दुविधा से उबरने का समय
– तुषार कोठारी
अब लगता है कि देश के दुविधा से निकलने के दिन नजदीक आ रहे है। लम्बे अरसे से देश दुविधा में जी रहा था। दुविधा हर स्तर पर थी। राजनैतिक पार्टियों से लगाकर नेताओं तक और बुध्दिजीवियों से लगाकर जनता तक हर कोई दुविधाग्रस्त नजर आ रहा था। कांग्रेस इस दुविधा में थी कि कैसे युवराज को सामने लाया जाए,तो भाजपा इस दुविधा में थी कि कैसे हिन्दूवादी छबि को वापस हासिल किया जाए? बुध्दिजीवियों की दुविधा सेक्यूलरिज्म और सांप्रदायिकता के मुद्दे पर थी तो जनता इन सभी की दुविधा देख कर दुविधा ग्रस्त हो रही थी। लेकिन अब लगता है कि परिस्थितियां खुद ही दुविधा से उबारने का समय सामने ला रही है।
पिछले दो दशकों के कालक्रम पर नजर डाली जाए,तो पता चलता है कि इस दुविधा ने सभी का नुकसान किया। बात शुरु करें,भारतीय राजनीति के उस नए दौर से,जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में कई दलों का साझा मोर्चा बनाने की शुरुआत हुई थी। भारतीय राजनीति में अछूत घोषित की गई भाजपा ने सत्ता के केन्द्र में आने के लिए अपने स्थाई मुद्दों राम जन्मभूमि और धारा 370 को दरकिनार कर एनडीए का गठन किया और आखिरकार अटल जी के नेतृत्व में सरकार बना ही ली। एनडीए की सफलता के पहले तक कांग्रेस इसे भानुमति का कुनबा कहती रही और नकारती रही। अटल जी ने छ:-साढे छ: साल राज किया,लेकिन मुद्दों को लेकर दुविधा बनी रही। जिस सरकार के लिए भाजपा ने अपने स्थाई मुद्दे छोडे थे,उस भाजपा के वोटरों ने भाजपा का साथ छोड दिया और अटल जी का शाइनिंग इण्डिया मुंह के बल जमीन पर आ गिरा। सरकार से बाहर आने के बावजूद भाजपा को मुद्दों पर उपजी अपनी दुविधा से बाहर निकलने में पूरे दस साल लग गए। भाजपा के नेता समझते रहे कि एनडीए को बनाए रखने के लिए अपने स्थाई मुद्दों को छोडने के बावजूद उनका जनाधार बचा रहेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जो मतदाता,मुद्दों की वजह से भाजपा से जुडे थे,वे दूर होते चले गए। मतदाताओं ने भी सोचा कि जब राम जन्मभूमि,और धारा ३७० जैसे मुद्दों पर बात ही नहीं होना है,तो कांग्रेस ही क्या बुरी? उधर कांग्रेस के नेता इस दुविधा में पडे रहे कि सोनिया जी के तथाकथित त्याग और गांधी जी,नेहरु जी के नाम वोट खींचने में सक्षम है। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि असल में यूपीए की सफलता का राज भाजपा की असफलता में छुपा है। ऐसा समझने के लिए उनके पास समय भी नहीं था। तमाम कमजोरियों के बावजूद वे लगातार दो बार केन्द्र की सत्ता पर काबिज हो गए थे। हांलाकि केन्द्र सरकार के चालू कार्यकाल के बीच तक आते आते कांग्रेस नेताओं के समझ में आने लगा कि मनमोहन सिंह चाहे लगातार दो बार प्रधानमंत्री के सर्वोच्च पद पर आसीन हो गए हों, लेकिन भारतीय मतदाता के मन के सिंहासन पर उनकी कोई जगह नहीं है। इस दुविधा से दूर होते कांग्रेसी अब इस दुविधा में उलझ गए कि आखिरकार उनका तारणहार गांधी नाम ही बनेगा। विदेशी मूल के मुद्दे से निपटने के साथ साथ गांधी नाम का पूरा उपयोग करने का साहस कांग्रेस के लोग अभी कुछ दिन पहले ही जुटा पाए और आखिरकार उन्होने युवराज की ताजपोशी कर ही डाली। हांलाकि कांग्रेस की थोडी दुविधा अब भी बाकी है। अब तक अधिकारिक तौर पर युवराज को भावी प्रधानमंत्री घोषित नहीं किया जा सका है।
भाजपा के नेता दस साल का वनवास भोगने के बाद जब जब प्रदेशों के नतीजे देखते,तो उन्हे ध्यान में आता कि जिन प्रदेशों में भाजपा अकेले के दम पर लडती रही है वहां के मतदाता उसका साथ देते रहे है। मतदाताओं को यह भरोसा जरुर रहता है कि भाजपा मुद्दों वाली पार्टी है। गुजरात ने तो भाजपा नेताओं की आंखे ही खोल दी। भाजपा के नेताओं की यह दुविधा धीरे धीरे दूर होने लगी कि एनडीए इतना अनिवार्य नहीं है कि जितनी कि पार्टी की राष्ट्रवादी छबि। यह दुविधा दूर हुई तो आखिरकार पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकारने के लिए राजी होने लगे। अब देखिए परिस्थितियों ने कैसी करवट बदली। दो बडी दुविधाएं दूर होते ही भारतीय राजनीति एक नए आयाम में प्रवेश करने लगी। भाजपा ने सिर्फ नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी सौंपी,कांग्रेस नहा धो कर मोदी के पीछे पड गई। न सिर्फ कांग्रेस बल्कि अन्य तमाम दल,जिन्हे अल्पसंख्यक के वोटों के भरोसे सत्ता हासिल करने में महारत हासिल रही है,वे सभी मोदी को खलनायक साबित करने पर तुल गए। वे भी इस दुविधा से उबर गए कि अल्पसंख्यक वोटों को रिझाने के लिए पूरी बेशर्मी कैसे दिखाई जाए? पहले तो इस तरह की पार्टियों में थोडी से शरम थी कि तुष्टिकरण ढंके छुपे ढंग से करती थी,लेकिन जैसे ही मोदी का नाम सामने आया,वे भी लाज लिहाज छोड कर तुष्टिकरण में जुट गई।
इस सबका सामूहिक नतीजा देखिए। पार्टियों ने सारी दुविधा त्याग कर अपनी लाइन आफ एक्शन तय कर ली है। एक ओर भाजपा है,जिसने मोदी का नाम आगे लाकर मतदाताओं को सिर्फ संकेत भर दिया कि आने वाले समय में भाजपा अपने पुराने मुद्दों को फिर से अपना लेगी। दूसरी ओर कांग्रेस उसके सहयोगी दल और जेडीयू जैसी पार्टियां है,जिन्हे लगने लगा कि वे जितना मोदी को कोसेंगे,उतने ही अल्पसंख्यक वोटों में वृध्दि होती जाएगी। राजनीति में आए इस परिवर्तन ने देश के कई स्वनामधन्य बुध्दिजीवियों को भी दुविधा से उबरने का मौका दे दिया। जैसे ही बुध्दिजीवी दुविधा से उबरे उनकी सच्चाईयां सामने आने लगी। भारत रत्न ले चुके एक अर्थशास्त्री को भी अल्पसंख्यकों का दुख सताया तो प्रेस परिषद से जुडे पूर्व न्यायाधीश को भी हिन्दू राष्ट्रवादी होने की बात बुरी लगने लगी।
इलेक्ट्रानिक मीडीया,सोश्यल मीडीया और अन्यान्य समाचार माध्यमों के कारण पहले की तुलना में कई गुना जागरुक हो चुके मतदाताओं की दुविधा भी इन घटनाओं को देख देख कर दूर हो चुकी है। मतदाता को लगने लगा है कि जाति धर्म के उलाहनों पर वोट देते रहने से देश प्रदेश और उनका खुद का कोई उध्दार नहीं हो सका है। मतदाताओं का एक बडा वर्ग अब सेक्यूलरिज्म और सांप्रदायिकता जैसे फर्जी शब्दों के जंजाल से उबरने लगा है। अप्रत्यक्ष प्रणाली से होने वाले भारतीय संसद के चुनाव अब ऐसा लग रहा है जैसे अमरीकन प्रणाली के असर में आ गए है। मतदाता,राष्ट्रीय नेता के आधार पर वोटिंग करने की मानसिकता बनाने लगे है। विचार कीजिए,कि जब मतदाता अमरीकन प्रणाली की तर्ज पर मतदान करने जाएंगे,तो किसे पसन्द करेंगे,एक दब्बू युवराज को या एक डेढ दशक से सफल एक जमीनी नेता और सफल मुख्यमंत्री को। इस सवाल का जवाब जल्दी ही सामने आएगा।