राग रतलामी-कुछ महीनों का इंतजार,फिर मिलेगी नई नगर सरकार,सपने संजो रहे हैं दावेदार
-तुषार कोठारी
रतलाम। मैडम जी वाली नगर सरकार अब बिदाई की वेला में है। साल के आखिर तक नगर को नई नगर सरकार मिल सकती है। हांलाकि पंजा पार्टी में वक्त है बदलाव का,वाली तर्ज पर इस बार व्यवस्था बदलने की चर्चाएं भी जोरों पर है,लेकिन अब तक कुछ साफ नहीं हो सका है। इतना जरुर तय हो गया है कि नए वार्ड फिलहाल नहीं बन रहे हैं। यानी कि वही 49 मोहल्ला नेताओं को नगर का मालिक बनने का मौका मिलने वाला है इससे ज्यादा को नहीं। इंतजार फिलहाल इस बात का किया जा रहा है कि प्रथम नागरिक को पहले की तरह शहर के लोग चुनेगें या फिर प्रथम नागरिक का चुनाव 49 मोहल्ला नेताओं में से किया जाएगा?
बहरहाल,जो भी हो प्रथम नागरिक बनने के दावेदारों के मन में अभी से लड्डू फूटने लगे है। दोनो ही पार्टियों के दर्जनों नेता बरसों से आस लगाए बैठे है कि उन्हे कभी ना कभी तो मौका मिल ही जाएगा। पंजा पार्टी सूबे की सरकार पर काबिज है इसलिए पंजा पार्टी वाले ज्यादा उत्साहित है। उन्हे जीत आसान लग रही है। फूल छाप वालों के सामने मैडम जी की नाकामियों का खतरा है। लेकिन फिर भी देश में चल रही लहर के भरोसे उन्हे भी जीत की उम्मीद तो है।
वैसे इस वक्त तो नगर सरकार फूल छाप वालों के कब्जे में है,इसलिए फूलछाप में दावेदार ज्यादा है। मामला रिजर्वेशन पर टिका है। उम्मीद ये लगाई जा रही है कि प्रथम नागरिक का पद पिछडे पुरुष के खाते में जाएगा,इसलिए इस श्रेणी के जितने नेता है,सब के सब ख्वाब सजाने में लग गए है। सबसे ज्यादा ख्वाब तो उन्होने सजाए हैं,जो पांच साल तक निगम के नेता की हैसियत से सम्मेलन करवाते रहे है। जब वो चुनकर आए थे,जब युवा नेता के दर्जे में थे,लेकिन पांच सालों की जिममेदारियों ने दुश्मनी बालों से निकाली और अब वे वरिष्ठ दिखाई देने लगे है। उन्हे अपने इन्दौरी आका और दूसरे नेताओं पर बडा भरोसा है कि लाटरी उन्ही की लगेगी।
हांलाकि नगर सरकार का इतिहास इससे बिलकुल अलग रहा है। पिछली पांच बार से जो भी उस पद पर रहा,पद से हटने के बाद राजनीति से उसका पत्ता ही साफ हो गया। पहली परिषद के वकील साहब से लगाकर इससे पहले वाली परिषद के युवा नेता तक। सब की राजनीति इस पद के बाद समापन की ओर चली गई। इनका क्या होगा…? भगवान जाने।
खैर आने वाले दिनों की सारी उठापटक अब नगर सरकार के नाम पर ही होना है। हर नेता अपने लिए इलाकों की तलाश में जुटा है,ताकि प्रथम नागरिक बनने का मौका ना भी मिले तो कम से कम ४९ मोहल्ला नेताओं में से एक तो बन जाए। कुल मिलाकर आने वाले दिन सियासत की निगाह से बडे मजेदार रहेंगे और हर दिन नई खबरें भी मिला करेगी।
रेलवे के साहब को भारी पडी सुनाने की आदत…
रेलवे के बडे साहब इन दिनों परेशान है। उनके एक अदने से मातहत ने उन्हे जोर का झटका दे दिया। बडे साहब सुनकर कुछ करने की बजाय मातहतों को सुनाने के लिए ज्यादा जाने जाते थे। उनका हर मातहत,फिर चाहे छोटा हो,या बडा,उनकी सुनाने की आदत से परेशान था। बडे साहब सुनाते वक्त ये भी नहीं देखते थे,कि किसको, किसके सामने और कहां सुना रहे है। मातहत बताते है कि बडे साहब सुनाते वक्त अससंदीय शब्दों का भी खुलकर प्रयोग करते थे और मातहतों की मजबूरी थी कि उन्हे सुनना पडता था। बडे साहब की सुनाने की आदत सिर्फ मातहतों के लिए थी,बाकी दूसरे लोगों के सामने वे बदल ही जाते थे। नेता हो या खबरची,उनके सामने साहब का तौर तरीका बिलकुल बदला हुआ होता था।
लेकिन मातहतों को सुनाने वाली आदत ने ही उन्हे जोर का झटका दे दिया। बडे साहब स्टेशन पंहुचे,तो सबकुछ ठीकठाक होते हुए भी उन्होने अपने एक मातहत को जमकर सुनाने की कोशिश की। लेकिन ये वाला मातहत जरा अलग किस्म का निकला। उसने तुरंत बडे साहब को रोका और कहा कि लोगों के सामने मत सुनाईए। ये झटका बडे साहब के लिए बडे जोर का झटका था। बडे साहब सन्न रह गए। समझ नहीं पाए कि क्या करें क्या ना करे? दो तीन दिन तो वे इसी झटके से नहीं उबर पाए। उन्हे उम्मीद थी कि शायद मातहत माफी की मनुहार के साथ मान जाएगा,लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। तीसरे दिन आखिरकार बडे साहब ने मातहत का तबादला कर दिया। मातहत भी कहां मानने वाला था,उसने मानहानि का नोटिस टिका दिया। अब यह देखना मजेदार होगा कि मातहत का मानहानि मामला कैसे आगे बढता है और सुनाने वाले बडे साहब इस पर क्या कदम उठाते है? रेलवे के इतिहास में इससे पहले इस तरह का मामला पहले कभी नहीं हुआ होगा।
नहीं बन पाया रिंगरोड
रिंग रोड किसी भी शहर के लिए बेहद जरुरी होती है,क्योंकि इस के होने से शहर बाहरी शहरों के हैवी ट्रैफिक से बचा रहता है। यही सोच कर भैया जी ने भिड भिडाकर पूरी योजना बनवाई और उस समय सरकार भी उन्ही की थी,इसलिए उसे जल्दी ही मंजूरी भी दिलवा दी। 43 करोड का बडा प्रोजेक्ट बना और फटाफट टेंडर भी हो गए। लेकिन इसी बीच चुनाव आ गए और आचार संहिता का डंडा चल पडा,तो मामला अटक गया। चुनाव के बाद सरकार बदल गई,तो अफसर भी लापरवाह हो गए। ठेकेदार काम करने को राजी है,लेकिन प्रशासन वाले जमीन ही दिलवाने को राजी नहीं हो रहे। दस महीनों से भूअर्जन का मामला इधर से उधर टल्ले खा रहा है। कहने सुनने वाला कोई नहीं। अब तो भैया जी को ही कुछ करना पडेगा,वरना रिंगरोड की कहानी कागजों में ही रह जाएगी।