चुनावी चख-चख-4
बिना हिम्मत नहीं उध्दार
(चौथा दिन-14 नवंबर)
इस बार का चुनाव बडा अनोखा है। पैलेस रोड वाले सेठ से लोग नाराज थे। इस चक्कर में फूल छाप पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। टिकट काटने के बाद उठे बवाल ने साबित कर दिया कि फूल छाप पार्टी के कार्यकर्ता सेठ के पीछे ही चलते है। अब हालत ये है कि चुनाव लड रहे तीनों उम्मीदवार सेठ जी के नाम का उपयोग कर रहे है। सेठ जी किस पर हाथ रखेंगे,फिलहाल कोई नहीं जानता। बिना पार्टी वाले दादा ने पूरी बेशर्मी से अपने मंच पर सेठ का नाम लिख मारा। फिर पंजे वाली गिन्नी दीदी क्यो पीछे रहती। उनके यहां भी सेठ के नाम वाले नारे बन गए।
स्टेशन रोड बनाम पैलेस रोड
स्टेशन रोड वाले भैयाजी शायद स्थितियों का अंदाजा सही ढंग से नहीं लगा पाए थे। उन्हे पता होता कि ये सब होने वाला है,तो वे पहले ही कोई तैयारी कर लेते। चुनाव के पहले भैयाजी बेहद बडे नेता थे। पैलेस रोड से दुतकारे गए तमाम छुटभैये नेता स्टेशन रोड पर जाकर घण्टे घडियाल बजाते थे। भैयाजी इन छुटभैय्यों को देखकर खुश होते थे,कि उनका जनाधार बढ रहा है। उन्हे अंदाजा नहीं था कि उनके पास आने वालों में से ज्यादातर ऐसे थे जो अपने मोहल्लो तक में चुनाव नहीं जीत पाए थे। अब इन्ही के भरोसे उन्होने टिकट ले लिया था। यह तो उन्हे बाद में पता चला कि चुनावी नैया पार करने के लिए सेठ जी की मदद जरुरी है। मदद मिलेगी या नहीं,मिलेगी तो कितनी मिलेगी? इन सारे सवालों का जवाब तो बाद में सामने आएगा। फिलहाल कहानी सिर्फ इतनी है कि पार्टी का बूथ स्तर तक का तंत्र सक्रीय नहीं हो पा रहा है। मोहल्लों में जनसम्पर्क करके फोटो और खबरें बांट देने से वोट नहीं मिलते। कुल मिलाकर फूल छाप की कहानी सेठ के भरोसे है।
गरीब की हिम्मत
कई सालों पहले सेठ जी के एक चुनाव में नारा लगा था गरीब की हिम्मत वाला। बिना पार्टी वाले झुमरु दादा ने पूरी बेशर्मी से इस नारे पर कब्जा कर लिया है। झूठ बोलने में महारत हासिल कर चुके झुमरु दादा को ये भी उम्मीद है कि सेठ का नाम इस बार उनकी नैया पार लगा सकता है। इसलिए अपनी पहली ही सभा में दादा ने सेठ की जमकर तारीफ की। इस उम्मीद में कि फूल छाप पार्टी के नाराज कार्यकर्ता,इस बार दादा के आटो में सवार हो जाएंगे। इतना ही नहीं दादा ने तो खुलकर उन लोगों को अपने साथ आने का न्यौता भी दे डाला।
बहन जी को भी हिम्मत का सहारा
जब चुनावी मैदान में मौजूद दो लोग सेठ के भरोसे नजर आने लगे तो पंजा छाप वाली बहन जी कैसे पीछे रहती। उन्होने भी नारे बना डाले कि शहर का विकास करने की हिम्मत उन्ही के पास है। बहन जी और उनके लोगों को भी वही उम्मीद है कि जो मजमा चौमुखीपुल पर जमा हुआ था,उसका फायदा उन्हे मिल जाएगा। कुल मिलाकर ये तीनों ही सेठ के भरोसे नजर आ रहे है।
किसकी होगी नैया पार?
लाख टके का सवाल ये है कि नैया किसकी पार होगी?पैलेस रोड पर फूल छाप पार्टी का दफ्तर भी है। लेकिन नाम घोषणा के बाद से वहां ताला जडा हुआ था। दफ्तर के सामने ही सेठ जी का घर है। वहां से अब तक कोई फरमान जारी नहीं हुआ है। फूल छाप वालों ने जब उन्हे बुलाया तो उन्होने जमकर खरी खोटी सुनाई। कार्यकर्ताओं को सम्मान देने का मुद्दा उठाकर उन्होने ये भी जता दिया कि वे भी आसानी से राजी होने वाले नहीं है।
जिन्दाबाद-मुर्दाबाद
पंजा छाप पार्टी के सूबे के सदर जब शहर में नमूदार हुए तो उन्हे जिन्दाबाद से पहले मुर्दाबाद सुनना पडा। मुर्दाबाद के ये नारे भी उन्होने वहां सुने,जहां पिछले तीन चार सालों से उनके लिए पलक पांवडे बिछाए जाते रहे थे। पंजा छाप पार्टी के शहर अध्यक्ष को सूबे के सदर से अपनी नजदीकी पर भारी भरोसा था। ये भरोसा तब तक सही साबित हुआ जब पंजा छाप पार्टी की लिस्ट में उनका नाम भी आ गया। लेकिन ये खुशी थोडी ही देर कायम रही और पंजा छाप पार्टी ने नाम बदल कर बहन जी को टिकट दे दिया। इतनी बेइज्जती होने के बाद शहर अध्यक्ष को अपनी नाराजगी तो दिखाना ही थी। जैसे ही सूबे के सदर वहां पंहुचे,मुर्दाबाद के नारों से उनका सामना हुआ। मुर्दाबाद के नारे सुनने के बाद वे पंजा छाप के कार्यकर्ता सम्मेलन में पंहुचे। यहां उनका मुड थोडा सही हुआ। यहां जिन्दाबाद के नारे सुनाई पडे। अब चर्चा यह है कि मुर्दाबाद के नारों की कीमत शहर अध्यक्ष को कैसे चुकानी पडेगी?