चुनावी चख-चख – 5
धीमी शुरुआत ने उतारा कलर
पांचवा दिन -15 नवंबर
चुनावी जंग का आज पांचवा दिन है,लेकिन बात शुरु होती है,चौथे दिन से। गुरुवार की रात पंजा छाप पार्टी के नाम हो गई। पंजा छाप वाली बहन जी के बारे में वोटर जानना चाहते थे कि वे कैसे बोलेगी,क्या बोलेगी और लफ्फाजी में डाक्टरेट हासिल कर चुके झुमरु दादा के सामने कहां तक टिकेगी? लेकिन पंजा छाप बहन जी ने इन सवालों को दर किनार कर दिया। पंजा छाप बहन जी शुरु तो धीरे से हुई थी,लेकिन बढते बढते उन्होने बिना पार्टी के झुमरु दादा और फूल छाप वाले भैयाजी दोनो का कलर उतार दिया।
माहौल में बदलाव शुरु
शहर के वोटर कई दिनों से इसी उत्सुकता में थे कि अलग अलग पार्टियों वाले और बिना पार्टी वाले नेता इस बार कौन कौन सी नौटंकी दिखाएंगे और इसका कितना असर पडेगा। इसकी शुरुआत तो झुमरु दादा ने की थी। चुनाव के मंच पर नाच गाना और जोकरों को खडा कर दादा ने वैसे ही बता दिया था कि वे श्रोताओं के मानसिक स्तर को क्या समझते है? फिर भी कुछ वोटरों को लगा कि इतनी सफाई से झूठ बोलकर झुमरु दादा फिर से कोई जादू दिखा देंगे। लेकिन माहौल का बदलाव पंजा छाप वाली बहन जी के जवाब से हुआ। चुनाव को मजा लेने का मौका मानने वाले झुमरु दादा को पंजा छाप बहन जी ने बडी शालीनता से जवाब दिए और आखिरकार यह भी जता दिया कि चुनाव मस्ती मजाक का विषय न होकर गंभीरता का विषय है। झुमरु दादा ने तो पंजा छाप का नाम तक नहीं लिया था। वे यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि मैदान में सिर्फ दो योध्दा है। लेकिन अब लोग कह रहे है कि मैदान में तीन बडे खिलाडी है। पंजा छाप पार्टी को अब कम से कम इतनी प्रतिष्ठा तो मिल गई है कि उसे भी मैदान में मौजूद माना जा रहा है।
अब नजरें फूल छाप पर
इस शहर के वोटरों को कोई कुछ भी समझे,सच्चाई यह है कि वोटर काफी सयाने है। इसीलिए वे चुनावी जंग में मौजूद तमाम खिलाडियों को परखना चाहते है। दो प्रमुख दावेदार तो अपना जौहर दिखा चुके है,लेकिन फूल छाप की ओर से अब तक इन दोनों के द्वारा उछाले गए सवालों के जवाब सामने नहीं आए है। फूल छाप वाले भैयाजी का ज्यादा समय तो वोटरों से मिलने और अपने कार्यकर्ताओं को साधने में खर्च हो रहा है। मैदान के दोनो दावेदार उन्हे धर कुबेर और पंूजीपति बताने में कोई संकोच नहीं कर रहे है। वोटरों की नजरें अब उन पर लगी है कि वे कब अपने आपको वोटरों के सामने पेश करेंगे?
दम चाहिए सवालों में
बासठ हजारी आन्धी पर चढकर भोपाल पंहुचे झुमरु दादा की मुसीबतें अब शुरु होने को है। वे लोगों को नाच गाने दिखा रहे है,लेकिन चौराहों,गली,मोहल्लो और बाजारों में मौजूद वोटर मुद्दों पर बात कर रहे है। वोटर नेताओं की लफ्पाजियों को तौल रहे है। पांच साल पहले जिसे खलनायक घोषित किया गया,उसे आज जननायक का दर्ज दे रहे झुमरु दादा के बोल वचन वोटरों के गले नहीं उतर रहे थे। अब सवाल पंजा छाप वाली बहन जी ने उठाए है। झुमरु दादा की दिक्कत ये है कि वे बहन जी को किन सवालों में लपेटेंगे? बडी हस्तियों पर सवाल खडे करना आसान होता है,लेकिन सामान्य लोगों पर सवाल खडे करना कठिन है। अगर सवालों में दम नहीं हुआ तो दादा को लेने के देने भी पड सकते है।
स्टेट नहीं लोकल चुनाव
वैसे तो ये इलेक्शन असेम्बली के है,लेकिन नेताओं के तौर तरीकों से लग रहा है जैसे लोकल चुनाव हो रहे हो। इसकी वजह है झुमरु दादा की मौजूदगी। स्टेट की पार्टियां आमने सामने होती है तो मुद्दे भी सूबे के होते है। लेकिन बिना पार्टी का आदमी सूबे के मुद्दों पर बात करें तो लोग हंसते है। इसलिए बिना पार्टी वालों को अपना फोकस लोकल मुद्दों पर ही रखना होता है। राजनीति के खेल की एक मजबूरी यह भी है कि सामने वाले ने जो सवाल खडे किए हो उनका जवाब दिया जाए। अब चूंकि लोकल मुद्दों के सवाल है तो जवाब देने वाले भी उन्ही मुद्दों पर देंगे। नतीजा सामने है,सूबे के विकास का मुद्दा कहीं पिछड गया है। सारी उठापटक सिर्फ और सिर्फ लोकल मुद्दों पर आकर सिमट गई है।