November 20, 2024

धारा 370 तोड़ने का काम नागपंचमी पर जहरीले दांत का तोड़ना

प्रकाश भटनागर

अब यह चलन कम हो गया है। नागपंचमी पर ऐसा बहुत हुआ करता था। जहरीले सांप को पकड़कर उसके दांत निकाल दिए जाते थे। वह बहुत क्रूरता का परिचायक था। लेकिन इस नागपंचमी पर कई सांपों के जहरीले दांत तोड़ने का जो काम किया गया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए, वह कम ही है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 नकारा करना सचमुच सत्तर साल से अधिक पुराने जहर के खात्मे वाला कदम ही है।

राज्यसभा में आज जिस समय गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा और अंबिका सोनी, आदि कांग्रेसियों के नाम पुकारे गये, तब सामने आयी खामोशी बहुत कुछ कह रही थी। साफ है कि इन महानुभावों ने इसलिए कुछ नहीं बोला कि उनके पास बोलने को कुछ था ही नहीं। आखिर क्या बोल पाते ये सब? यह कि जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला की घातक कैमिस्ट्री के चलते जो कुछ हुआ, वह सही था! लिहाजा यही बेहतर समझा गया कि सदन से बहिर्गमन कर दिया जाए।

कश्मीर की यह समस्या उस फुंसी की तरह है, जिसे बढ़-बढ़कर कैंसर हो जाने दिया गया। कबायली हमले के बाद पाकिस्तान की सरहद पार करने से भारतीय सेना को रोकना तत्कालीन शासन की वह कमजोरी थी, जिसका कालांतर में पाकिस्तान सहित अलगाववादियों तथा देश-विरोधियों ने भरपूर फायदा उठाया। जिसका खामियाजा इस राज्य की आबादी, खासकर कश्मीरी पंडितों ने इसे बहुत सहा। इस सबके चलते कालांतर में इस राज्य के हालात लगातार खराब होते रहे। लेकिन ताज्जुब है कि केंद्र में आयी किसी भी पूर्ववर्ती सरकार ने यह हिम्मत नहीं दिखायी कि मुसीबत की जड़ को काटकर अलग कर दिया जाए। ऐसा तब भी नहीं किया गया, जब यह साफ था कि इस प्रदेश को मिले विशेष दर्जे का अनुचित लाभ भारत-विरोधी मानसिकता के प्रचार-प्रचार के लिए उठाया जा रहा है।

सारा देश जानता था कि घाटी में बहुत कुछ गलत संचालित किया जा रहा है। कश्मीरियत की आड़ में ऐसा विषय संचारित किया जा रह है, जो अनुच्छेद 370 की सदाशयताओं को झुलसाता चला जा रहा था। खास बात यह कि इस राज्य में इस सबके चलते जो कुछ हुआ, उसका नतीजा वहां भयावह समस्याओं के रूप में ही सामने आया। अलगाववादी आर्थिक तथा सामाजिक रूप से लगातार मजबूत हुए। राजनेता इस प्रदेश के हित की बात के नाम पर खुद के हित साधते चले गये। केंद्र में आये हाकिमों ने वोट बैंक की खातिर इस सबसे नजरें चुराने का क्रम जारी रखा। लेकिन नरेंद्र मोदी ने वह किया, जो कहा था। तीन तलाक के खिलाफ कानून के बाद कश्मीर से संबंधित यह विधेयक एक ऐसा काम है, जिसे करने के लिए यकीनन 56 इंच के सीने की ही दरकार है।

पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती, नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला तथा इस राज्य के अन्य क्षेत्रीय दलों का गुस्सा वाजिब है। क्योंकि यह कदम उठाकर मोदी ने उनके सियासी रोजगार पर लात मार दी है। अलगाववादी यूं ही एक्सपोज होते जा रहे थे। स्वेटर के ऊन की तरह उनकी करतूतों को उधेड़कर सामने आने का सिलसिला पिछले कुछ समय से चल ही रहा था। अब वह पूरी तरह लावारिस हो गये हैं। उन्हें अपने उस आका का ही सहारा है, जिसे पाकिस्तान कहते हैं। वही पाकिस्तान, जो खुद ही दिमागी तथा आर्थिक जहालत का शिकार होकर दुनिया के सामने घुटने टेकने पर मजबूर हो चुका है।

आज सही मायनों में पहली बार महसूस हुआ है कि बंटे हुए कश्मीर का जो हिस्सा भारत का जम्मू-कश्मीर राज्य कहलाता है, वो देश का अविभाज्य अंग है। अलगाव से भरे कश्मीर राज्य को केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा देना वाकई सरकार का एक सही कदम हैं। इस समय जो कश्मीर है, उसका एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर रहना भी देश के हित में नहीं है। हां, हालात अनुकूल होने के बाद इसे एक बार फिर पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जा सकता है। आज मन में इस आभास ने गाढ़ा होना शुरू कर दिया है कि केंद्र में सही मायनों में सरकार जैसी किसी संस्था का अस्तित्व है। तमिलनाडु से सांसद वायको ने आज राज्यसभा में आशंका जतायी कि इस घटनाक्रम से कश्मीर के हालात कोसोवो जैसे बिगड़ सकते हैं।

बता दें कि कोसोवो बाल्कन क्षेत्र में स्थित एक विवादास्पद क्षेत्र है। यह स्वघोषित राज्य कोसोवो गणराज्य द्वारा नियंत्रित है, जिसका कमोबेश पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण है, केवल कुछ सर्ब क्षेत्र को छोड़कर। हो सकता है कि वायको की आशंका कुछ हद तक सही साबित हो, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मामला उस अनुच्छेद को हटाने का है, जिसके अनुचित उपयोग के चलते कश्मीर पहले ही कोसोवो बनने की कगार पर पहुंच चुका था। शरीर के किसी हिस्से में जमे मवाद को निकालने के लिए चीरा लगाना ही पड़ता है। अनुच्छेद 370 से उपजा मवाद इस महान लोकतंत्र को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। इसके लिए जो चीरा लगाया जाना था, मोदी सरकार ने वो लगा दिया है। अब ज्यों ही जख्म सूखेगा, कुछ दर्द और कुछ राहत के बाद आप पाएंगे कि कश्मीर समस्या नामक मर्ज कहीं गुम हो गया है। देश में जिस तरह की प्रतिक्रिया है, उससे साफ है कि लोकतंत्र का संख्या बल संसद के अलावा भी सड़क पर सरकार के साथ है।

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