राग रतलामी-बड़े साहब और छोटे साहब के बीच उलझ कर रह गई है जिले की पंचायत,गुम हो गया गुलाब चक्कर
-तुषार कोठारी
रतलाम। जिला पंचायत के बड़े साहब का काम में मन नहीं लग रहा है। कई विभागों की फाइले इनके चैंबर में काफी समय से धूल खा रही है। अधिकारी चक्कर काट रहे हैं। लेकिन फाइले जैसी पड़ी है वैसी ही पड़ी है। कुछ दिन पहले साहब ने स्वयं अपने ट्रांसफर की सुगबुगाहट भी विभागीय अधिकारियों के समक्ष छेड़ दी थी, तो कुछ अधिकारियों ने राहत की सांस ली थी। लेकिन अब यह सुगबुगाहट बंद हो गई। साहब यथावत है। अधिकारी व र्कमचारी एक दूसरे से केवल चर्चा कर रहे हैं,लेकिन साहब का टांसफर नहीं हुआ। इन दिनों साहब र्र्कायालय में भी कम आ रहे हैं। कभी कभार तो पूरा दिन गायब रहते हैं। इसका फायदा इनके ओएस साहब भी उठा रहे हैं। साहब ओएस साहब के अलावा किसी पर विश्वास भी नहीं करते हैं। जिस दिन बड़े साहब गायब रहते हैं उस दिन ओएस साहब भी ऑफिस से नदारद रहते हैं। यहां तक कि साहब के आने-जाने के बारे में विभागीय अमले को भनक तक नहीं लगने देते हैं। ओएस साहब, जिला पंचायत के बड़े साहब के पहले रह चुके साहब के समय केवल नोडल अधिकारी हुआ करते थे। लेकिन जब से नए बड़े साहब आए तो उन्होंने इन्हे ओएस का दर्जा दे दिया तब से इनके रंग-ढंग भी बदल गए है। इन पर कुर्सी का असर आ गया है। बड़े साहब के पहले ओएस साहब नोडल रहने के दौरान जिला पंचायत से जुड़ी हर एक बात को बाहर तक पंहुचा दिया करते थे। लेकिन अब कुर्सी का असर ऐसा हो गया है कि हर बात को नकार देते हैं। यहां तक अपने ही र्कायालय के विभागीय अधिकारियों की फाइलों को भी अटका देते है। बड़े साहब ने दो-दो स्टेनों रखे हुए है लेकिन हर काम ओएस साहब के बिना नहीं होता। हाल ही में एक नेता जी ने बड़े साहब से लेकर छोटे साहब (ओएस) को लेकर खिलाफत भी शुरू कर दी। खिलाफत के बाद ही बडे साहब दूसरे जिले की जुगाड़ में लग गए। लेकिन फाइल भोपाल तक ही सिमट गई। यहां तक कि नेता जी ने ओएस साहब के खिलाफ भी कब से जमे होने और कब-कब पूर्व में निलंबित होने की जानकारी का लेटर जिला पंचायत पहुंचा दिया। तब छोटे साहब भी टेंशन में आ गए और कुर्सी छोडऩे का मन भी बनाने लग गए। इसी का नतीजा यह हुआ इस सप्ताह में बड़े साहब ने कुछ फेरबदल कर दिए। जिसमे ओएस साहब को उनके प्यारे पंचायत प्रकोष्ठ के दायित्व से मुक्त होना पड़ गया। हालांकि अभी जिन्हें पंचायत प्रकोष्ठ का दायित्व दिया गया वह भी कम नहीं है। यह भी चर्चा है कि नाम मात्र के लिए बदलाव किया गया। ताकि नेताजी खुश रहे। बदलाव का कारण यह भी हैग्राम पंचायतों में नेताजी अपने चहेते पर हो रही र्कारवाई से नाराज थे। यहां तक उनकी भी नहीं सुनी जा रही थी। इसकी चर्चा भी विभागीय अधिकारियों व कर्मचारियों में है। जिला पंचायत में आने वाली शिकायतों के लिए अलग से विभाग है। लेकिन शिकायते संबंधित के पास ना पहुंच कर सीधे बड़े व छोटे साहब के पास पहुंच जाती है।
गुम हो गया गुलाब चक्कर
बडी मैडम जी के पहले जो बडे साहब थे,उन्होने शहर की प्राचीन धरोहर गुलाब चक्कर को सजाने संवारने के नाम पर गुलाब चक्कर के गोल रास्ते को बन्द कर दिया था। वे गुलाब चक्कर में खुला मंच बनाने के इच्छुक थे। उनके रहते यहां मंच भी बना एक दो कार्यक्रम भी हुए । लेकिन बाद में सबको ध्यान में आया कि गुलाब चक्कर के पेडों पर हजारों परिन्दों का बसेरा है। खुले आकाश और गुलाब चक्कर के बीच में परिन्दों का बसेरा होने से गुलाब चक्कर के मंच पर होने वाले किसी भी प्रोग्राम के दौरान दर्शकों के सिरों पर परिन्दों की बीट बरसात की तरह टपकती थी। नतीजा यह हुआ कि खुले मंच का आइडिया धरा का धरा रह गया । कुछ दिनों बाद कलेक्टोरेट की भी नई ईमारत बन गई। अब वहां ना तो सरकारी दफ्तर बचे है और ना ही मंच। लेकिन गुलाब चक्कर का गोल रास्ता अब भी बन्द पडा है। वहां से गुजरने वालों को बेवजह लम्बा रास्ता पार करना पडता है। गुलाब चक्कर में खुला मंच बनाने के चक्कर में वास्तविक गुलाब चक्कर कहीं गुम हो गया है। अब यहां ना तो गुलाब बचे है और ना कोई मंच। गुम होते जा रहे गुलाब चक्कर को बचाने के लिए जरुरी है कि बन्द रास्ते को खोला जाए और इसे पुराने स्वरुप में लाने की कोशिश की जाए। सरकारी अफसरोंको तो एक दिन तबादला होने पर किसी और शहर में चले जाना है,लेकिन जनप्रतिनिधियों को तो पूरी जिन्दगी यहीं गुजारनी है। इसके बावजूद अब तक किसी जनप्रतिनिधि ने इसके लिए आवाज नहीं उठाई है। उम्मीद की जाए कि शहर में कोई नेता तो ऐसा होगा,जो इस मुद्दे को उठाएगा और हर दिन परेशानी झेलते हजारों लोगों को लम्बा चक्कर लगाने से मुक्ति मिलेगी।