Raag Ratlami- किस्सा जमीनखोर का : चोर चोरी से ही ना जाए,तो हेराफेरी से क्यो जाए?/वर्दी वाले को खबरचियों की लताड……
-तुषार कोठारी
रतलाम। पुरानी कहावत है चोर चोरी से जाए लेकिन हेराफेरी से ना जाए। शहर के एक चर्चित जमीनखोर के लिए यह कहावत भी सही साबित नहीं होती। किसी जमाने में टूटे फूटे स्कूटर पर चलकर बिजली का सामान बेचने वाला यह जमीनखोर आज हजारों करोड का आसामी बन चुका है। लेकिन तमाम दौलत चोरी चकारी के हथकण्डों से ही आई है,इसलिए इतनी दौलत आने के बावजूद भी उसकी चोरी चकारी की फितरत में कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसे आदमी के लिए पुरानी कहावत असरदार साबित नहीं होती, उसके लिए तो कहना पडेगा,चोर चोरी से ही ना जाए,तो हेराफेरी से क्यो जाए?
जमीनखोर ने पहले तो चोरी से एक सरकारी जमीन स्कूल बनाने के नाम पर हथिया ली। फिर ये जमीन किसी दूसरे स्कूल को दे डाली। दूसरा स्कूल भी है उसी का,लेकिन नाम किसी और का है। धोखाधडी से हासिल जमीन पर स्कूल चलाया,तो यहां भी जमीनखोरी की,चोरी चकारी वाली आदतेंं नहीं गई। पहले जमीनों की धोखाधडी करने की आदत थी,अब स्कूल है,तो स्कूली बच्चों को लूटने खसोटने की आदत लग गई। कोरोना में तमाम स्कूल बन्द रहे। बडी अदालत ने स्कूल वालों के लिए फरमान जारी किया,कि वे बच्चों से सिर्फ पढाई की फीस लेंगे। जमीनखोर अदालती फरमानों का मनमाना अर्थ निकालने का विशेषज्ञ है। स्कूल वाले जो फीस लेते है,उसमे तमाम चीजों की फीस शामिल होती है। स्कूल की अन्य सुविधाओं का शुल्क भी फीस में जुडा होता है। अदालत की मंशा ये थी कि स्कूल वाले जो फीस लेते है उसमें दूसरी सुविधाओं का जो खर्चा लेते है उसे कम कर दें और केवल पढाई का खर्चा ले ताकि बच्चों के पालकों को कुछ राहत मिल सके। लेकिन जमीनखोर ने अपनी आदत के मुताबिक अदालती आदेश का अर्थ निकाला और लोगों से कहा है कि अदालत ने ही आदेश दिया है फीस वसूलने का,इसलिए फीस में कोई कटौती नहीं की जाएगी। इतना ही नहीं उसने फीस नहीं देने वाले बच्चों को परीक्षा से बाहर करने की धमकियां भी दे डाली। अब बच्चों के अभिभावक दफ्तर दफ्तर दौड रहे है और अफसरों से गुहार लगा रहे है िक जमीनखोर स्कूल संचालक पर लगाम लगाई जाए। जमीनखोर को सरकारी अफसरों की कोई चिन्ता नहीं है, उसे सरकारी अफसरों को साधने में भी महारत हासिल है। स्कूल में पढने वाले बच्चों के अभिभावक ये सोच सोच कर हैरान है कि हजारों करोड की हैसियत रखने वाला जमीनखोर नन्हे बच्चों की फीस में कमी करने को राजी क्यों नहीं है? वे नहीं जानते कि दौलत आ जाने से इंसान की फितरत नहीं बदलती। करोडों भी आ जाए,तो घटिया आदमी घटिया ही रहता है। जो स्कूल के मास्टरों का वेतन खा जाता है,तो बच्चों की फीस कैसे छोड देगा?
वर्दी वाले साहब का गुरुर और खबरचियों की लताड……
वर्दी वाले महकमे के बडे साहब सब कुछ संभाल लेते है,वरना नीचे वाले तो उलझने खडी करने में कोई कसर नहीं छोडते। शहर के तमाम खबरची बडे साहब से खुश रहते है। बडे साहब वक्त जरुरत खबरें देते रहते है और मुस्कुराकर मिलते जुलते है। लोगों को और क्या चाहिए? लेकिन वर्दी वाले महकमे में कुछ अफसरों पर वर्दी का नशा छाया रहता है। वर्दी के नशे में वे इंसान को इंसान नहीं समझते। मामूली दुआ सलाम में भी उन्हे जोर आता है। किसी से मुस्कुरा के मिलने में तो जैसे लाखों रुपए खर्च हो जाते हो। खबरचियों के बिना वर्दी वालों का काम चल नहीं सकता, लेकिन जिस पर वर्दी का नशा छाया हो,उसे कोई फर्क नहीं पडता। वो तो खबरचियों को भी उसी डण्डे से हांक देता है,जिससे आम लोगों को हांकता है। लेकिन खबरची तो खबरची होते है,वे ऐसी बातें बर्दाश्त नहीं करते। खबरची जुगाड में लगे रहते है कि कब मौका मिले और कब उन्हे सबक सिखाए।
खबरचियों को मौका भी मिल गया। गुरुर में रहने वाले एक साहब ने किसी खबर को लेकर खबरची के लिए आडी तिरछी टिप्पणी कर दी। बस फिर क्या था। खबरची सीधे शिकायत लेकर बडे साहब के पास चढ दौडे। बडे साहब को भी अंदाजा था कि बिगडी बात उन्ही को संवारना पडेगी। फिर बडी देर तक लताडने का प्रोग्र्राम भी चला। बडे साहब ने खबरचियों को जैसे तैसे शांत किया और रवाना किया।