रतलाम राज्य के क्रान्तिकारी दीवान-पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा
(रतलाम स्थापना दिवस बसन्त पंचमी पर विशेष)
-डॉ.डी.एन पचौरी
गुजरात की भूमि ने जहां एक ओर गांधी जी,सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेता इस भारत देश को प्रदान किए,वहीं इस भूमि में क्रान्तिकारी पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा का जन्म हुआ। रतलाम राज्य तथा रतलाम शहर के विकास में सर्वाधिक योगदान इसी महापुरुष का है। इन्हे रतलाम के राजा ने 1855 में राज्य का दीवान या आधुनिक संदर्भ में कहे तो मुख्यमंत्री नियुक्त किया था। इन्होने वीर सावरकर,लाला लाजपतराय,दादाभाई नौरोजी आदि के साथ भारत भूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र भारत का सपना देखा था। इंग्लैण्ड में भारत भवन या इण्डिया हाउस की स्थापना इन्ही वर्मा जी की देन है। आइए इस क्रान्तिवीर के बारे में कुछ जानने का यत्न करें।
प्रारंभिक जीवन तथा शिक्षण
पं.श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात राज्य के कच्छ स्थित मांडवी में हुआ था। इनकी माताश्री का देहावसान बचपन में ही हो गया था। इनके पिता श्री कृष्ण जी भंसाली एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे,किन्तु श्याम जी जब मात्र 11 वर्ष के थे,तभी पिताजी का भी देहावसान हो गया। इनका पालन पोषण इनकी दादी ने किया था। हायर सेकेण्डरी तक की शिक्षा इन्होने बुज में प्राप्त की और इसके ग्रेजुएशन के लिए मुंबई गए। श्री वर्मा जी का एक अभिन्न मित्र रामदास था,जिसकी बहन श्रीमती भानुमति से 1875 में इनका विवाह हुआ। श्रीमती भानुमति का परिवार समृध्द परिवार था तथा पं.श्याम जी के ससुर श्री छबीलदास लालूभाई एक सफल संपन्न व्यवसायी थे। उन्होने भी वर्मा जी के भविष्य की प्रगति में सहायता की।
पं.श्यामजी कृष्ण वर्मा ने वेदों का गहन अध्ययन किया और ये संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। उस समय श्री वर्मा जी श्री दयानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आए और सत्यार्थ प्रकाश का गहन अध्ययन कर आर्य समाज के प्रचारक बन गए। स्वामी श्री दयानन्द सरस्वती के साथ वर्मा जी स्थान स्थान पर प्रवचन देने जाने लगे। स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना की थी,उस समय श्यामजी वैदिक धर्म औव वेदान्त पर अत्यन्त प्रभावशाली व्याख्यान देते थे। 1877 में वे पूरे भारत में प्रसिध्द हो गए। इनकी वेदों की जानकारी,प्रवचन तथा संस्कृत से बनारस काशी के पंडित इतने प्रभावित हुए कि उन्होने श्यामजी को पण्डित की उपाधि से विभूषित किया,जबकि श्यामजी ब्राम्हण जाति के नहीं थे। इस प्रकार ये भारत के पहले व्यक्ति बने जिन्हे ब्राम्हण जाति का न होते हुए भी पण्डित जैसी सम्माननी उपाधि प्राप्त हुई।
ग्रेजुएशन व रतलाम आगमन
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक व्याख्याता श्री विलियम मोनेर पं.श्यामजी के संस्कृत ज्ञान और विद्वत्ता से अत्यधिक प्रभावित हुए और इनको संस्कृत भाषा के शिक्षण के लिए आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में नियुक्ति दिलवा दी। इस प्रकार 25 अप्रैल 1879 रो पं.श्याम जी ने यूनिवर्सिटी में प्रवेश किया। वहीं रहकर अध्ययन अध्यापन करते हुए इन्होने 1883 में बी.ए.एल.एल.बी(बार एट लॉ)की उपाधि प्राप्त की। 1885 रे प्रारंभ में श्यामजी भारत लौटे और यहां वकालत प्रारंभ कर दी। उसी समय रतलाम रियासत के महाराजा ने इन्हे दीवान के पद पर नियुक्ति दे दी और पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा रतलाम आ गए। रतलाम राज्य और रतलाम शहर के विकास में इनका योगदान अतुलनीय है। शहर की बसाहट,भवनों का निर्माण तथा राज्य में लगने वाले टैक्स और भूमि सम्बन्धी अनेकों सुधार इन्होने किए,किन्तु दुर्भाग्यवश वे रतलाम में बीमार रहने लगे। तब पद से त्यागपत्र देकर अजमेर और फिर उदयपुर चले गए। रतलाम के राजा की ओर से वर्मा जी को 32052 रुपए प्रदान किए गए जो उस समय एक बहुत बडी राशि हुआ करती थी। श्याम जी 1889 में रतलाम से अजमेर गए। अजमेर में उन्होने वकालत शुरु की तथा सूती कपडों की मिल में अपना पूरा पैसा लगा दिया। वहां से इन्हे इतना पैसा मिला कि ये शेष जीवन इस पैसे के आधार पर बिता सकते थे। 1893 से 1895 तक ये उदयपुर महाराज की सेवा में दीवान रहे और फिर जूनागढ(गुजरात)में दीवान बन गए। दीवानी के पदों पर रहते हुए उन्होने अनुभव किया कि ब्रिटीश एजेन्ट इन राजा महाराजाओं के साथ कैसा व्यवहार करते है। पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा को इस बात से बडा दु:ख होता था कि भारत के ये राजा महाराजा ब्रिटीश एजेन्टों के सामने कितने बेबस,लाचार और असहाय अनुभव करते थे। यही कुछ कारण थे कि वर्मा जी के मन में क्रान्तिकारी विचारों का सूत्रपात हुआ तथा वे भारत की स्वतंत्रता का स्वप्र संजोने लगे। उन्होने 1897 में जूनागढ रियासत के दीवान पद से त्यागपत्र दे दिया और बाल गंगाधर तिलक से मिले। वे तिलक जी के क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित हुए और फिर लन्दन चले गए।
लन्दन में वर्मा जी मन्दिर की सराय जिसे टेम्पल्स इन या इनर टेम्पल कहते थे,में निवास किया। फिर हाइगेट पर उन्होने एक शानदार तथा अधिक मूल्य का भवन निर्माण किया। लन्दन में पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा अंग्रेज विद्वान हरबर्ट स्पेन्सर के विचारों से सहमत थे। उन्होने एक वाक्य को जीवन का सूत्र वाक्य बना लिया जो इस प्रकार था-अत्याचार व अन्याय का विरोध करना न्यायोचित है तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है। सन 1903 में श्री हरबर्ट स्पैन्सर की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में वर्मा जी ने एक हाजर पाउण्ड की छात्रवृत्ति देने की घोषणा की,जो आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के उस छात्र को दी जाती थी जो अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पैन्सर के विचारों और कार्यो को आगे बढाएगा। स्वामी दयानन्द सरस्वती की स्मृति में भी दो हजार रुपए की छात्रवृत्ति की घोषणा की,जो केवल उन भारतीय छात्रों के लिए थी,जो लन्दन में रहकर अध्ययन करेंगे किन्तु शिक्षा पूर्ण होने पर अंग्रेजी शासन की नौकरी या कोई पद प्राप्त नहीं करेेंगे।
राजनीतिक क्रियाकलाप
पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैण्ड में एक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया,जिसका नाम था इण्डियन सोशलॉजिस्ट। इस समाचार पत्र का उद्देश्य भारतीय छात्रों में स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न करना तथा भारत में ब्रिटीश शासन का विरोध व स्वतंत्रता की प्राप्ति था।
इतना ही नहीं उन्होने भारतीय स्वशासन संगठन की स्थापना अपने घर हाईगेट पर की थी। वहीं पर इसकी मीटींग आयोजित होने लगी। इसका उद्देश्य स्वतंत्रता की प्राप्ति के साथ राष्ट्रीय एकता तथा क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार प्रसार था। इन्होने अभिनव भारत मण्डल की स्थापना की। इस सबका परिणाम यह हुआ कि अनेक क्रान्तिकारी जैसे भीकाजी कामा,एसआर राणा,विनायक दामोदर सावरकर,गणेश सावरकर,वीरेन चट्टोपाध्याय,लाला हरदयाल,मैडम कामा तथा मदनलाल धींगरा आदि श्याम जी वर्मा से जुडते चले गए। ब्रिटीशर्स के विरोध के कारण वहां के समाचार पत्र इनके खिलाफ जहर उगलने लगे। यहां तक कि टाइम्स पत्रिका ने इन्हे कुख्यात या नम्बरी श्याम कृष्ण वर्मा (नटोरियस श्याम कृष्ण वर्मा) की उपाधि तक दे डाली। पं.श्याम जी ने सभी का यथोचित जवाब अपने द्वारा प्रकाशित पेपर में दिया किन्तु इनका विरोध धीरे धीरे जोर पकडने लगा।
इण्डिया हाउस की स्थापना
भारतीयों की दासता की इससे बडी त्रासदी और क्या होगी कि उस समय इंग्लैण्ड में कोई अंग्रेज भारतीयों को किराये पर मकान नहीं देता था और होटलों पर लिखा जाता था -इण्डियन्स एण्ड डॉग्स नॉट अलाउड- अर्थात भारतीयों व कुत्तों का प्रवेश वर्जित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के साठ पैंसठ वर्ष बाद भी कोई खास फर्क नहीं आया क्योकि एक अंग्रेज ने पूरे विश्व के सामने हम भारतीयों को कुत्ता कहा। एक फिल्म बनाई स्लम डॉग मिलेनियर अर्थात झुग्गी झोपडी में रहने वाला कुत्ता करोडपति। इतना ही नहीं यह एक षडयंत्र था कि इस फिल्म को ऑस्कर एवार्ड दिलवा दिया जिससे पूरा विश्व अच्छी तरह भारतीय कुत्तों के बारे में जानकारी प्राप्त करे। हमने इसे सम्मान समझा और सिर झुकाकर ग्रहण किया।
भारतीयों की दुर्दशा पर वर्मा जी को दुख होता था अत: उन्होने हाईगेट पर भारत भवन या इण्डिया हाउस का निर्माण कराया। यह लगभग 25 छात्रों के रहने योग्य एक होस्टल था। इसका उद्घाटन दादा भाई नौरोजी,लाला लाजपतराय तथा अन्य गणमान्य ब्रिटीशर्स की उपस्थिति में हैनरी हिण्डमेन ने किया। मनोज कुमार की फिल्म पूरब और पश्चिम में इस इण्डिया हाउस को दिखाया गया है। उस समय इसका पता हुआ करता था इण्डिया हाउस 65 कार्निवाल एवेन्यू हाईगेट लन्दन।
पेरिस व जेनेवा प्रस्थान
पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा के क्रान्तिकारी विचारों तथा कार्यकलापों का परिणाम यह हुआ कि ब्रिटीश सीक्रेट सर्विस के अधिकारी इनकी प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखने लगे और इन्हे गिरफ्तार करने का मौका ढंूढने लगे। २५ अप्रैल १९०९ को अंग्रेजों के विरुध्द लेख लिखने के कारण इनरटेम्पल में इनका प्रवेश वर्जित कर दिया गया। इसके पहले कि ये गिरफ्तार हो जाते इन्होने लन्दन छोड दिया और फ्रान्स के शहर पेरिस चले गए। इण्डिया हाउस वीर सावरकर के भरोसे छोड दिया गया। १९१० में पेरिस में इन्होने अपना कार्य निरन्तर चालू रखा किन्तु जब जार्ज पंचम को फ्रान्स सरकार ने निमंत्रित किया तो वर्मा जी पेरिस छोड कर स्विट्जरलैण्ड की राजधानी जेनेवा चले गए। प्रथम विश्वयुध्द के प्रारंभ होने पर स्विस सरकार ने इनके राजनीतिक कार्यों पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसलिए १९१४ से १९२० तक लगभग छ:वर्ष तक इनका कोई समाचार पत्र प्रकाशित नहीं हुआ। १९२० में पुन: इण्डियन सोश्यलाजिस्ट का प्रकाशन आरंभ हुआ तथा १९२२ के अगस्त तथा सितम्बर में अंतिम दो पत्र प्रकाशित हुए। फिर पं.श्यामजी कृष्ण वर्मा का स्वास्थ्य गिरने लगा और अन्त में बीमार होने पर वे अस्पताल में भर्ती हुए,जहां ३० मार्च १९३० को रात्रि ११.३० बजे उन्होने अपना नश्वर शरीर छोड दिया। ब्रिटिशर्स ने इसकी खबर भारतीयों को न लगे इसकी बहुत सावधानी रखी किन्तु ३१ मार्च १९३० को पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा के देहान्त की सूचना भारत पंहुची। सरदार भगतसिंह और उनके साथियों ने जेल में उनको श्रध्दांजलि अर्पित की। तिलक जी के समाचार पत्र मराठा ने एक मार्मिक संस्मरण प्रकाशित कर श्रध्दांजलि दी। पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा को अपने स्वदेश से इतना प्रेम था कि उन्होने जेनेवा सरकार से अनुबन्ध किया कि अगले १०० वर्ष तक उनकी अस्थियां सुरक्षित रखी जाए व स्वतंत्र भारत को सौंप दी जाए।
पं.श्यामजी कृष्ण वर्मा स्मारक
भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात भी 33 वर्ष तक कांग्रेस शासन ने वर्मा जी की अस्थियां लाने की कोई कार्यवाही नहीं की। पेरिस में एक इतिहासकार पृथ्वेन्द्र मुखर्जी के प्रयत्नों से सन 1980 में श्रीमती इन्दिरा गांधी ने इस ओर ध्यान दिया और सकारात्मक पहल की। सन 1989 में जेनेवा शासन से सतत पत्र व्यवहार चलता रहा। श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा स्मारिक समिति माण्डवी की बहन मंगललक्ष्मी भंसाली,किरीट सोमाया एमपी,विनोद खन्ना एमपी(जो फिल्म स्टार तथा एनडीए सरकार में मंत्री थे),तथा गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री के सद्प्रयत्नों से पं.श्याम जी वर्मा तथा उनकी धर्मपत्नी भानुमति की अस्थियों को भारत लाया गया तथा 23 अगस्त 2003 को मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन्हे ग्रहण किया। 25 जिलों में इनको सादर घुमाया गया और जगह जगह सम्मानपूर्वक श्रध्दांजलि दी गई तथा अन्त में उनके जन्मस्थान कच्छ के मांडवी में श्रध्दापूर्वक इनके स्मारक में रखा गया। 13 दिसम्बर 2010 को एक भव्य स्मारक का उद्घाटन मुख्यमंत्री मोदी जी ने किया। यों 1970 में कच्छ में श्यामकृष्ण वर्मा नगर की स्थापना हो चुकी थी।
समालोचना
जिस प्रकार गांधी जी ने 1893 से 1914 तक भारत से बाहर रहकर अफ्रीका में देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य किया। इसी प्रकार पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा ने 1899 से 1930 तक योरोप के देशों में भारतीय स्वतंत्रता की ज्योति की अलख जगाई। कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज ने की थी तथा प्रारंभ में इसका उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति नहीं था। अत: पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा कांग्रेस को पसंद नहीं करते थे। उन्होने कभी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण नहीं की। यहां तक कि 1900 में जब गांधी जी ने बोरो आन्दोलन में अंग्रेजों का सहयोग किया तो पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इसकी कटु आलोचना की। उन्होने कहा कि मुझे ये कहते हुए शर्म आती है कि मेरा जन्म उस भूमि पर हुआ है,जहां का एक व्यक्ति मोहनदास करमचंद गांधी अंग्रेजों की सहायता कर रहा है। गौरतलब है कि अफ्रीकी किसानों और ब्रिटिशर्स के मध्य 1899 से 1902 तक युध्द हुआ ,जिसमें अफ्रीकी किसान और छापामार गुरिल्ले अपनी स्वतंत्रता व अधिकारों के लिए अंग्रेजों से युध्द कर रहे थे। उस समय गांधी जी अफ्रीका में थे तथआ महात्मा की उपाधि से वंचित थे। गांधी जी के विरोध के कारण ही शायद कांग्रेस ने पं.वर्मा जी की अस्थियां भारत लाने की पहल नहीं की,जिसे श्रीमती गांधी ने सुधारा। 1998 में पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा पर डााक टिकट भी जारी किया गया। भारत देश ऐसे क्रान्तिवीर का सदैव ऋ णी रहेगा। हम रतलामवासी रतलाम के स्थापना दिवस पर उस महापुरुष को श्रध्दांजलि अर्पित करते हैं,जिसने अपना तन मन धन सर्वस्व इस देश की स्वतंत्रता के लिए अर्पित कर दिया। रतलाम सदैव इस क्रान्तिवीर का कृतज्ञ रहेगा।