तिलकधारी मियाँ- सुबराती खाँ
(सांप्रदायिक एकता की अनूठी कहानी)
– डाॅ. डी. एन. पचैरी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का गंगा यमुना के बीच का मैदानी इलाका जो अत्यधिक उपजाऊ है. यूँ तो भारत की कुल आबादी का 20 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में है, उसमें भी जनसंख्या का घनत्व गंगा यमुना के मैदानी इलाको में ज्यादा है. आज से 50-60 वर्ष पूर्व जब कंक्रीट के जंगल खड़े नही हुए थे तब इन मैदानो में वर्ष भर हरियाली रहती थी. और इन्ही हरे भरे इलाके में मेंरा भी एक छोटा सा गाँव था जिसकी आबादी बमुश्किल 1000 रही होगी. गाँव में सभी जाति-धर्म के लोग रहते थे कुछ घर मुस्लमानों के भी थे इनमें सुबराती खाँ और उनके खानदान का बहुत नाम था. सुबराती खाँ 2 भाई थे बड़े भाई सुबराती खाँ और छोटे रमजानी खाँ. दोनो के पास जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े थे जिन में फसल लगा कर गुजर बसर होती थी. यह आमदनी कम होने के कारण रमजानी खाँ ने चुंडि़यों का धंधा अपना रखा था जबकि सुबराती खाँ ने संगीत को अपनाया.
यूँ तो कुछ मुस्लमान तिलक लगाते होंगे और आजकल तो गणेश जी की स्थापना भी बहुत से मुस्लमान करते है किंतु उस समय धार्मिक कट्टरता बहुत अधिक थी. ऐसे समय सुबराती खाँ रोज तिलक लगाते थे और जिस दिन तिलक नही लगाते थे तो हम समझ लेते थे कि आज जुम्मे का दिन या शुक्रवार है. जुम्मे के दिन सुबराती खाँ को मस्जिद में नमाज पढ़ने जाना होता था इसलिए वो तिलक नही लगाते थे हम बच्चे लोग प्रायमरी में पढ़ते थे और हमें इसी दिना का इंतजार रहता था। इससे हम अंदाजा लगा लेते थे कि कल स्कूल और जाना है और फिर हमारा प्यारा छुट्टी का दिन इतवार आ जाता था. हमारी इच्छा थी कि हफ्ते में 3 दिन इतवार होना चाहिए किंतु ये बाल बु़ि़़़़़द्ध का सोच थी.सुबराती मियाँ तिलक क्यों लगाते थे इसके पीछे एक छोटी सी घटना है.
सुबराती मियाँ बहुत अच्छी ढोलक बजाते थे. ढोलक बजाने में उनका दूर दूर तक नाम था और नौटंकी, रामलीला, होली के नाच और भी अनेक अवसरो पर इन्हें दूर दूर गाँव में ढोलक बजाने के लिए बुलाया जाता था यूँ तो ढोलक बहुत से लोग बजाते थे पर सुबराती खाँ की बात ही कुछ और थी कोई भी लय ताल सुन कर बता सकता था कि ढोलक सुबराती खाँ बजा रहें है जैसे क्रिकेट सभी खेलते है किंतु सचिन तेंदूलकर ने भारत रत्न प्राप्त कर लिया. यदि सुबराती खाँ फिल्म उघोग में होते तो पूरे भारत में विख़्यात हो जाते. अनेको हीरे कही के कही पड़े रह जाते और सामान्य आदमी के लिये वे काँच के टुकड़े है किंतु किसी जौहरी के परखने पर ही काँच और हीरे में अंतर मालूम पड़ता है. सुबराती खाँ भी ऐसे हीरे थे जो संगीत की दुनिया में नाम कमा सकते थे पर एक छोटे से गाँव में अपनी कला दिखा कर ही रह गए.
सुबराती खाँ ने संगीत को अपनी आमदनी का ज़रिया बनाया, तो बड़े बेटे बशीर खाँ को हारमोनियम सिखाया तो उससे छोटे जुम्मा खाँ को ढोलक बजाना. तीसरा बेटा सुलेमान जो आठ-नौ साल का था हमारे साथ प्रायमरी में पढ़ता था. उसकी आवाज बहुत मधुर थी और सुबराती खाँ उसे गाने का रियाज कराते थे. चैथे बेटे ज़ुबेद को मजहबी तालीम के लिए मामु के पास भेज दिया उन्ही दिनो 1953-54 में फिल्म नागिन रिलीज हुई थी जिसका गाना ‘तन डोले मेंरा मन डोले’ शहर-शहर, गाँव-गाँव और गली-गली गूँज रहा था सुबराती खाँ इस गाने को सुलेमान से गवाते थे जिसकी आवाज लता मंगेशकर को भी मात करती थी. इस गाने में बीन की धुन हाथ से बजाने वाले वाद्य यंत्र से निकाली गई है. सुबराती खाँ ने इसमें इतना सुधार किया कि वास्तव में एक बीन बजाने वाले को ही रख लिया जब सुलेमान अपनी मीठी आवाज में ‘तन डोले मन डोले’ वाला गाना गाता था तो सुबराती खाँ की ढोलक बश़ीर खाँ का हारमोनियम और बीन की धुन से ऐसा समां बंधता था कि लोग झुमने और नाचने लगतेे थे. एक-एक और दो-दो रूपये की बारिश सी होती थी उस समय एक या दो रूपये बहुत मायने रखते थे सुबराती खाँ चाँदी काट रहे थे.
न जाने किस की नज़र लगी कि सुलेमान बीमार पड़ गया. मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की. पहले तो मस्जि़द के बडे़ मौलवी साहब से झाड़ फूंक कराई कोई फायदा नही हुआ तो हकीम हीरालाल जी का इलाज चला किंतु सुलेमान की हालत बिगड़ती गई. सुबराती खाँ के आंसू नही थम रहे थे. आमदनी तो अपनी जगह उन्हे बेटे के चले जाने का डर सता रहा था. सुबराती खाँ पंडित टीकाराम शर्मा के पास पहुंचे. पंडित जी का पक्के राग, रागिनियाँ गाने और ख़्याल गायकी में बहुत नाम था. उनकी गायकी के समय अच्छे-अच्छे सारंगी वादक हाथ टेक देते थे पंडित टीकाराम ने सुबराती खाँ को मंदिर में भगवान की शरण में जाने की सलाह दी, क्योंकि हारे हुए का अंत में भगवान ही एकमात्र सहारा होता है मंदिर में भगवान के सामने भजन गाने का प्रोग्राम रखा गया सुलेमान को मूर्ति के सामने लेटा दिया गया. बशीर खाँ ने हारमोनियम , सुबराती खाँ ने ढोलक बजाई और पंडित जी ने लोक गीतो में गाया जाने वाला भजन ‘ मेंरी लाज रखो गिरधारी, मैं दुखिया शरन तुम्हारी’ उठाया. लगातार करीब 1 घंटे तक यह भजन चला. विलम्बित से चल कर जब द्रुत लय में भजन पहुँचा तो ऐसा लगा जैसे कोई गाड़ी तेज गती से दौड़ रही है। सुबराती खाँ इतनी तेजी से ढोलक बजा रहे थे कि आँखो में आंसू और अंगुलियो में खूनं छलछलाने लगा. शायद इसी को चमत्कार कहते है कि सुलेमान ने आँखे खोल दी और पानी मांगा. ये चमत्कार ही हमारी धार्मिक आस्था के संबल है और इन्ही के कारण धर्म कर्म में रूचि बढ़ती है. लोगो ने भगवान के नाम का जयकारा लगाया और सुबराती खाँ ने पुजारी जी के पाँव पकड़ लिए. पुजारी जी ने सुलेमान और सुबराती खाँ को तिलक लगाया शेष उपस्थित लोगो को भी तिलक लगाया गया. उस दिन से सुबराती खाँ भगवान के सच्चे भक्त बन गए. रोज सुबह किसी भी काम पर जाने के पूर्व नहा धोकर पुजारी जी से तिलक जरूर लगवाते थे इसलिए गाँव वाल उन्हें तिलक धारी मियाँ कहते थे. पहले तो कट्टर पंथी मुल्ले मौलवियों ने एतराज़ उठाया किंतु सुबराती खाँ ने तिलक लगाना बंद नही किया. सुबराती खाँ की वजह से तमाम मुस्लमानो का बहुत नाम था, मुस्लमानो की बहुत इज्जत थी. उन्होंने सोचा कि यदि कहीं सुबराती खाँ सोबरन सिंह बन गए तो जाति का नाम खराब होगा अतः तिलक पर ऐतराज़ उठाना बंद कर दिया. सुबराती खाँ ने इतना सुधार किया कि जुम्मे या शुक्रवार को उन्हे मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाना होता था अतः उस दिन तिलक नही लगाते थे. हमें इसी दिन का इंतजार रहता था जिससे इतवार की छुट्टी का पता चल जाता था.
काश! कि सभी मुस्लिम भाई कट्टरता छोड़ सभी धर्माे का आदर करे और हिंदुस्तान को अपना मादरे वतन समझे तो देश मेें अमन चैन कायम होने में ज्यादा समय नही लगेगा.
डाॅ. डी. एन. पचैरी
4 ‘ऋचायन’ आकाशवाणी केन्द्र के सामने
दो बत्ती, रतलाम (म.प्र.)