सक्रियता भी स्वीकार्यता भी
प्रकाश भटनागर
प्रदेश के बीते विधानसभा चुनाव की बात है। नरेंद्र सिंह तोमर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष थे। एक-एक टिकट के लिए घमासान जोरों पर था। प्रत्याशी चयन के लिए हुई बैठक हेतु तोमर अन्य नेताओं के साथ प्रदेश भाजपा मुख्यालय के कक्ष में जा रहे थे। उसी समय अलग-अलग समूहों ने अपने-अपने नेता के पक्ष में नारेबाजी शुरू कर दी। उनके तेवर काफी तीखे थे। बाकी नेता कुछ क्रोधित मुद्रा में दिखे। तोमर रुके। पूरे संयम से कहा, ‘आप कहते रहिए, मैं सुनता रहूंगा। जब तक बोेलेंगे, तब तक यहीं खड़ा हूं। लेकिन इससे क्या होगा? ऐसे तो प्रत्याशी कभी भी तय नहीं हो पाएंगे। प्रक्रिया होने दीजिए। अब मेरा-तेरा छोड़कर पार्टी को जिताने की बात करिए।’ पता नहीं क्या था कि सारा शोरगुल थम गया। तोमर भीतर गए और प्रत्याशी चयन की अंतिम प्रक्रिया के साथ ही राज्य में एक बार फिर भाजपा की सरकार बनने की इबारत लिख दी गई।
तोमर अब केंद्रीय मंत्री हैं। लेकिन उनके हालिया मध्यप्रदेश प्रवास के दौरान दो बातें गौर करने लायक रहीं। उनकी सक्रियता और स्वीकार्यता। वह राजधानी में पार्टी के दिग्गजों से मिले। साथ ही आम कार्यकर्ता से भी संवाद किया। साफ है कि इस नेता की प्रदेश भाजपा में एक बार फिर शिद्दत से कमी महसूस की जाने लगी है। यह तोमर की खासियत है कि उन्होंने खुद को उस नशे से दूर रखा है, जो प्रदेश में सरकार तथा भाजपा संगठन के शीर्ष दिलो-दिमाग पर पूरी तरह हावी हो चुका है।
सत्ता का नशा, ताकत का नशा। इसका असर यह कि आम कार्यकर्ता की बात सुनने वाला नेता ही नहीं दिख रहा है। तोमर में अब भी धैर्य के साथ हर किसी की बात सुनने की काबिलियत तथा सज्जनता मौजूद है। ऐसे में यदि वह एक बार फिर प्रदेश में सक्रिय हो रहे हैं तो कई कारणों से हार की कगार पर नजर आ रही भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम प्रतीत नहीं हो रहा है।
वस्तुत: इस समय प्रदेश सरकार तथा संगठन को तोमर जैसे चेहरे की सख्त दरकार है। याद कीजिए, सन 1993 तथा 1998 के वह संगठन चुनाव, जिनमें इस ‘पार्टी विद डिफरेंस’ के दिग्गज नेताओं के बीच अघोषित जूतमपैजार की नौबत आ गई थी।
तब हर चेहरा खुद को भावी मुख्यमंत्री समझकर आगे बढ़ रहा था। यह वह प्रवृत्ति थी, जिससे प्रदेश कांग्रेस बीते डेढ़ दशक से जूझ रही है। इसी घातक स्थिति ने भाजपा को लगातार दो चुनाव में हार का मुंह दिखाया था। पार्टी ने इससे सबक लिया। फिर सन 2000 के बाद समन्वय की नीति अपनाई गई। नतीजा यह हुआ कि पार्टी की सत्ता में न सिर्फ वापसी हुई, बल्कि उसने जीत की हैट्रिक तक बना ली।
भाजपा में राज्य स्तर पर अब कुशाभाऊ ठाकरे तथा प्यारेलाल खंडेलवाल जैसे नेता नहीं रहे। वह सबकी सुनते थे। अब नेता केवल अपनी या ‘अपनों की’ ही सुनते हैं। इसका नतीजा यह कि आम कार्यकर्ता कुंठित हो चला है। बीते पंद्रह साल में उसकी पूछ-परख की प्रक्रिया को विराम लग गया है। जिसका भाजपा को आगामी चुनाव में गंभीर नतीजा भुगतना पड़ सकता है।
शिवराज सिंह चौहान और नंदकुमार सिंह चौहान तो आशाओं के घोड़े पर ऐसे सवार हैं कि उन्हें आम कार्यकर्ता नजर ही नहीं आ रहा। ऐसे में तोमर के रूप में दिख रही सक्रियता से भाजपा को होने वाले नुकसान की समय से पहले ही भरपाई हो सकती है, यह सोचना अति-आशावाद नहीं कहा जा सकता।