लिए शहर सरकार ने स्वच्छता रैली निकाली। रैली में वैसे तो छोटे बडे सभी तरह के लोग शामिल हुए,लेकिन इसकी खासियत ये थी कि शहर को स्वच्छ रखने वाले लोग और उनके तमाम साधन भी इस रैली में शामिल किए गए। कम से कम रैली को देखने वालों को रैली देखने से इतना तो पता चल ही जाएगी कि आखिर शहर की सफाई करने वाले महकमे के पास सफाई रखने के इंतजाम क्या क्या है? सफाई के अभियान को लगातार जारी रखने के लिए कितने साधनों का उपयोग किया जाता है? इस तरह की सारी बातें पहली बार शहर के बाशिन्दों को पता चली होगी। बहरहाल,शहर सरकार की ये पहल असरदार ढंग से आगे बढें,तो शहर स्वच्छता के मोर्चे पर कमाल भी दिखा सकता है और पुरस्कार भी जीत सकता है।