November 23, 2024

New Research : सौ साल बाद एक भारतीय वैज्ञानिक ने सिंधु-घाटी के रहस्य से पर्दा हटाया, मन्दिर भारत की आध्यात्मिक पहचान

वेद विज्ञान अध्येता डॉ. सी.पी.त्रिवेदी ने वेद विज्ञान से सिंधु-घाटी के रहस्य और सीलो को अनावृत करने का दावा किया

इंदौर ,19 जुलाई (इ खबरटुडे)। सौ साल बाद एक भारतीय वैज्ञानिक ने सिंधु-घाटी के रहस्य से पर्दा हटाया। ज्ञातव्य है कि सिंधु-घाटी की खोज 1920 मे सर जॉन मार्शल द्वारा की गई थी। इसके बाद ही भारत पर आर्य बाहर से आऐं और उन्होने काले द्रविडो को मार भगाया? यह झूठा कलंक लगाया गया । वेद विज्ञानं अध्येता डॉ. सी.पी.त्रिवेदी ने अपने मौलिक अनुसन्धान से यह सिद्ध किया कि सिंधु-घाटी एक विकसित वैदिक सभ्यता थी, यह पूर्ण वैज्ञानिक सभ्यता थी । सिंधु-घाटी के उत्खनन मे प्राप्त सीले और ताम्बे की प्लेटो का उपयोग छात्रो को पृथ्वी पर सृष्टि और जीवन की उत्पत्ति ज्ञान देने के लिए किया जाता था, जिसका वृतान्त वेदो मे प्राप्त होता है। इन सीलो का उपयोग संकेतो के द्वारा प्रारुप प्रदर्शन और अध्ययन अध्यापन मे किया जाता था। जो आज के आधुनिक सृष्टि ज्ञान के समान था। सिंधु-घाटी के समकक्ष वैज्ञानिक उन्नति अब हुई है। एतदर्थ अब इन संकेतो का अर्थ खोजना सम्भव हुआ है। वैदिक संकेत और सीलो पर उकेरे गए संकेत एक दूसरे के पूरक है। आधुनिक विज्ञान मे इनका उत्तर है। इससे स्पष्ट हुआ कि सिंधु-घाटी वैदिक सभ्यता थी।

डॉ.त्रिवेदी ने यह भी कहा कि डीएनए और हिग्स फिल्ड गॉड पार्टीकल की खोज भारत की पुरातन खोज है। जिस पर हर भारतीय को गर्व होगा। परन्तु स्वतंत्र भारत मे इसे धर्म का जामा पहना दिया गया। यह दूर्भाग्यपूर्ण है। इसके कारण भारत मे ही भारतीय संस्कृति को हेय समझा जाता है। सरकार बदल गई, परन्तु सरकार के नुमाईन्दे आज भी वही है। जो वेदो को सिर्फ धार्मिक ग्रंथ समझते है। यहॉ आदरणीय मोदी जी भी असफल है। देश ने राम मन्दिर की लड़ाई तो जीत ली, परन्तु मन्दिर भारत की आध्यात्मिक पहचान है। वेद मे मन्दिरों का उल्लेख नही है। वैदिक काल के बाद मन्दिर अस्तित्व मे आए। जो आध्यात्त स्रोत का है। भारत की असली पहचान सिंधु-घाटी और वेदो मे है।

डॉ.त्रिवेदी ने अपनी डीएनए की खोज अंतर्राष्ट्यि संगोष्ठी केपटाउन दक्षिण आफ्रिका तथा ग्रीस एथेंस मे प्रस्तुत किया, जहॉं इसे अच्छा समर्थन प्राप्त हुआ।

डॉ.त्रिवेदी ने यह भी कहा कि गॉड पार्टीकल को वेदो मे हिरण्यगर्भ दल अर्थात सोने का अण्डा कहा गया है, जो सबका स्वामी हुआ। डीएनए को त्वष्टा और विवस्वत कहा गया है। जिससे जीव जगत का विकास हुआ और वही सब दूर चारो तरफ फैल रहा है। अभी गुरुत्वाकर्षण तरंग की खोज हुई यह सूक्ष्म ध्वनि तरंग के समान है, इन्हे रात्रि सूक्त मे रात्रि की देवी कहा गया है। सिंधु घाटी में प्राप्त सीलो पर संकेतो द्वारा इसे अभिव्यक्त किया गया है।

डॉ.त्रिवेदी ने कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति और विकास एक मौलिक ऊर्जा से हुआ, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे व्याप्त है। जिसके अंतर्गत सृष्टि ऊर्जा के ऊष्मा सम्बंधी सिद्धान्तो के अंतर्गत कार्यरत है, जिस मौलिक ऊर्जा से सृष्टि के घटको और जीवो का निर्माण होता है अंततः वे समय के साथ उसी मे विलिन हो जाते है। इसे पुरूष सूक्त ़ऋग्वेद 10-90 मे अभिव्यक्त किया गया और इस सूक्त को पाशुपत मुद्रा वाली सील पर उत्कीर्ण किया गया है। इसे सीलो पर पुरुष की योगिक आकृति द्वारा दर्षाया गया है। योगी के सर पर दो सींग यह अभिव्यक्त करते है कि मौलिक ऊर्जा अपने द्विस्वभाव फोटॅान एवं फोनॉन के द्वारा क्रियाशील है। प्रकाश और ध्वनि एक दूसरे के पूरक है।

एक सींग से तात्पर्य है कि सृष्टि की उत्पत्ति एवं विकास एक मौलिक ऊर्जा से हुआ। जीव जगत का विकास एक डीएनए से अनुवांषिक पुनर्संयोजन और कोषा विभाजन के द्वारा हुआ। यह सांकेतिक पशु के उपर उकेरी गई इबारत द्वारा दर्शाया गया है। ये कोषा विभाजन के सुक्ष्म प्रारुप है कि कोषा विभाजन क्रोमोसोम से क्रोमोसोम तक होता है।

इस मौलिक ऊर्जा की कल्पना को एक सींग वाले पशु (ब्रह्माण्ड) के रूप मे देखने पर गर्दन के नीचे की तरफ लटका हुआ बर्नर प्रकाश और ऊर्जा का सांकेतिक चिन्ह है। जिस प्रकार बर्नर प्रकाश और ऊर्जा का चिन्ह है। उसी प्रकार ब्रह्माण्ड मे सूर्य प्रकाश और ऊर्जा का स्रोत है।

डॉ.त्रिवेदी ने कहा कि आर्य भारत के मूल वासी है। सिंधु-घाटी वैदिक सभ्यता थी। प्राकृतिक प्रकोप और प्रकृति के अनियंत्रित दोहन से यह विनाश को प्राप्त इुई, और लोग शहरो से गांव की तरफ चले गऐं। इसके कारण वैदिक संस्कृति ग्रामीण संस्कृति मे परिणित हो गई, और उसकी परम्पराऐं आज भी भारतीय संस्कृति और जीवन का अंग है।

मौर्य काल मे इस संस्कृति का पुर्नउत्थान हुआ सम्राट अषोक और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के समय इसने अपना परचम पुरे विश्व मे लहराया।

सृष्टि का विकास एक मौलिक ऊर्जा से हुआ, जो सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है। मौलिक ऊर्जा अपने द्विस्वभाव प्रकाश और सूक्ष्म ध्वनि तरंग के अंतर्गत क्रियाशील है। अनन्त संसार के मध्य में और सृष्टिरूपी गहन समुद्र के पृष्ठ में वह महान् यक्ष के समान खड़ा है, जो कुछ भी इस सृष्टि में है, ये सभी उसके, वृक्ष की शाखाओ के समान है। इसे सम्राट अशोक ने स्थम्भो के रुप मे अभिव्यक्त किया। मौलिक ऊर्जा की कल्पना आदि पुरुष महादेव के रुप मे की गई।

जीव का जीवन तीन अविनाशी तत्वो के संयोग का परिणाम है, जो जीव को अनिवांशिक रुप मे गर्भ मे प्राप्त होते है। हिग्स फिल्ड आकाश , जिससे मूल भूत कणो को भार प्राप्त हुआ, गर्भ मे प्राप्त निषेचित डीएनए जिसे फोनोन वेव उत्प्रेरित करती है तथा भोजन की चया-पचय ऊर्जा जो भ्रूण को पोषित करती है, तीनो अविनाशी है, जो गर्भ मे अनुवांषिक प्राप्त होते है। यह ज्ञान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के समय ग्रीस के राजदूत हिलियोडोरस ने हिलियोडोरस स्थम्भ विदिषा पर उकेरा और अपने साथ यह ज्ञान ले गया। इसे उसने जेरुसलेम मे स्थापित किया और वही एकेश्वर वाद के रुप मे पुनः भारत मे आया।

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