आज बहादुर शाह जफर की मजार पर जाएंगे मोदी
नई दिल्ली,07सितम्बर(इ खबर टुडे)।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने म्यांमार दौरे के आखिरी दिन गुरुवार को बागान और यांगून जाएंगे. यांगून की यात्रा के दौरान वह भारत के आखिरी मुगल बादशाह मिर्जा अबू जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह जफर यानी बहादुर शाह जफर की दरगाह भी जाएंगे.
बता दें कि म्यांमार की यात्रा करने वाले ज्यादातर लोग, खासतौर पर भारतीय, मुस्लिम और राजघरानों में रुचि रखने वाले लोग बहादुर शाह जफर की दरगाह जरूर जाते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी 2012 में बहादुर शाह जफर की दरगाह पर गए थे.
क्यों खास है जफर की दरगाह?
आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की मौत 1862 में बर्मा (अब म्यांमार) की तत्कालीन राजधानी रंगून (अब यांगून) की एक जेल में हुई थी, लेकिन उनकी दरगाह 132 साल बाद 1994 में बनी. इस दरगाह की एक-एक ईंट में आखिरी बादशाह की जिंदगी के इतिहास की महक आती है.
इस दरगाह में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह बनी है. ब्रिटिश शासन में दिल्ली की गद्दी पर बैठे बहादुर शाह जफर नाममात्र के बादशाह थे. बहादुर शाह जफर को हालांकि एक बादशाह के तौर पर कम और कवि एवं गजल लेखक के तौर पर ज्यादा जाना जाता है. उनकी कितनी ही नज्मों पर बाद में फिल्मी गाने बने. उनकी दरगाह दुनिया की मशहूर और एतिहासिक दरगाहों में गिनी जाती है.
क्यों जफर को नाममात्र बादशाह की उपाधि दी गई?
1837 के सितंबर में पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद वह गद्दीनशीं हुए. अकबर शाह द्वितीय कवि हृदय जफर को सदियों से चला आ रहा मुगलों का शासन नहीं सौंपना चाहते थे. सौंदर्यानुरागी बहादुर शाह जफर का शासनकाल आते-आते वैसे भी दिल्ली सल्तनत के पास राज करने के लिए सिर्फ दिल्ली यानी शाहजहांबाद ही बचा रह गया था.
1857 के विद्रोह ने जफर को बनाया आजादी की सिपाही
1857 में ब्रिटिशों ने तकरीबन पूरे भारत पर कब्जा जमा लिया था. ब्रिटिशों के आक्रमण से तिलमिलाए विद्रोही सैनिक और राजा-महाराजाओं को एक केंद्रीय नेतृत्व की जरूरत थी, जो उन्हें बहादुर शाह जफर में दिखा. बहादुर शाह जफर ने भी ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ाई में नेतृत्व स्वीकार कर लिया. लेकिन 82 वर्ष के बूढ़े शाह जफर अंततः जंग हार गए और अपने जीवन के आखिरी वर्ष उन्हें अंग्रेजों की कैद में गुजारने पड़े.
बहादुर शाह जफर की गिरफ्तारी मुगल साम्राज्य के अंत के रूप में सामने आई. 400 साल से भी ज्यादा का चला मुगल साम्राज्य अब खत्म हो चुका था.
आला दर्जे के शायर थे बहादुर शाह जफर
तबीयत से कवि हृदय बहादुर शाह जफर शेरो-शायरी के मुरीद थे और उनके दरबार के दो शीर्ष शायर मोहम्मद गालिब और जौक आज भी शायरों के लिए आदर्श हैं. जफर खुद बेहतरीन शायर थे. दर्द में डूबे उनके शेरों में मानव जीवन की गहरी सच्चाइयां और भावनाओं की दुनिया बसती थी. रंगून में अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी उन्होंने ढेरों गजलें लिखीं. बतौर कैदी उन्हें कलम तक नहीं दी गई थी, लेकिन सूफी संत की उपाधि वाले बादशाह जफर ने जली हुई तीलियों से दीवार पर गजलें लिखीं.
ऐसा कहा जाता है कि बहादुरशाह जफर मृत्यु के बाद दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफ्न होना चाहते थे. उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी.
ब्रिटिशों ने बिना ताम-झाम के चुपचाप जफर को दफ्न किया
बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही 7 नवंबर, 1862 को सुबह बहादुर शाह जफर की मौत हो गई. उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया. इतना ही नहीं उनकी कब्र के चारों ओर बांस की बाड़ लगा दी गई और कब्र को पत्तों से ढंक दिया गया.
ब्रिटिश चार दशक से हिंदुस्तान पर राज करने वाले मुगलों के आखिरी बादशाह के अंतिम संस्कार को ज्यादा ताम-झाम नहीं देना चाहते थे. वैसे भी बर्मा के मुस्लिमों के लिए यह किसी बादशाह की मौत नहीं बल्कि एक आम मौत भर थी. उस समय जफर के अंतिम संस्कार की देखरेख कर रहे ब्रिटिश अधिकारी डेविस ने भी लिखा है कि जफर को दफनाते वक्त कोई 100 लोग वहां मौजूद थे और यह वैसी ही भीड़ थी, जैसे घुड़दौड़ देखने वाली या सदर बाजार घूमने वाली.
जफर की मौत के 132 साल बाद साल 1991 में एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए की गई खुदाई के दौरान एक भूमिगत कब्र का पता चला. 3.5 फुट की गहराई में बादशाह जफर की निशानी और अवशेष मिले, जिसकी जांच के बाद यह पुष्टि हुई की वह जफर की ही हैं.