विश्व मूल निवासी दिवस-भारत के जनजाति(आदिवासी) समाज को तोड़ने का वैश्विक षड्यंत्र
-लक्ष्मण राज सिंह मरकाम ‘लक्ष्य‘
“A peal of spring thunder has crushed over the land of India.“
– People’s Daily (China, July 5, 1967 Editorial)
भारत के वन क्षेत्र 21 प्रतिशत भाग का 60 प्रतिशत हिस्सा जनजातीय है | भारत और मुख्य खनिज लगभग 90 प्रतिशत जन जातीय क्षेत्र में है । भारत की जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत हिस्सा जनजाती समाज है | क्या इस जनजाति समाज को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का कोई वैश्विक षड़यंत्र चल रहा है ?
वर्तमान परिस्थिति का ठीक तरह से हम अगर विश्लेषण करेगे तो इस विचार को गंभीरता से सोचने के लिये हमे मजबूर होना पडता है | पिछले कुछ सालों से मनाए जाने वाला 9 अगस्त का विश्व मुल निवासी दिवस कही इस वैश्विक षड्यंत्र का हिस्सा तो नहीं इस बात पर हमे विचार करने की आवश्यकता है |
इससे पहले मूलनिवासी इस संकल्पना के इतिहास के बारे हम कुछ जानकारी समझने की कोशिश करेंगे | विश्व मजदूर संगठन (ILO) यह एक संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित संस्था है | मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करना इस संस्था का प्रमुख हेतु है | इसकी स्थापना 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के विजयी देशों ने की थी | वर्ष 1989 में ILO द्वारा ‘राइट्स ऑफ इंडिजिनस पीपल’ कन्वेन्शन क्रमांक 169 घोषित किया गया, जिसे विश्व के 189 में से केवल 22 देशों ने स्वीकार किया | जिसका मुख्य कारण ‘इंडिजिनस पीपल’शब्द की परिभाषा को स्पष्ट न करना था | इस संधि में हस्ताक्षर करने वाले वे देश मुख्य थे जिनकी आज भी उपनिवेशिक कालोनिया हैं और जहां बड़ी संख्या में वहाँ के मूलनिवासी लोग दूसरे दर्जे की नागरिकता का जीवन जी रहे हैं | भारत ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए| मूलनिवासी इस संकल्पना का संदर्भ भारत से नहीं है और भारत में रहने वाले सभी लोग यहाँ के मूलनिवासी है, यह भूमिका स्पष्ट करते हुये, ILO मुल निवासियों के जिन अधिकारों की बात कर रहा है, उससे कही अधिक अधिकार भारत के संविधान ने यहा रहनेवाले सभी लोगों को प्रदान किए है यह भारत सरकार की भूमिका रही है |
केवल 22 देशो ने इस संधि का स्वीकार करने के कारण इस संधि की विफलता को देखते हुये, ILO को इस विषय पर और अधिक आम राय बनाने का दायित्व सौंपा गया |इस दिशा मे आगे बढ़ते हुए ILO ने एक ‘वर्किंग ग्रुप फॉर इंडिजिनस पीपल’ (Working Group of Indigenous Peoples) का गठन किया | WGIP की पहली बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी इसी लिए 9 अगस्त के दिन ‘विश्व इंडिजिनस पीपल डे’ मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गई | कई देशों में इस दिन अवकाश मनाया जाने लगा। आज भारत में भी इसी 9 अगस्त को ‘विश्व मूल निवासी’ दिवस मनाने की प्रथा प्रारम्भ हुई है | कुछ संगठनो द्वारा 9 अगस्त का दिवस ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है| यूनो द्वारा घोषीत यह विश्व दिवस तो है लेकिन इस दिन का विश्व के ‘इंडिजिनस’ या मूल निवासियों से कोई संबंध नहीं है| इस दिवस का तो एक अलग ही इतिहास है |
9 अगस्त ही क्यों ?
सन 1492 को काफ़ी प्रयासों से, स्पेन और पूर्तगाल के राजाओं के मना करने के बाद भी कैथालिक मिशन द्वारा प्रदान की गयी आर्थिक मदद से भारत के व्यापार मार्ग खोजने के मक़सद से निकला कोलंबस ग़लती से अमेरिका के पूर्वी तट पे जा पहुँचा | उस वक़्त समस्त अमेरिकी महाद्वीप पर मुख्यतः पाँच मूल निवासियों का आधिपत्य था | वे थी चेरोकी (Cherokee), चिकासौ (Chickasaw)
, चोक्ताव (Choctaw), मास्कोगी (Muskogee) और सेमिनोल (Seminole)| किनारे पर उतरने के बाद कोलंबस इसे भारत समझ बैठा और जिन लोगों को उसने देखा उन्हें इंडीयन समझा | वह आक्टोबर के दूसरे सोमवार का दिन था | कुल चार समुद्री यात्रा मे स्पेन, पौर्तुगाल और अंग्रेजो ने अमरीका मे अपनी साम्राज्य बनाने की पूरी रूप रेखा बना ली थी । इतना विशाल देश होने के कारण अग्रेजों को लगभग 1600 ईसवी तक सुदूर इलाक़ों से संघर्ष का सामना करना पड़ा | सबसे पहला दो तरफ़ा युद्ध अंग्रेज़ों को आज के वर्जिन्या प्रांत में पवहाटन आदिवासियों से करना पड़ा | इन तीन युद्ध की शृंखला में पहला युद्ध 9 अगस्त कोहुआ, जिसने पूरे पोवहाटन क़ाबिले के लोग लड़ते हुए मारे गए | इसे भारत के संदर्भ में 1757 के प्लासी के युद्ध से तुलना कर सकते हैं | जिस हार ने अंग्रेज़ों को वहाँ के आदिवासियों को पूरी तरह ख़त्म करने या ग़ुलाम बनाने का रास्ता खोल दिया । फिर भी लगभग 250 वर्षों के नेटिव के साथ युद्ध और नर संहार के बाद अधिक सफलतआ नहीं मिली | तब मिशनरीयो के द्वारा मुफ़्त शिक्षा व इलाज के नाम पर उनसे सह सम्बंध बनाए गए और बड़ीं संख्या में सिविलाईज किया गया | उन्ही को अपनी सेना में भर्ती कर आपस में लड़ाया गया |
तब ब्रिटिश सेना के प्रमुख सर जेफ़्री आमर्स्ट थे | उन्होने विश्व के पहले रासायनिक युद्ध के द्वारा छोटी चेचक, टीबी, कालरा, टाइफ़ॉईड जैसी घातक बीमारियों के जन्तु-किटाणु ओढ़ने के कंबल, रुमाल व कपड़ों में मिलाकर लगभग 80 % लोगों को तड़पा तड़पाकर मार दिया | अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए ब्रिटिश सेना ने अमरीका के मूल निवासियों का किया यह एक भयावह हत्याकांड था |1775 तक अंग्रेजो ने अमरीका की भूमि पर अपना आधिपत्य लगभग स्थापित कर लिया था और उनकी 13 कोलोनियों पर पूरी तरह हुकूमत थी |
कोलंबस के आने के लगभग 250 वर्षों में मूल निवासियों का रक्त पात करके भी वे केवल थोड़े भू भाग पर ही क़ाबिज़ थे | तभी जोर्ज वाशिंग्टन और हेन्री नोक़्स के नेतृत्व में पहला ब्रिटिश अमेरिकी युद्ध शुरु हुआ | सफलता अमेरिका को मिली व पेरिस की संधि के तहत कोलोनी अमेरिका को मिली | मगर और भू-भागो पर क़ब्ज़ा करके उसे आपस में बाँटने की भी संधि हुई | ‘इंडियन रिमुवल ऐक्ट 1830’ के तहत सभी मूल निवासियों को जोर ज़बरदस्ती मिसिसिपी नदी के उस पार धकेला गया | इस संघर्ष मे 30000 लोग रास्ते में ही मर गये | यह घटना ‘The trail of tears’ (आँसुओं की रेखा) कहलाती है | इस दरम्यान इतनी संख्या मे लोग मर गए की केवल 5 प्रतिशत मूलनिवासी ही जिंदा बचे थे ।
12 ऑक्टोबर 1992 को कोलंबस के अमरिका आने के 500 वर्ष पूरे हुए | तब एक बड़ा जश्न मनाने की तयारी चल रही थी | लेकिन इस उत्सवों के विरोध में ‘कोलंबस चले जाव’ नामसे एक अभियान चलाया गया | इस अभियान को शांत करने के लिए अपराध बोधके भाव से इस दिन को अमेरिका का “ Indigenous People day” घोषित किया गया | संयुक्त राष्ट्र को विश्व मूलनिवासी दिवस भी 12 अक्तूबर को ही मनाना था | मगर अमेरिका में विरोध और ब्रिटेन -पोवहाटन युद्ध में ब्रिटेन की सत्ता विर्जीनिया प्रांत में स्थापित होने के कारण वहाँ धर्म प्रचार की शुरुआत करने का मौका प्राप्त हुआ | वह दिन भी 9 अगस्त ही था | इस दिन को यादगार बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में गुप्त षड्यंत्र के तहत 9 अगस्त को विश्व मूल निवासी दिवस मनाने का निर्णय लिया गया |
यह है विश्व मुलानिवासी दिवस का सही इतिहास |
लेकिन 9 अगस्त का इतिहास बताते समय हमे वर्किंग ग्रूप की 1982 की पहली बैठक का हवाला दिया जाता है, जो की झूठ है |
अगर कोलंबस भारत की खोज में अमेरिका के तट पर नहीं पहुँचा होता , और 09 अगस्त 1610 को वहाँ के मूलनिवासी , ब्रिटिश सेना से अपना पहला द्विपक्षीय युद्ध नहीं हारते तो अमेरिका के मूलनिवासी , आज भी एक सभ्यता की तरह ज़िंदा होते , उनके इतिहास की जड़ें हमारे समृद्ध इतिहास से भी कहीं जुड़ी हैं , क्या हमें अंग्रेज़ों द्वारा ख़त्म कर दिए गए , मूलनिवासी इतिहास से कुछ सिखने की आवश्यकता है ?
जिनका इतिहास दूसरे अत्याचारियों द्वारा लिखित होता है , वो अपना भविष्य कभी नहीं बनाते , आज 09 अगस्त के दिन अंग्रेज़ या यूरोपियन रेस द्वारा , भारत के इतिहास में जनजातियों के योगदान को भुला कर , एक नया मन घड़ंत , एतिहासिक दिन हम पर थोप दिया जा रहा है , जिसका हमारे गौरवशाली इतिहास से कोई सरोकार नहीं है ।
आज भारत के जनजातीय एक भेड़ चाल का हिस्सा बनकर 9 अगस्त ‘विश्व मूल निवासी दिवस’ मानते हैं | जबकि अमेरिका मे रहने वाले मूलनिवासी इस दिन को अमेरिकी नरसंहारों का दिन मनाते है । क्या हमें भी यूरोपियन उपनिवेशिक ताकतों द्वारा अपने जनजातीय समुदायों के ऊपर किए गए अत्याचारों भूल जाना चाहिए ? क्या बिरसा मुंडा या किसी और अन्य वीर जनजातीय नायक से संबन्धित दिन उनके बलिदानों को सही श्रद्धांजलि नहीं होगा ? ये प्रश्न हमारी अपने पूर्वजों के प्रति प्रतिबद्धता और सम्मान करने की आस्था का विषय है | परंतु अमेरिकी मूल निवासी समुदाय का निर्णय सीखने योग्य है | जिसमें उन्होने किसी और के द्वारा दिये दिन को अपने पूर्वजों के दिन के रूप में मानने से इंकार कर दिया । हर 9 अगस्त को कई हज़ार लोग संयुक्त राष्ट्र के बाहर इस दिन के विरोध में आंदोलन करते हैं । और इधर हम 9 अगस्त को एक उत्सव के रूप मे मनाने मे मश्गुल है |
‘मूलनिवासी’ संकल्पना वामपंथीयों की देन
“ If there is to be revolution , there must be a revolutionary party”
ये माओ के विचार थे | सम्पूर्ण क्रान्ति यह कम्युनिस्ट विचार धारा का एक प्रमुख लक्ष्य है| अगर क्रान्ति का लक्ष्य प्राप्त करना है तो उनके लिए समस्या होना जरूरी है| समस्या उपलब्ध है तो अच्छाही है नहीं तो समस्या निर्माण करो यह वामपंथियों की कार्य पद्धति रही है| उनके सद्भाग्य से भारत जैसे विशाल देश में समस्याओं की अपार उपलब्धता उनको प्राप्त हुई| जिसने वामपंथ के लिए क्रांति के नए रास्ते पैदा किए| इनमें से एक रास्ता 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्षलबारी नाम के गाँव से होकर गुजरा । भारत में नक्षलवाद के जनक चारु मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल थे । बंगाल में भू-आंदोलन के बाद नक्सलवादी आंदोलन लगभग समाप्त हो गया| मगर उसके विश्लेषण से जो बात निकली वो साफ थी की, संथाल आदिवासियों की तरह, भारत के कई राज्यों में अन्य अन्य जनजातीय समाज रहते हैं, जिनकी समस्याओं के रास्ते नई क्रांति फिर पैदा करने की तैयारी की गई | इस माओवादी वामपंथी आंदोलन का आधार मूलनिवासी अवधारणा ही था | जो जनजातियों को एक अलग मूलनिवासी पहचान देकर भारत के संविधान के खिलाफ एक हथियार बंद क्रान्ति के रास्ते उनकी समस्या का समाधान दिलवाने के नाम पर अलगाववाद फैला रहे हैं । भारत के कई जाने माने संस्थान इन विचारों को पोषित करने का कार्य कर रहे है| अलग पहचान खड़ी करने के उदेश्य से जनजाति क्षेत्र में महिषासुर दिवस, रावण दहन विरोध, दुर्गा पुजा विरोध के लिए नया नया साहित्य तैयार कर जनजातीय बहुल इलाकों में फैलाया जा रहा है | हजारों सालों से साथ रह रहे एक ही रक्त एवं एक ही परम्परा, संस्कृति के अंग होने के बावजूद अन्य समाजों को जनजातियों के दुश्मन सिद्ध करने का पूरा नरेटिव तैयार किया जा रहा है | ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे आंदोलन का मूल अलग अलग जन जातीय समाजों के बीच वैमनस्य पैदा करना है ताकि क्रान्ति फैलाई जा सके । हाल ही में माओवादी गति विधियों के समर्थन में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी. एन. साईबाबा जो की आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं, जो कई माओवादी घटनाओं के प्रणेता रहे हैं, उन पर नर्मदा अक्का नामक नक्सली कमांडर से माओवादी विचारों को फैलाने का आरोप सिद्ध हुआ | उनके साथ JNU के तीन अन्य छात्रों को भी आजीवन कारावास की सजा मिली है | मगर उन्हें रिहा करने संयुक्त राष्ट्र के स्पेशल रेपोर्टज़ ने भारत सरकार से अनुरोध किया है । साईबाबा के एक भाषण में उन्होने कहा “ “Naxalism is the only way and denounces the democratic government setup” ऐसे कई अन्य वैचारिक अलगाववादी साहित्य , भारत के प्रजातांत्रिक के खिलाफ वैश्विक मंच पर कार्य कर रहे हैं ।
अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र
भारत के विरोधी पाकिस्तान, चीन और औउपनेविशिक ताकतों को भारत के जनजाति समाज के रूप में एक नया वर्ग मिल गया था | जिसका उपयोग वे भारत की तरक्की को रोकने और भारत के क्षेत्रीय आधार पर फिरसे टुकड़े करने के लिए करना चाहते थे । लेकिन शिक्षा की कमी,भौगोलिक विषमता और संचार माध्यमों के अभाव से वे जनजाती समाज को तोड़ने में अधिक सफल नहीं हुये । हाल के वर्षों में सूचना क्रान्ति और सोशल मीडिया ने इन भौगोलिक और भाषाई अवरोधों को लगभग हटा दिया है |फिर से विघटनकारी शक्तियाँ इनके उपयोग से बलवती हो रहीं हैं । जिसके परिणाम भारत की अखंडता के लिए घातक हो सकते हैं ।
11 वी सदी से ही Crusades और Commercialprosperity एक दूसरे की पूरक रही हैं | इसका आधार ‘न्यू क्रिश्चियन इकॉनोंमी थियरि’ है, जो पूरे विश्व के अश्वेत या अयुरोपिय लोगों को क्रिश्चियन धर्म के अंतर्गत लाना चाहते हैं | इसके लिए विकासशील देशों में विश्व की बड़ी यूरोपियन शक्तियाँ छद्म रूप से कार्यरत हैं, जो बहुत बड़ी संख्या में हुमानीटेरियन कार्य के बहाने पहले धार्मिक परिवर्तन और फिर धर्म आधारित राष्ट्र के सिद्धांत पर कार्य करते हैं । अश्वेत और अयुरोपिय देशों में अलग देश की मांग करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNPO द्वारा सहायता प्रदान की जाती है | भारत से नागालैंड के अलगाववादी संगठन (नागालिम) UNPO का सदस्य है,जो भारत से अलग देश की मांग कर रहा है | जिसके पीछे नॉर्वे और कई यूरोपीय देश, धार्मिक आधार पर नागालैंड को अलग देश की हिमायत कर रहे हैं | पूर्वी तिमोरे इसका ज्वलंत उदाहरण है । जिसे इसी संस्था द्वारा शांति सेनाओं के माध्यम से नए राष्ट्र की शक्ल मिली ।
प्रकृतिक संसाधनों पर उपनिवेशिक शक्तियों की नज़र है और उनके शक्ति संतुलन को बनाए रखने के लिए रक्षा संबंधी हथियारों का बाज़ार बहुत महत्वपूर्ण है | दुनिया के बहुत से देश जहाँ पर विकसित प्रजा तंत्र नहीं है, वहाँ की सत्ता किस के पास होगी ये इस बात पर निर्भर करता है की वहाँ के प्रकृतिक संसाधनों पर किस समूह का कब्जा है |इस संघर्ष को जीतने के लिए आपस में संघर्षरत समूहों को आधुनिक हथियारों की आवश्यकता है, जिसे उपनिवेशिक ताक़तें पूरा करती हैं ।
प्रजातन्त्र का विकास उपनिवेशिक बाजारवादी शक्तियों के लिए खतरा है | कई वर्षों के सत्ता संघर्ष के बाद भी विश्व के कई देशों में प्रजातन्त्र और शांति पूर्वक अपने संसाधनों को नियंत्रित करना चाहते है | जो इन वैश्विक बाजारवादी उपनिवेशिक ताकतों के लिए एक बाज़ार के खत्म होने जैसा है । उपनिवेशिक ताकतों के बजरवादी मंसूबों के लिए छोटे छोटे देशों और बड़े प्रजा तांत्रिक देशों में बढ़ती प्रजातंत्रिक शासन प्रणाली उनके ‘न्यू क्रिश्चियन इकॉनमी’के लिए सकारात्मक नहीं है | क्यूंकी इस एकोनोमिक मॉडल के तहत नए देशों का आधार धार्मिक होना चाहिए ना की भाषाई या क्षेत्रीय । भारत और अफ्रीका के कई देश इस नई तोड़ो और राज करो की नीति के निशाने पर हैं ।
जनजाति समाज को तोड़ने का षड्यंत्र
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद जनजातीय क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कंपनिया एक ओर हमारे संसाधनों पर गिधड़ की तरह आँख गड़ाए हैं और पिछले दरवाजे से उनके NGOसंगठन उनके लिए बनने वाले विपरीत माहौल को राष्ट्र विरोधी दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं | इस आर्थिक शोषण का लाभ उठा कर वे राष्ट्र विरोधी आंदोलनों में हमारे देश मे रहनेवाले आदिवासियों को पहली पंक्ति में खड़ा करके हमारी आर्थिक उन्नति पर सेंध लगाना चाहते हैं।
अलग देश की मांग का सबसे मजबूत आधार धार्मिक है और 1947 में अंग्रेजों द्वारा भारत के तीन टुकड़े इसी धार्मिक आधार पर किए । क्या इसी लिए बहुत बड़ी संख्या में भारत के 705 के लगभग जनजाति समुदायों को हिन्दू धर्म से अलग पहचान खड़ी की जा रही है ? जन जातीय समाज के लिए कई विदेशी संस्थाएं अलग धर्म कोड के लिए या 2021 की जनगणना में हिन्दू धर्म से अलग धर्म की मांग के लिए संघर्षरत हैं ताकि विश्व पटल पर हिंदुओं की संख्या को कम किया जा सके और मिशन संस्थाओं द्वारा इन नए धर्म को ईसाई धर्म में मिलाया जा सके? जो धार्मिक अलगाववाद का कारण बन सके । और बाद में फिर से अलग अलग जनजातियों को बांटकर अलग धर्म के नाम पर फिर समाज के टुकड़े किए जाएँ ? हमारे देश की विभिन्न राष्ट्र विरोधी ताकतें इसी दिशा मे काम करती हुई दिखाई दे रही है | हमारे देश के विभिन्न राज्यों मे चल रहे विभिन्न छोटे मोटे आंदोलन इस आंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा बनाते जा रहे है |
भारत के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़ीसा राज्यों में जनजाति प्रतिशत किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई है | इसीलिए इन राज्यों में जन जातियों का धर्म परिवर्तन करके अहिन्दूकरण का कार्य आगे की राजनीतिक संतुलन को बिगाड़ने के उद्देश्य से किए जा रहे है ।
पूर्वोत्तर के राज्यों में जनजाती जनसंख्या प्रतिशत अन्य समुदायों से अधिक है| मेघालय, नागालैंड, मिज़ोरम में जनजाती समुदाय अधिकांश ईसाई है । लेकिन फिर भी वे एक दूसरे को स्वीकार नहीं करते | मिजोराम राज्य के लोगोने इसी राज्य के चकमा जनजाती समुदाय को यहाँ से पहले ही बाहर ढकेल दिया है | इसी तरह नागा समुदाय ने मणिपुर के जन जाती समुदाय को नागा क्षेत्र से हटाने के लिए कई बार आर्थिक नाकाबंदी की है । अरुणाचल प्रदेश में भी बड़ी संख्या में जनजाति ईसाई धर्म में परिवर्तित हो रहे हैं और उनके अपने ही जनजाती समुदायों से संघर्ष बढ़ रहे हैं । ये साफ दर्शाता है की एक ओर जनजाती समुदायों की पहचान को एक नयी अलग पहचान देने का षड्यंत्र है |दूसरी ओर उनको ईसाई मतांतरित करके उनको एक धर्म के अंदर लाकर धार्मिक अलगाव के बीज बोए जा रहे हैं । अगर इन सभी विघटनकारी शक्तियों को सूक्ष्मता से अध्यन किया जाये तो उपनिवेशिक और धार्मिक शक्तियों द्वारा भारत के जनजातियों को एक धर्म में लाने का प्रयास है और दूसरी ओर उनकी विशिष्ट पहचान को खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि ये आपस में संगठित न हो और इनमें आपसी संघर्ष बना रहे ।
*झारखंड की पत्थल गढ़ी समस्या*
झारखंड का खूंटी क्षेत्र महान बिरसा मुंडा के जन्म स्थान से परिचित है | जो ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ने वाले स्वतन्त्रता संग्राम के नायकों में से एक थे | मगर आज उसी मुंडा समाज जोसेफ पूर्ति जैसे धर्मांतरित जनजातियों के नेतृत्व में अलगाव वाद की ओर बढ़ रहा है । मुंडा समाज स्वयं को धरती से उत्पन्न मानता है | परंपरागत रूप से बुजुर्ग के देहांत के बाद उन्हे धरती में दफन किया जाता है उस जगह पर ही अपनी शक्ति अनुसार एक बड़ा पत्थर गड़ाया जाता है | इस मुंडा रिवाज को ‘ ससंदिरी’ कहा जाता रहा है | मगर पेसा एक्ट की जागरूकता बढ़ाने के हेतु आइएएस अधिकारी श्री॰ बी. डी शर्मा और पूर्व IPS अधिकारी श्री॰ बंदी ओराओं द्वारा इसे पत्थल गढ़ी का नाम दिया गया| जिसमें पेसा एक्ट के महत्वपूर्ण नियम स्थानीय भाषा में लिखित होते थे ।
हाल ही में इस क्षेत्र के कई गांवो ने इस तरह की पत्थल गढ़ी कर भारत के कानून इन गाँव में लागू नहीं है जैसे संदेश इन पत्थल गढ़ी में दर्शाये है | किसी भी बाहरी व्यक्ति को भी गाँव में प्रवेश से वर्जित किया गया है | धीरे धीरे ये हथियार बंद घेराबंदी में बदल गया है और अब तक 40 गांवों में पत्थल गढ़ी की घटना हुई है ।
इस देश विरोधी कार्य के खिलाफ भोले भाले जन जातीय समाजों के बीच सही संदेश पहुंचाने उनके बीच गई पाँच बहनों को पतथलगड़ी समर्थकों ने अगवा कर उनका सामूहिक बलात्कार किया | इसके पीछे जॉन जूनास तिरु नामक केथोलिक ईसाई प्रचारक व उनके साथियों का हांथ है | इन पाँच बहनों को एक चर्च से अगवा किया गया था जिसके लिए चर्च के लोगों ने कोई विरोध नहीं किया था ।
जब पुलिस ने बलात्कारियों की धड़ पकड़ शुरू की तो उसके खिलाफ वहाँ के पूर्व सांसद श्री॰ करिया मुंडा के निवास से तीन जनजातीय सुरक्षा कर्मियों को अगवा कर लिया गया | तीन दिनों की खोज के बाद उनका पता चला, मगर उनके हथियार छीन लिए गये थे इस तरह के कार्य बिना किसी संगठित पूर्व योजना के संभव नहीं हैं । यहाँ पर पिछले कई सालों से 09 अगस्त के दिन ‘विश्व मुल निवासी दिवस’ चर्च की अगुवाई में मनाया जाता रहा है | जिसमें बड़ी संख्या में भारत विरोधी विचारों का प्रचार किया जाता रहा है | पत्थल गढ़ी की घटनाएँ इन अलगाववादी वैश्विक मूलनिवासी षडयंत्रों का ही प्रभाव हैं ।
*इस षड्यंत्र को समझे*
अंतरराष्ट्रीय ताकतें जनजाति समाज को इस देश से तोड़ने का कार्य कर रही है | मूल निवासी दिवस मनाने के लिए हमे प्रोत्साहित करने का इन शक्तियों का उद्देश भी वही है | हमे इस षड्यंत्र को समझना होगा | वास्तविक इस दिन से हमारा कुछ संबंध है ही नहीं | अमरीका, औस्ट्रेलिया,नुजीलंड जैसे देशों मे वहाँ के मूल निवासियों के साथ जो हुआ, उस प्रकार की परिस्थिति भारत मे निर्माण नहीं हुई |दुर्भाग्य से कुछ विदेशी ताकदे जनजाति समाज को गुमराह कर अन्य समुदायों के साथ हमे लड़ाने का काम कर रही है |इस के लिए 9 अगस्त के दिन को उन्होने एक हथियार के रूप मे इस्तेमाल किया है |
आइये इस षड्यंत्र को हम समझे |
क्या पीढ़ियों के विदेशी आधिपत्य ने हमें आने वाले खतरों को नज़र अंदाज करने का आदि बना दिया है ?
क्या हम भारत की अखंडता के सामने उपनिवेशिक बजरवादी ताकतों को भारत के जन जातीय समुदायों को यूं ही तोड़ने के लिए छोड़ देंगे ?
क्या हम इन अलगाववादी ताकतों को भारत के जनजातीय क्षेत्रों में अभारतीयता प्रसार करने देंगे ?
क्या हम भारत तोड़ने के लिए विदेशी षड्यंत्र को जारी रहने देंगे ?
तो आइये…
प्रतिज्ञा करे…
आदिवासी होकर मैं , मेरे पूर्वज शंकर शाह , बिरसा मुंडा , तं
ट्या मामा भीलजैसे वीरों को मौत के घाट उतारने वालों के वंशजों द्वारा भीख में दिया , 09 अगस्त का दिन नहीं मनाऊँगा ….. मनाऊँगा तो 09 जून को जिस दिन बिरसा शहीद हुए … या तो फिर 24 जून जब रानी दुर्गावती शहीद हुई , अकबर के विरुद्ध लड़ते हुए …. या फिर जिस दिन टंटया मामा को जिस दिन अंग्रेज़ों ने मारा , मनाऊँगा तो 18 सितम्बर को जब शंकर शाह रघुनाथ शाह को अंग्रेज़ों ने तोप से बाँधकर उड़ा दिया , या तो मनाऊँगा 18 मई कोजब अंडमान में अबर्दिन जगह पर हज़ारों आदिवासियों को समूल नाश कर दिया गया … केवल एक दिन बहुत कम है हमारे बलिदानों के लिए ,हर वो दिन मेरे लिए “ आदिवासी दिन “ हैं , जिस दिन हमारे पूर्वजों ने विदेशी आक्रांताओं से लड़ते हुए शहादत दी… वो दिन अंग्रेज़ों की नस्लों ने जो भीख में दिया , मुझे स्वीकार्य नहीं…. ये है मेरा समर्पण मेरे पूर्वजों के लिए… आपका भी हो सकता है, अंग्रेज़ी चश्मा , उतार कर देखें …
*राम-राम जय सेवा जय जोहार जय हिंद*