वोटों की खातिर सच से मुंह मोडता देश
तुषार कोठारी
पूरे दिन हिंसा के तांडव होते रहे। केन्द्र और राज्य सरकारें मूक दर्शक बनकर तमाशा देखती रही। एससी एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ तथाकथित आम्बेडकर वादी लोग सडक़ों पर हिंसा का नंगा नाच नाचते रहे,लेकिन सरकारें मूकदर्शक बनी रही। देश के किसी भी राजनीतिक दल को अब सर्वोच्च न्यायालय के सम्मान की चिंता ने नहीं सताया। किसी ने यह तक नहीं कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान जरुरी है। राजनीतिक दल तो छोडिए,देश के तमाम बडे बुध्दिजीवी और यहां तक कि मीडीया भी,हर कोई चुप्पी साधे बैठा रहा। कहीं से एक आवाज नहीं आई कि फैसला उच्चतम न्यायालय का है,इसका सम्मान किया जाना चाहिए।
अगर मामला अयोध्या की राम जन्मभूमि मन्दिर के न्यायालयीन प्रकरण का होता,तो पूरे देश में न्यायालय के सम्मान की दुहाई दी जाती। प्रत्येक राजनीतिक दल,मीडीया और बुध्दिजीवी लोग,उन लोगों को आडे हाथों ले रहे होते,जो राम जन्मभूमि स्थल पर मन्दिर निर्माण के पक्ष में बोल रहे होते। तमाम नसीहतें दी जाती कि देश में कोई भी व्यक्ति न्यायालय से उपर नहीं है। हर किसी को न्यायालय के फैसले का सम्मान करना चाहिए। लेकिन जब फैसला एससी एसटी से जुडा हुआ है,तो अब किसी को भी न्यायालय के सम्मान की चिंता नहीं सता रही है।
इधर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया और उधर सारे के सारे लोग इस फैसले का विरोध करने में जुट गए। केन्द्र सरकार ने तुरन्त इस पर पुनर्विचार याचिका दायर करने की घोषणा भी कर डाली और यह याचिका दायर भी कर दी गई। देश में यह दोहरा रवैया क्यो है? जब समग्र हिन्दू समाज के सम्मान से जुडे राम जन्मभूमि मन्दिर की बात आती है,तो क्या सरकार और क्या मीडीया,हर कोई हिन्दुओं को न्यायपालिका के सम्मान की नसीहत देता है। लेकिन जब मामला इसी हिन्दू समाज के भीतर के एक वर्ग यानी दलित समुदाय से जुडा होता है,तो किसी को भी न्यायालय के सम्मान की याद नहीं आती।
इस दोहरी मानसिकता के पीछे आखिर रहस्य क्या है? इसे समझने के लिए ज्यादा दिमाग खपाने की जरुरत नहीं है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता वोटों से हासिल होती है। दलित समुदाय अब तक वोट बैंक समझा जाता है और तमाम राजनीतिक दल जानते है कि अगर यह वोट बैंक बिगड गया,तो सत्ता हासिल नहीं हो सकती। दलित समुदाय की नाराजगी को कोई मोल नहीं लेना चाहता। फिर चाहे सच्चाई कुछ भी हो। हर कोई सच्चाई से मुंह मोड लेने को तैयार है।
लेकिन आखिरकार सच्चाई को तो समझना होगा। देश की स्वतंत्रता के समय से अनुसूचित जाति व जनजाति के व्यक्तियों को आरक्षण दिया गया है। देश की आजादी के समय से आरक्षण की व्यवस्था तो थी,लेकिन एससीएसटी एक्ट आजादी के बत्तीस सालों के बाद अर्थात १९८९ में बनाया गया। देश की आजादी के बत्तीस सालों के बाद यह महसूस किया गया कि अजाजजा वर्ग के लोगों के संरक्षण के लिए पृथक कानून की जरुरत है। कानून बना और लागू हो गया। कानून लागू होने के ३९ सालों के बाद एक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने यह पाया कि इस कानून का जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है,इसलिए इस कानून में कुछ संशोधनों की आवश्यकता है। बस यही संशोधन करने के आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने दिए।
यहां यह समझने की जरुरत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की व्यवस्था को लेकर कोई निर्देश नहीं दिए थे। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश केवल एससीएसटी एक्ट को लेकर थे। लेकिन देश में बडी तेजी से यह अफवाह फैलाई गई कि यह आदेश आरक्षण समाप्त करने की दिशा में एक कदम है। इसी अफवाह के आधार पर दलितों के नाम पर राजनीति कर रहे लोगों ने दलित वर्ग के लोगों को भडकाया और पूरे देश ने दलित आन्दोलन के नाम पर हुई हिंसा को देखा।
लेकिन बडी सच्चाई इसके भी पीछे छुपी हुई है। जिसे कोई सामने लाने को तैयार नहीं। दलित वर्ग को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के उद्देश्य से देश की आजादी के समय से लागू आरक्षण व्यवस्था की हकीकत कुछ और ही है। इस हकीकत को जब भी कोई सामने लाने की कोशिश करता है,दलित वर्ग की नेतागिरी करने वाला शक्तिशाली वर्ग पूरी ताकत से इसके विरोध में लग जाता है और हकीकत सामने आ ही नहीं पाती।
आरक्षण की वास्तविकता को समझने के लिए इस व्यवस्था को गहराई से समझने की जरुरत है। देश में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के बहुसंख्यक लोग आज भी निम्रकोटि का जीवन यापन करने को मजबूर है। देश के हर शहर,गांव और मोहल्ले की सफाई व्यवस्था आज भी दलित वर्ग के ही लोगों के हाथ में है। देश में ढूंढे से भी ऐसा एक उदाहरण नहीं मिलेगा,जहां कोई उच्च जाति का व्यक्ति सफाई का काम करता हो? जिसका पिता गली में झाडू लगाता था,कुछ वर्षों बाद उसका पुत्र वहां झाडू लगाता हुआ दिखाई देता है। यह क्रम पिछले सात दशकों से लगातार जारी है। दलित वर्ग हो या आदिवासी,सात दशकों के आरक्षण के बावजूद आखिर उनकी स्थिति क्यों नहीं सुधर पा रही है? यही वह रहस्य है,जिसे दलित नेता उजागर नहीं होने देना चाहते। जैसे ही कोई आरक्षण की समीक्षा की बात करता है,वे हंगामा खडा कर देते है।
इसे समझने की जरुरत है। देश की वर्तमान स्थिति को देखिए,तो पता चलेगा कि विधायक,सांसद,मंत्री और यहां तक कि सर्वोच्च पद पर पंहुच जाने के बाद भी दलित को दलित ही कहा जाता है। उसकी सामाजिक स्थिति बदलती ही नहीं। लेकिन क्या यह सच है। देश में आज दलित समुदाय का एक बडा वर्ग ऐसा है जो लगातार आरक्षण का लाभ लेकर बेहद शक्तिशाली हो चुका है। यह वर्ग राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक रुप से बेहद शक्तिशाली है। इस वर्ग में राजनेता,सरकारी अफसर,कर्मचारी आदि शामिल है। देश के प्रत्येक शहर में शक्तिशाली दलितों का एक वर्ग तैयार हो चुका है। आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक रुप से शक्तिशाली हो चुके इस वर्ग के लोग ही वे लोग है,जो दलितों पर होने वाले अत्याचारों या अन्याय की सबसे ज्यादा बातें करते है। जैसे ही कहीं आरक्षण के सम्बन्ध में कोई बात होती है यह वर्ग आक्रामक होकर सामने आ जाता है। यही वर्ग स्वयं को आम्बेडकर वादी बताता है। मजेदार बात यह है कि जब भी सरकारी नौकरियों या शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के अवसर आते है,आरक्षित वर्ग के लिए आरक्षित सभी स्थानों पर इसी शक्तिशाली दलित वर्ग के लोगों का कब्जा हो जाता है। हमारी गलियों में नालियां साफ करने वाले या इसी प्रकार के अन्य कामों में लगे वास्तविक दलित के बच्चों को तो वह लाभ मिल ही नहीं पाता।
इसे यूं भी समझा जा सकता है कि राजनीति में केन्द्रीय मंत्री या मुख्यमंत्री के स्तर तर पंहुच चुके किसी व्यक्ति के बच्चे पहले तो श्रेष्ठतम विद्यालयों में पूरी सुख सुविधा के साथ पढते है। फिर जब प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने की बात आती है,तो इसी तरह के बच्चे आरक्षित सीटों पर कब्जा जमा लेते है। वे बडे अफसर बन जाते है तो उनकी अगली पीढी और भी शक्तिशाली होती है। सारी सुख सुविधाओं के साथ साथ अरक्षण की सुविधा उन्हे उपलब्ध होती ही है। आरक्षित पद पर सामान्य वर्ग के व्यक्ति को तो स्थान दिया ही नहीं जाता। इसका मतलब साफ है कि आरक्षित वर्ग के जरुरतमन्द व्यक्ति का स्थान आरक्षित वर्ग का सक्षम व्यक्ति छीन रहा है।
देश विरोधी शक्तियों का एक बडा षडयंत्र भी इस सारे खेल के पीछे है। तमाम तथाकथित आम्बेडकर वादी न सिर्फ हिन्दुत्व विरोधी है,बल्कि हिन्दू देवी देवताओं को अपमानित करने का कोई मौका वे नहीं छोडते। दलित हितों के नाम पर हिंसक आन्दोलन करना भी उनकी एक रणनीति है। देश के वास्तविक दलित,जिन्हे सामाजिक न्याय की दरकार है,वे भी इनके भ्रम में आ जाते है। वे बेचारे यह समझ ही नहीं पाते,कि उनका हक कोई सवर्ण नहीं बल्कि हर तरह से शक्तिशाली हो चुके दलित ही छीन रहे है।
देश के वास्तविक दलितों को यह सच्चाई समझना होगी,कि यदि एक ही व्यक्ति को बारबार आरक्षण का लाभ मिलता रहा,तो जिसे आरक्षण की सचमुच में आवश्यकता है,उसका तो नम्बर ही नहीं आ पाएगा। देश में सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है। इसी तरह शैक्षणिक संस्थाओं के स्थान भी सीमित है। एक ही व्यक्ति को बारबार आरक्षण का लाभ मिलता रहा,तो इस सीमित पदों पर उन्ही की संताने कब्जा जमाती रहेगी,जो कि आरक्षण का लाभ लेकर शक्तिशाली हो चुके है। वास्तविक दलितों के वे बच्चे,जिनके पास साधन और सुविधाएं नहीं है,वहां तक पंहुच ही नहीं सकते।
देश के वास्तविक दलितों को समझना होगा कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था उनके हित में नहीं है,बल्कि ये उनका हित कर रही है,जो आरक्षण की मदद से शक्तिशाली हो चुके है। वास्तविक दलितों को यह भी समझना होगा,कि ये शक्तिशाली दलित बाबा साहब का नाम लेकर वास्तविक दलितों का हक मार रहे है। शक्तिशाली दलित,हर बार आक्रामक ही इसलिए होते है,ताकि वास्तविक दलित आगे ना आ पाए। इसके बावजूद वे स्वयं को दलितों का हितचिंतक साबित करने में सफल हो जाते है।
यदि देश के प्रत्येक दलित को सामाजिक न्याय दिलवाना है,तो आज के युग में इसकी पहली जिम्मेदारी दलित वर्ग के उन लोगों की है,जो हर तरह से शक्तिशाली हो चुके है। अगर वे सचमुच में दलितों का हित चाहते है,तो उन्हे स्वयं आगे आकर घोषणा करना चाहिए कि वे और उनकी संताने अब आरक्षण का लाभ नहीं लेंगे। यदि इस तरह की कोई शुरुआत होती है,तभी वास्तविक दलितों को उनका हक मिल सकेगा। जिस तरह सक्षम लोगों ने स्वयं आगे आकर घरेलू गैस की सबसिडी छोडने की घोषणाएं की है,उसी तरह आज जरुरत है कि सक्षम दलित आगे आकर आरक्षण का लाभ छोडने की घोषणा करे।