गिनी चुनी शासकीय भूमियो के कारण 99 प्रतिशत नागरिको को हो रही है जमीनों के नामांतरण में परेशानी; इस तरह हो सकता है समस्या का समाधान
रतलाम,17 जुलाई (इ खबरटुडे)। रतलाम शहर में विगत कई महीनों से पुर्वाधिकारियों द्वारा जारी मौखिक आदेश के पालन में भूमियों के तहसील तथा नगर निगम में नामांतरण करने पर 1956-57 के रिकॉर्ड की स्थिति मांगी जा रही है, जिससे शहर में संपत्तियों की खरीद बिक्री के पश्चात लोग अपना नाम आवश्यक अभिलेखों में इंद्राज नहीं करा पा रहे हैं। यह जानकारी मांगने का कारण यह है कि त्रुटि वश,गलत माहिती, जल्दबाजी आदि के कारण कहीं भविष्य में शासकीय भूमि का हस्तांतरण होकर उसका नामांतरण होने की सजा किसी अधिकारी या कर्मचारी को न भुगतना पड़े।
इस विषम समस्या पर विभिन्न मंचो तथा स्तरों पर आवाज उठाई जाती रही है, किंतु किसी ने भी इस पर अभी तक कोई स्पष्ट समाधानकारक उत्तर नहीं दिया है। जिससे आम जनता को आए दिन परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।
इस संबंध में नगर नियोजक एवं जमीन व्यवसाय से जुड़े अनिल झालानी ने वक्तव्य जारी कर इस विषय पर अपनी जानकारी के आधार पर वैधानिक स्थिति स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
श्री झालानी के अनुसार देश की स्वतंत्रता और रियासतों के विलीनीकरण के दौरान मध्य भारत राज्य की स्थापना हुई जिसमें भूमि संबंधी कानूनों पर म.भा.लैंड रिवेन्यू एवं टेनेंसी एक्ट, संवत 2007 (सन 1950) नामक एक बहुत महत्वपूर्ण कानून बना। जिसमें तत्कालीन मध्यभारत राज्य में विलिनीकृत देशी रियासतों में अपने अपने रियासत में इस अवधि से पूर्व के भूमि संबंधी समस्त प्रकार के प्रचलित कानूनों में कृषको को प्रदत्त पृथक-पृथक स्वत्व व अधिकारों का समावेशीकरण कर, भूमि पर उनके अधिकारों के आधार पर इस कानून में स्वामित्व का वर्गीकरण नए सिरे से सर्जन किया गया। जिसके अनुसार भूमियों के धारित व्यक्ति को उसके धारण करने की अवधि, उसके उपयोग व उसक प्रकार, कब्जा, तथा उसके पट्टे में दिए गए वैधानिक अधिकार व भूमि के उपयोग की अनुमति के आधार पर उन्हें अलग-अलग प्रकार के अधिकारों के आधार पर वर्गीकरण किया गया।
यह वह समय था जब रियासत काल के आसपास किसी भी व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से अपने भूमि का कोई पूर्ण स्वामित्व नहीं दिया जाता था। समस्त भूमि शासन के ही अधीन किसी न किसी रूप में मानी जाती थी।जो प्रायः पट्टे (लीज नही)के नाम से जानी जाती रही।संपत्ति का क्रय विक्रय भी उस दौर में पट्टे के आधार पर ही होता था।अर्थात पट्टा ही लंबे समय तक मालिकाना दस्तावेज मान्य होता आया है।
कालांतर में 1956 में मध्य प्रदेश राज्य की स्थापना हुई और इसी अवधि में रतलाम जिले का रिकॉर्ड ऑफ राइट्स अधःतन किया गया, जोकि टेनेंसी एक्ट के प्रावधानों अनुसार तैयार किया गया।इस प्रक्रिया में 1912-13 के बंदोबस्त में बनाए गए सर्वे नंबरों को समाप्त कर विभिन्न भूमियों को सम्मिलित कर या विभक्त कर नए सर्वे नंबर कायम कर रिकॉर्ड बनाया।
श्री झालानी ने बताया कि चार राज्यों को मिलाकर नवगठित मध्य प्रदेश राज्य की स्थापना के पश्चात नई विधान मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता, 1959 कानून बन के आया जिसके आधार पर ही आज तक समस्त भूमि(राजस्व) संबंधी निर्णय लिए जाते हैं। 1959 के इस कानून में धारा 158 के प्रावधानों के अंतर्गत चारों विलिनीकृत राज्यों के पूर्व के भूमि के वर्गो को समाविष्ट कर, उसके अनुसार एक नई भूमि स्वामी की श्रेणी निर्मित की। यह शब्द तभी अस्तित्व में आया जो निर्बाध रूप से किसी भी व्यक्ति को अपनी भूमि का स्वामी घोषित करने,स्वंतंत्र अधिकारी मानने तथा उसका उपयोग- उपभोग करने का पूर्ण स्वामित्व प्रदान करता है। इसी धारा से आमजन को अपनी भूमि पूर्ण रूप से निजी भूमि मानने का अधिकार अर्जित हुए। जिससे स्पष्ट है कि भू राजस्व संहिता 1959 लागू होने के फल स्वरुप 1956- 57 या उसके पूर्व के किसी भी अभिलेख की या उसकी प्रविष्टियों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है।क्योंकि उस समय की पट्टे वाली भूमियों को भी निजी दर्जा दिया गया।और शायद यह जानकारी राजस्व अधिकारियों को भी होना चाहिए कि सन 1959 के पश्चात के अभिलेखों की प्रविष्टियां ही सही वह मान्य है।
बीच के दौर में एक समय ऐसा आया जब रतलाम शहर में स्थित समस्त शासकीय भूमियों को स्थानीय नगरपालिका की संपत्ति मानते हुए अभिलेखों में मुनिसिपलिटी नाम से दर्ज कर दिया गया। जबकि नजूल एक्ट आने के बाद राज्य सरकार ने शहरों की शासकीय भूमि पर अपना अधिकार बताया। इस बात को लेकर के नगर पालिका व राज्य शासन के बीच में हुए विवाद पर अंततोगत्वा राजस्व मंडल ग्वालियर द्वारा 1970 में एक आदेश पारित कर रतलाम शहर की समस्त भूमियों का विस्तृत रूप से सभी नंबरों की लंबी छानबीन व सूक्ष्म विश्लेषण कर तथा 1912 -13 के रतलाम के बंदोबस्त से लगाकर 1959 की स्थिति के आधार पर शासकीय भूमिया चिन्हित कर, उनकी एक सूची बनाई गई, तथा शहर की ऐसी शासकीय भूमियों को, राजस्व मंडल द्वारा विधिवत राज्य सरकार के स्वामित्व की मानते हुए शासकीय भूमि घोषित किया गया। तदनुसार रिकार्ड में समस्त दुरुस्तीयां कर नजूल इंद्राज कराया गया।यह सूची भी राजस्व विभाग में सबके पास उपलब्ध है तथा विभाग को इस सूची की पूर्ण जानकारी है।और यह सूची सर्वसुलभ है। इस सूची से बाहर जाकर सरकार अब कुछ कर भी नहीं सकती।
यदि शासन चाहे तो उक्त सर्वे नंबरों को विशिष्ट लाल घेरे से अंकित करके स्वयं अपने कार्ड में स्पष्ट रूप से घोषित कर सकती है कि राजस्व मंडल द्वारा घोषित शासकीय भूमि की सूचियों में जिन सर्वे नंबरों का उल्लेख है, उन्हें लाल रंग से खसरा- खतौनी में एंट्री कर शासकीय भूमि की पहचान प्रथक से कर सकती है। ताकि उक्त सर्वे नम्बरों की भूमियों को छोड़कर उसके अतिरिक्त शहर की अन्य सभी सर्वे नंबरों की भूमियों का स्वतंत्र रूप से क्रय विक्रय तथा परस्पर निजी संव्यवहार निर्बाध एवं बेरोकटोक जारी रखकर इस गतिरोध का निराकरण किया जा सके।
जहां तक 1961-62 के रिकॉर्ड का प्रश्न है तो विवाद की जड़ यही खसरे खतौनी हैं, जिनमे 1959 के पारित नए कानून की समझ न होने से रेकॉर्ड में (कई जगह,कुछेक जमीनों की नोइयतों को छोड़कर एकाधिक बार) काटा पिटी होने से उसकी प्रमाणिकता समाप्त हो गई है।यह रेकॉर्ड अभी भी तहसील में सुरक्षित होना चाहिए, क्योंकि इसकी प्रतिलिपि रतलाम के अनेक नागरिको के पास हाल के वर्षों तक निकाली गई प्रमाणित नकलो के प्रमाण स्वरूप उपलब्ध है।या यह भी सम्भव है कि शासकीय भुमियों की हेराफेरी की शिकायतों की जांच के दौरान पूर्व कलेक्टरों ने रिकॉर्ड को custody में लेकर जिला कोषालय में जमा करा दिया हो।
जिलाधीश यदि चाहें तो एक स्थाई आदेश जारी कर,1970 की शासकीय भुमियों की सूची का 1961 के रजिस्टर में कॉलम नम्बर 12 में उल्लेख करने की प्रक्रिया अपना कर इन रजिस्टरों को वापस रेकॉर्ड पर ला सकते हैं।उल्लेखनीय है कि पूर्व में कलेक्टर महोदय ने शासकीय घोषित भुमियों की सूची जिला पंजीयक को प्रेषित कर उक्त सम्पतियों को पंजीयन से पूर्व जिलाधिकारी के संज्ञान में लाने के निर्देश दिए हुए रिकॉर्ड पर है, जिसका भी बखूबी पालन सम्भव है। इस प्रकार कतिपय भुमियों के कारण 99 प्रतिशत जनता को हो रही असुविधा से निजात दिलाई जा सकती हैं।