December 26, 2024

संतो की साधना में बाधक बन रही है नर्मदा संरक्षण की वर्तमान व्यवस्था,बदलाव आवश्यक

narmda

-प्रभाकर केलकर

यह सर्वविदित है कि मां नर्मदा भारत की प्राचीन और पवित्र नदी है,जिसे रेवा माई के नाम से भी जाना जाता है। नर्मदा जी भारत वर्ष की गोदावरी और कृष्णा नदी के बाद तीसरी सबसे लम्बी नदी है। मां नर्मदा को मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी अर्थात जीवनरेखा भी कहा जाता है। मैंकल(विन्ध्य) पर्वत अमरकंटक के शिखर से उदगमित होकर पश्चिम की दिशा में बहने वाली एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। 1310 कि.मी. लंबी नर्मदा नदी मध्यप्रदेश और गुजरात राज्य की प्रमुख नदी है और उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। नर्मदा जी के दोनो ओर के तटों पर अमरकंटक सहित नेमावर,औंकारेश्वर,गुरुकृपा आश्रम झीकोली,शुक्ल तीर्थ आदि कई प्रसिध्द तीर्थस्थल है।
हजारों वर्षों से मां नर्मदा नदी के उत्तर-दक्षिण दोनों तटों पर हजारों लाखों ऋ षि मुनियों ने तपस्या और साधना की है,जिसके कारण आध्यात्मिक धार्मिक व सांस्कृतिक रुप से भारत पुष्ट होता आया है। ऐसे तपस्वियों में महर्षि पतंजलि के शिष्य गोविन्द पाद जिन्होने लगभग हजार वर्ष समाधि अवस्था में मां नर्मदा के तट पर तप किया था,उन्होने आदि शंकराचार्य को ब्रह्मसूत्र का ज्ञान देते हुए मां नर्मदा के किनारे तपस्या करने का उपदेश दिया था। औंकारेश्वर में आदि शंकराचार्य की गुफा इसका प्रमाण है। यह सबको मालूम है कि दक्षिण से शंकराचार्य जी औंकारेश्वर में नर्मदा के तट पर तपस्या करने आए थे। यह हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और हजारों वर्षों से नर्मदा जी के किनारे ऋषि मुनि तपस्या करते रहे है। अधिक जानकारी के लिए मार्कण्डेय पुराण और अर्वाचीन समय के श्री शैलेन्द्र नारायण घोषाल की तपोभूमि नर्मदा पुस्तकों में इसके प्रमाण मिलते है।
आज भी हजारों हजार ऋषि मुनि नर्मदा तटों पर बैठकर तपस्या करते  है। जिनके तप और बल से नर्मदा के तट व क्षेत्र सिध्द स्थल व तपोभूमि बने हुए हैं। नर्मदा जी के किनारे परिक्रमा करने वालों को इसके प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते है। समय की आवश्यकता अनुसार नर्मदा जी पर बडे बडे बांध बनाए गए ,जिसके कारण नर्मदा जी के दोनों तटों के अनेक तीर्थ व घाट डूब में आ गए। उदाहरण के लिए निसरपुर का कोटेश्वर घाट,शूल पाणेश्वर,आदि हमारे सामने है। एकांत स्थानों की कमी से संतों की तपस्या में विघ्र व बाधाएं आ रही है। धारा जी घाट जहां पर शिवलिंग स्वत: निर्मित होते थे और धाराजी के दोनों तटों पर अनेक गुफाएं थी,जहां अनेक  ऋ षि-मुनि तपस्या करने आते थे,ये सभी स्थान धीरे धीरे विलुप्त हो गए। आधुनिक प्रगति के नाम पर हो रहे बदलाव से भारतीय संत परंपरा की साधना व तपस्या भी खिन्न होती जा रही है। आज की वर्तमान व्यवस्था में नर्मदा जी के दोनों तटों पर क्या परिस्थिति है..? इस परिदृश्य का आकलन करना समीचीन होगा।
समय की मांग के अनुसार नर्मदा मैया की पवित्रता,अविरल प्रवाह आदि को बनाए रखने के लिए नर्मदा जी के दोनो किनारों पर बने मठ मन्दिर सफाई हेतु हटाए जा रहे है। लेकिन इस अभिटान के कारण एकांत में साधना करने बैठे अनेक फक्कड अकिंचन साधकों को भी स्थान छोडने के लिए विवश किया जा रहा है। ये गंभीर और चिंताजनक विषय बन गया है। ऐसे दृश्यों का क्या उपमा दी जाए? पाठक  स्वयं निर्णय करे। उदाहरण के लिए देवास जिले में धारडी अथवा धारेश्वर का एक किनारा उत्तर में देवास जिले में है तो दूसरा दक्षिण किनारा खरगोन जिले के घनघोर जंगल में आता है। इस तट या किनारे पर एक संत अनेक वर्षों से घास फूस की कुटिया बनाकर तपस्यारत है। उनकी कुटिया नर्मदा तट से सौ मीटर की दूरी में आती है,जो उंचाई  पर भी है। वर्तमान में वह संत चातुर्मास में चार माह की मौन साधना में रत है। वन विभाग के कर्मचारी आए दिन उन्हे परेशान कर उन की साधना में विघ्र डालने आते है। जो इसी साधना समय में उन्हे अपना स्थान छोडने पर विवश कर रहे है। ये उदाहरण बताता है कि तपोभूमि मां नर्मदा जी को किस दिशा में ले जाया जा रहा है। इन परिस्थितियों से खिन्न होकर न साधु संत तपस्या करेंगे,न संस्कृति का संवर्धन होगा और  नही नर्मदा के किनारे हिन्दू धर्म व संतों के श्रध्दा के स्थान रहेंगे,न संतों का समागम होगा। इन परिस्थितियों से भारत की संत परंपरा को भी नुकसान हो रहा है।

यह गंभीर चिंता का विषय है कि आखिर इस तरह की विकट परिस्थिति से कैसे निपटा जाए। इस गंभीर विषय में मेरे कुछ सुझाव है जिनपर अमल कर परिस्थिति को ठीक किया जा सकता है।

1.  मां नर्मदा जी के दोनों तटों की पांच सौ मीटर भूमि को तपोभूमि घोषित किया जाए।

2. इस तपोभूमि क्षेत्र में अकिंचन भाव से (बिना पक्का निर्माण किए) कुटिया बनाकर तपस्या या साधना करने की संतों को अनुमति दी जाना चाहिए।

3. शासन चाहे तो एसे संतों से कोई अनुबंध भी कर सकती है जिसमें जीव जंतुओं से बचने के लिए सिर्फ सीमेंन्ट का चबुतरा बनाने की अनुमति होगी,लेकिन अन्य किसी प्रकार का पक्का निर्माण नहीं कर सकेंगे,किसी प्रकार का मालिकाना हक नहीं होगा।

4. किसी की समाधि नहीं बनेगी। अन्य किन्ही मेलों का आयोजन न हो,जिससे किसी भी प्रकार से नर्मदा जी प्रदूषित हो या अन्य कोई हानि हो। केवल साधु संतों के समागम की अनुमति होना चाहिए।

5. किस अखाडे व परंपरा से साधु का संबन्ध है ये भी पता किया जा सकता है।

6. सामान्य सुविधाएं सरकार उपलब्ध कराए।

इन सुझावों पर यदि अमल किया जाता है,तो इस प्रकार से साधु संत भी शांति से तपस्या कर सकेंगे और प्रशासन व सरकार को भी इनसे सम्बन्धित पूर्ण जानकारी होगी। धर्म संस्कृति के प्रति संवेदनशील सरकार से विनम्र अनुरोध और अपेक्षा है कि भारतीय संस्कृति और संतों की तपस्या और साधना से भारत राष्ट्र सबल होता आया है। इस मामले को गंभीरता से लेकर यथाशीघ्र दिशा निर्देश जारी करें। अन्यथा साधु संतों की रक्षा करने में समाज स्वयं सक्षम है।
(लेखक भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है और स्वयं नर्मदा परिक्रमा कर चुके है। वे दिल्ली में रहते है।)

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