November 8, 2024

गठबन्धन धर्म बडा या राष्ट्रधर्म….?

-तुषार कोठारी

अब से करीब छब्बीस साल पहले काश्मीर में मेडीकल की एक 23 वर्षीय छात्रा का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था। उस युवती के पिता ने अपहरण से मात्र पांच दिन पूर्व इस महान भारत देश के अत्यधिक महत्वपूर्ण गृह मंत्रालय का कामकाज सम्हाला था। इस युवती के अपहरण का ड्रामा छ: दिनों तक चला और आखिरकार अपनी जान की कीमत देकर सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकडे गए पांच आतंकियों को सरकार ने जेल से रिहा कर दिया। छ: दिनों बाद वह युवती सही सलामत अपने घर लौट आई थी। छब्बीस साल बाद उस युवती के पिता ने काश्मीर के मुख्यमंत्री का पद संभाला और पद संभालने के मात्र एक सप्ताह के भीतर दस लाख के ईनामी आतंकी को जेल से रिहा कर दिया।
कुछ याद आया। वर्ष 1989 की 2 दिसम्बर। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने पद और गोपनीयता की शपथ ली थी और भारतीय संविधान का पालन करने की कसम भी खाई थी। पद ग्रहण करने के मात्र छ: दिनों के भीतर 8 दिसम्बर 1989 को उनकी छोटी पुत्री रुबिया सईद का अपहरण हो गया। देश को कभी पता नहीं चला कि उनकी पुत्री को आतंकियों के कब्जे से निकालने के लिए पुलिस या सैनिक कार्यवाही के बारे में कोई विचार हुआ भी था या नहीं। महज छ: दिनों के भीतर भारत सरकार ने पांच खूंखार आतंकवादियों, जेकेएलएफ का एरिया कमाण्डर शेख अब्दुल्ला हमीद,मकबूल बट का छोटा भाई गुलाम नबी बट,नूर मोहम्मद कलवाल,मुहम्मद अलताफ और जावेद एहमद झरगर को जेल से रिहा कर दिया था। जब ये आतंकी जेल से छूटे अलगाववादियों ने जमकर खुशियां मनाई और इन्हे बाकायदा जुलूस बनाकर जेल से ले जाया गया।
छब्बीस साल बाद वर्ष 2015 में उसी शख्स ने राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभालते ही दस लाख के ईनामी आतंकी मसर्रत आलम को रिहा कर दिया। छब्बीस साल पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री थे और जिन आतंकियों को रिहा किया गया था,वे काश्मीर की जेल में बन्द थे। उस समय राज्य के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला थे। किसी कैदी को रिहा करना मुख्यमंत्री के हाथों में होता है। केन्द्रीय गृह मंत्री सीधे किसी कैदी को जेल से रिहा नहीं कर सकता। रुबिया सईद प्रकरण के कई सालों बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने यह रहस्योद्घाटन किया था कि रुबिया की रिहाई के बदले आतंकियों को छोडने के मामले में उनकी सरकार को बर्खास्त कर देने तक की धमकी दी गई थी। उन्हे कहा गया था कि यदि वे आतंकियों को रिहा नहीं करेंगे तो उनकी सरकार बर्खास्त कर दी जाएगी। इसी तरह पीपल्स पालिटिकल पार्टी पीपीपी के चेयरमेन हिलाल एहमद वार ने अपनी पुस्तक द ग्रेट डिसक्लोजर्स-सीक्रेट्स अनमास्क्ड में भी यह दावा किया था कि रुबिया के अपहरण का पूरा ड्रामा सईद ने अलगाववादियों के साथ मिलकर रचा था,ताकि आतंकियों को रिहा किया जा सके।
रुबिया के अपहरण के मामले में पांच आतंकियों को रिहा किए जाने के बाद काश्मीर में अपहरण और आतंकी वारदातों की बाढ आ गई थी। आतंकियों के हौसले बुलन्द हो गए थे और हजारों निर्दोष व्यक्तियों को अपनी जान गंवानी पडी थी।उस समय देश में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी,जिसे भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया था।
छब्बीस सालों के बाद आज केन्द्र में भाजपा की मजबूत सरकार है। जम्मू काश्मीर के विधानसभा चुनाव में भाजपा दूसरी सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी है और मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार में साझेदार है।
जब केन्द्र में अटल जी की एनडीए सरकार थी,अटल जी और भाजपा गठबन्धन धर्म की दुहाई देते रहते थे। भाजपा ने उस समय गठबन्धन धर्म के नाम पर अपने तमाम मुख्यमुद्दों को ताक पर रख दिया था। हांलाकि उस समय मामला देश चलाने का था,इसलिए इसे स्वीकार भी कर लिया गया था। लेकिन अब केन्द्र में भाजपा अपने बलबूते पर सत्ता में है। गठबन्धन धर्म की कोई मजबूरी नहीं है।
लेकिन भाजपा ने काश्मीर के मामले में गठबन्धन की मजबूरी खुद अपने गले में डाली है। गठबन्धन किया भी तो कैसा? भाजपा ने तो अनुच्छेद 370 का मामला फिर से ताक पर रख दिया। लेकिन इसके विपरित अप्रत्यक्ष तौर पर आतंकियों के मददगार मुफ्ती ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होने तो शुरुआत ही पाकिस्तान और आतंकवादियों को धन्यवाद देकर की। इस एकमात्र बयान से मुफ्ती का असली चेहरा सामने आ चुका था। भाजपा ने कडा रुख अपनाने की बजाय इस बयान से खुद को अलग कर लिया। मुफ्ती को इतने से भी संतोष नहीं हुआ। अब वे दस लाख के ईनामी आतंकी मसर्रत आलम को रिहा कर चुके है।
देश भर के फैले भाजपा के करोडों समर्थकों के लिए यह घटना दिल दहला देने वाली है। भाजपा के समर्थन वाली सरकार आतंकियों को रिहा कर रही है और रिहाई पर आतंकवादी का जुलूस निकाला जा रहा है। अगर इसके बाद भी कश्मीर में भाजपा सरकार चलाते रहने को राजी रहती है,तो यह देश के करोडों राष्ट्रवादी नागरिकों और भाजपा समर्थकों के साथ भाजपा का विश्वासघात होगा।
देश जानता है कि अब गठबन्धन धर्म की दुहाई नहीं दी जा सकती। काश्मीर राज्य की सरकार के लिए राष्ट्रहितों को दांव पर नहीं लगाया जा सकता। स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाली भाजपा के लिए तो यह डूब मरने का मुकाम है। भाजपा समर्थकों को आस बन्धी थी कि कश्मीर में अब भाजपा सत्ता में है तो वहां से निकाले गए पण्डितों और सिखों के अच्छे दिन आएंगे। वे अपने घरों को लौट सकेंगे। कश्मीर समस्या का राष्ट्रवादी शर्तो पर निराकरण होगा और अलगाववादियों को कुचला जाएगा। लेकिन ये सारे सपने इस एक सप्ताह में चूर चूर हो चुके है। देखना यह है कि सत्ता का नशा कितने दिनों तक भाजपा को अपने असर में रखता है? कब तक यह गठबन्धन सरकार चलती है और कितने आतंकी और अलगाववादी इससे लाभान्वित होते है?

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