भाजपा को भारी पडेगा दोहरा चरित्र
(सन्दर्भ-धार का भोजशाला प्रकरण)
-तुषार कोठारी
धार की भोजशाला लेकर खडे किए गए विवाद का निराकरण होने में अब कुछ ही घण्टे शेष बचे है। पिछले कुछ दिनों से जारी इस घटनाक्रम के मुख्य चार पक्षों की भूमिका को निरपेक्ष ढंग से देखा जाए,तो कई सारे नए तथ्य उजागर होते नजर आते है। घटनाक्रम दर्शाता है कि कांग्रेस पर दोहरे चरित्र का आरोप लगाने वाली भाजपा अब पूरी तरह से दोहरे चरित्र को अपना चुकी है। इतना ही नहीं अब भाजपा स्वयं भी छद्म धर्मनिरपेक्षता वादी हो चुकी है।
भोजशाला के घटनाक्रम में मुख्य रुप से चार पक्ष हैं जिन्हे इस मसले का निराकरण करना है। पहला पक्ष बहुसंख्यक हिन्दू समाज का है,जिसे आजादी के बाद से अब तक सत्ताधीशों की उपेक्षा झेलना पडी है और अल्पसंख्यकों के वोट बैंक के दबाव में अत्याचार भी सहना पडे है। दूसरा पक्ष उन गिने चुने मु_ी भर विघ्रसंतोषी तत्वों का है,जो अल्पसंख्यक होने का स्वांग रच कर सद्भाव को सदा बिगाडने में लगे रहते है। तीसरा पक्ष पुलिस और प्रशासन का है,जो सरकार की इच्छा को हर कीमत पर लागू करने की तैयारियों का है और चौथा पक्ष राज्य सरकार का है,जिस पर कि प्रदेश की जनता ने लगातार तीसरी बार प्रदेश को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है।
इन चार पक्षों की पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें,तो कई रोचक तथ्य सामने आते है। पहला मजेदार तथ्य तो यही है कि आज जो हिन्दूवादी संगठन और सरकार आमने सामने खडे नजर आ रहे है,अभी कुछ ही दिनों पहले चुनाव तक दोनो साथ साथ थे। सरकार में शामिल नेता अपने आप को हिन्दूत्व वादी दिखाने की होड में लगे हुए थे। लेकिन जैसे ही समय गुजरा इन सब का चरित्र ही बदल गया। आज भाजपा के वे तमाम नेता ठीक वही तौर तरीके अपना रहे है,जिन्हे वे स्वयं कभी छद्म धर्मनिरपेक्षता और सूडो सैक्यूलरिज्म कहा करते थे।
मुद्दा बेहद सीधा सा है। लेकिन सरकार का दिमाग चूंकि पूरी तरह छदम धर्मनिरपेक्षता के हिसाब से चलता है इसलिए उन्हे सीधी सी बात भी समझ में नहीं आती। जब भाजपा विपक्ष में रहती है,तब भाजपा नेताओं के मुताबिक छदम धर्मनिरपेक्षता का अर्थ बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाओं को आहत करना,उनके हितों के खिलाफ निर्णय करना,अल्पसंख्यक समुदाय की अनुचित मांगों को भी तत्काल स्वीकार करना आदि होता है। प्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा भोजशाला मामले में लिए जा रहे निर्णयों को देखें तो यही सबकुछ नजर आएगा।
भोजशाला प्रकरण को देखें,तो ध्यान में आता है कि मामला बेहद सीधा है। भोजशाला में मन्दिर भवन होने के बेहिसाब प्रमाण मौजूद है,जो किसी सामान्य व्यक्ति को भी नंगी आंखों से नजर आ जाते है। लेकिन सरकार में बैठे मंत्रियों और जिम्मेदारों की आंखों पर सरकार में जाते ही छदम धर्मनिरपेक्षता का जो पर्दा पडता है,उसकी वजह से उन्हे ये प्रमाण नजर ही नहीं आते। यही नहीं,भोजशाला में नमाज की जिद पकड कर बैठे गिने चुने विघ्रसंतोषियों को सख्ती से समझाने में सरकार पूरी तरह लाचार है। सरकार की समझदारी का एक और नमूना देखिए। अल्पसंख्यकों का एक छोटा सा समूह भोजशाला में नमाज पढने की जिद पकडता है,वह तो सरकार के लिए महत्वपूर्ण है,लेकिन राष्ट्रवादी मुस्लिमों का एक बडा समूह जब यह कहता है कि भोजशाला मन्दिर है,वहां नमाज नहीं पढी जा सकती। सरकार को इस समूह की बातें महत्वहीन लगती है। वह इन बातों पर ध्यान ही नहीं दे पाती और उन विघ्र संतोषियों पर अपना ध्यान लगाए बैठी रहती है,जिनका अपने समुदाय में ही कोई महत्व नहीं है।
प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यो होता है? इसका उत्तर सरकार चला रहे लोगों की समझ की कमी के रुप में सामने आता है। वे जिन मुद्दों को विपक्ष में रहते हुए सही बताते थे और जिन मुद्दों के लिए मतदाताओं ने उन्हे वोट देकर सत्तासीन किया था,सरकार में आते ही उन्हे वे सारे मुद्दे गलत लगने लगे है। सिंहासन पर आसीन होते ही छदम धर्मरिपेक्षता का भूत उन्हे अपनी चपेट में ले लेता है। वे समझ ही नहीं पाते ही धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिन्दू विरोध या मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं है। वे भूल जाते है कि सत्ता में होने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि आंखों देखी सच्चाई को झूठला दिया जाए। सरकार में होने का अर्थ यह होता है कि विवाद की स्थिति में तथ्यों के आधार पर न्याय किया जाए,ना कि समुदाय विशेष के दबाव में आकर तथ्यों को झुठलाया जाए और मामलों को न्यायालय पर ढोल कर पीछा छुडा लिया जाए।
सत्तारुढ पार्टी के अतिविद्वान नेतृत्वकर्ताओं को समझ लेना चाहिए कि काठ की हाण्डी एक बार ही चूल्हे पर चढती है। मतदाताओं ने उन्हे इसलिए वोट दिए थे,कि मतदाता यह मानते थे कि भाजपा छदम धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यकों के साथ अन्याय नहीं करेगी और सत्य का साथ देगी। लेकिन अगर भाजपा इसी चरह दोहरा चरित्र प्रदर्शित करती रही,उसकी विश्वसनीयता रसातल को चली जाएगी और मतदाता को मजबूरन नए विकल्प तलाशने पडेंगे।
भोजशाला के घटनाक्रम में मुख्य रुप से चार पक्ष हैं जिन्हे इस मसले का निराकरण करना है। पहला पक्ष बहुसंख्यक हिन्दू समाज का है,जिसे आजादी के बाद से अब तक सत्ताधीशों की उपेक्षा झेलना पडी है और अल्पसंख्यकों के वोट बैंक के दबाव में अत्याचार भी सहना पडे है। दूसरा पक्ष उन गिने चुने मु_ी भर विघ्रसंतोषी तत्वों का है,जो अल्पसंख्यक होने का स्वांग रच कर सद्भाव को सदा बिगाडने में लगे रहते है। तीसरा पक्ष पुलिस और प्रशासन का है,जो सरकार की इच्छा को हर कीमत पर लागू करने की तैयारियों का है और चौथा पक्ष राज्य सरकार का है,जिस पर कि प्रदेश की जनता ने लगातार तीसरी बार प्रदेश को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है।
इन चार पक्षों की पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें,तो कई रोचक तथ्य सामने आते है। पहला मजेदार तथ्य तो यही है कि आज जो हिन्दूवादी संगठन और सरकार आमने सामने खडे नजर आ रहे है,अभी कुछ ही दिनों पहले चुनाव तक दोनो साथ साथ थे। सरकार में शामिल नेता अपने आप को हिन्दूत्व वादी दिखाने की होड में लगे हुए थे। लेकिन जैसे ही समय गुजरा इन सब का चरित्र ही बदल गया। आज भाजपा के वे तमाम नेता ठीक वही तौर तरीके अपना रहे है,जिन्हे वे स्वयं कभी छद्म धर्मनिरपेक्षता और सूडो सैक्यूलरिज्म कहा करते थे।
मुद्दा बेहद सीधा सा है। लेकिन सरकार का दिमाग चूंकि पूरी तरह छदम धर्मनिरपेक्षता के हिसाब से चलता है इसलिए उन्हे सीधी सी बात भी समझ में नहीं आती। जब भाजपा विपक्ष में रहती है,तब भाजपा नेताओं के मुताबिक छदम धर्मनिरपेक्षता का अर्थ बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भावनाओं को आहत करना,उनके हितों के खिलाफ निर्णय करना,अल्पसंख्यक समुदाय की अनुचित मांगों को भी तत्काल स्वीकार करना आदि होता है। प्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा भोजशाला मामले में लिए जा रहे निर्णयों को देखें तो यही सबकुछ नजर आएगा।
भोजशाला प्रकरण को देखें,तो ध्यान में आता है कि मामला बेहद सीधा है। भोजशाला में मन्दिर भवन होने के बेहिसाब प्रमाण मौजूद है,जो किसी सामान्य व्यक्ति को भी नंगी आंखों से नजर आ जाते है। लेकिन सरकार में बैठे मंत्रियों और जिम्मेदारों की आंखों पर सरकार में जाते ही छदम धर्मनिरपेक्षता का जो पर्दा पडता है,उसकी वजह से उन्हे ये प्रमाण नजर ही नहीं आते। यही नहीं,भोजशाला में नमाज की जिद पकड कर बैठे गिने चुने विघ्रसंतोषियों को सख्ती से समझाने में सरकार पूरी तरह लाचार है। सरकार की समझदारी का एक और नमूना देखिए। अल्पसंख्यकों का एक छोटा सा समूह भोजशाला में नमाज पढने की जिद पकडता है,वह तो सरकार के लिए महत्वपूर्ण है,लेकिन राष्ट्रवादी मुस्लिमों का एक बडा समूह जब यह कहता है कि भोजशाला मन्दिर है,वहां नमाज नहीं पढी जा सकती। सरकार को इस समूह की बातें महत्वहीन लगती है। वह इन बातों पर ध्यान ही नहीं दे पाती और उन विघ्र संतोषियों पर अपना ध्यान लगाए बैठी रहती है,जिनका अपने समुदाय में ही कोई महत्व नहीं है।
प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यो होता है? इसका उत्तर सरकार चला रहे लोगों की समझ की कमी के रुप में सामने आता है। वे जिन मुद्दों को विपक्ष में रहते हुए सही बताते थे और जिन मुद्दों के लिए मतदाताओं ने उन्हे वोट देकर सत्तासीन किया था,सरकार में आते ही उन्हे वे सारे मुद्दे गलत लगने लगे है। सिंहासन पर आसीन होते ही छदम धर्मरिपेक्षता का भूत उन्हे अपनी चपेट में ले लेता है। वे समझ ही नहीं पाते ही धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिन्दू विरोध या मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं है। वे भूल जाते है कि सत्ता में होने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि आंखों देखी सच्चाई को झूठला दिया जाए। सरकार में होने का अर्थ यह होता है कि विवाद की स्थिति में तथ्यों के आधार पर न्याय किया जाए,ना कि समुदाय विशेष के दबाव में आकर तथ्यों को झुठलाया जाए और मामलों को न्यायालय पर ढोल कर पीछा छुडा लिया जाए।
सत्तारुढ पार्टी के अतिविद्वान नेतृत्वकर्ताओं को समझ लेना चाहिए कि काठ की हाण्डी एक बार ही चूल्हे पर चढती है। मतदाताओं ने उन्हे इसलिए वोट दिए थे,कि मतदाता यह मानते थे कि भाजपा छदम धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यकों के साथ अन्याय नहीं करेगी और सत्य का साथ देगी। लेकिन अगर भाजपा इसी चरह दोहरा चरित्र प्रदर्शित करती रही,उसकी विश्वसनीयता रसातल को चली जाएगी और मतदाता को मजबूरन नए विकल्प तलाशने पडेंगे।