संकट कितना भी बड़ा हो मन का धैर्य नहीं खोना चाहिए:पूज्य शंकराचार्य श्री विजयेंद्र सरस्वती
रतलाम,13 मई (इ खबरटुडे)। हम जीतेंगे – पॉजिटिविटी अनलिमिटेड की थीम के साथ कोविड रिस्पांस टीम द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला के तीसरे दिन आज के प्रथम वक्ता रहे काँची कामकोटि पीठ के पूज्य शंकराचार्य श्री विजयेंद्र सरस्वती जी —-
पूज्य शंकराचार्य श्री विजयेंद्र सरस्वती जी ने समाज को संबोधित करते हुए कहा कि आज इस कोरोना महामारी के कारण केवल भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व पर संकट आया है अतः हमारा दृष्टिकोण अपनी महान परम्परा वसुधैव कुटुम्बकम की होनी चाहिये । संकट कितना भी बड़ा हो मन का धैर्य नहीं खोना चाहिए । विश्वास के साथ श्रम करेंगे तो परिणाम भी सुखदायक होंगे । इसलिए दो कोशिश अवश्य करनी चाहिए । एक – प्रार्थना करना , स्तुति करना , नियम पालन करना और दूसरी आयुर्वेद और पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के समन्वय से इस महामारी की चिकित्सा करना ।
इन दोनों कोशिशों की सहायता से इस संकट से मुक्ति मिलेगी लेकिन इसमें भी धैर्य और आत्मविश्वास का भी स्थान सुनिश्चित करना पड़ेगा । पूज्य शंकराचार्य जी अशोक वाटिका में वृक्ष के नीचे बैठी माता सीता के उदाहरण को देते हुए बताया कि एक समय ऐसा आया कि माता सीता कभी आत्मविश्वास डगमगा गया था और वे प्राणत्याग करने का विचार करने लगी , तब हनुमान जी ने उनका आत्मविश्वास बढ़ाया था । गीता के उपदेश को उधृत करते हुए आपने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बोला कि तेरे मन मे जो दुर्बलता है उसे छोड़ देना चाहिए । आपने समाज से आह्वान करते हुए कहा कि सामूहिक दृष्टि से वातावरण बनाने का प्रयास करें एवम समाज की शक्ति तथा शासन पर विश्वास बनाये रखें । देश विदेश की सभी संस्थाएँ सेवा कार्य कर रही है और उसके कारण हो रही प्रगति को हम सब देख भी रहे हैं , इसलिए सदाचार और संकल्प के साथ , सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ , देशभक्ति के साथ विश्व शांति और विश्व कल्याण के लिए हमारा प्रयास होना चाहिए ।
आज के द्वितीय व्याख्यान को संबोधित किया विश्व प्रसिद्ध नृत्यांगना पद्म विभूषण डॉ. सोनल मान सिंह जी ने ।
अपने कलात्मक उदबोधन में पद्मभूषण डॉ. सोनल मान सिंह ने कहा कि हम सब मौन नहीं बैठे हैं , हम एक मायावी , रूप बदलने वाले अदृश्य शत्रु से युद्ध कर रहे हैं , जिसका वर्णन कभी हमने अपने प्राचीन शास्त्रों में सुना है । इस युद्ध में कभी कभी ऐसा लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है ,मन में तरंग उठती है निराशा , निःसहाय और क्रोध की तभी कोई शक्ति उत्पन्न होती है और हम इस वातावरण से बाहर आ जाते हैं । यह शक्ति ही एक कला है , जो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर का गुण होता है जिससे इन नकारात्मक विचारों को दूर किया जा सकता है । जब मन पर नियंत्रण होने लगता है , जब सकारात्मकता उत्पन्न होने लगती है तब हमें श्रीमद्भागवत गीता और उपनिषद सर्वाधिक उपयोगी लगने लगते हैं । जब हम डूब रहे हों तब यह सोचो कि अभी मेरा काम शेष है , निराशा का ताला खोलकर मन में असीम आशा की बाढ़ आने दो जिससे नकारात्मक वैचारिक गंदगी सब बह जाएगी । कला जीवन जीने की प्रेरणा बनती है , यह विश्वास रखना चाहिए कि हम सब वो चिराग है जिसकी रोशनी हजारों बवंडर पर भारी है ।