क्या कर लेगा कोई और भी कांग्रेसाध्यक्ष…
प्रकाश भटनागर
अब लगभग यह साफ होता जा रहा है कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से विदा हो रहे हैं। उनकी जगह जो नए नाम सामने आ रहे हैं वे वास्तव में कांग्रेस अध्यक्ष होंगे या फिर परिवार के लिए सुविधाजनक अध्यक्ष? इस सवाल के जवाब में ही कांग्रेस का भविष्य छिपा हो सकता है। पिछले चालीस सालों में यह तीसरा मौका होगा जब कोई गैर गांधी कांग्रेस की कमान संभालेंगा। इमरजेंसी के बाद 1977 की जनता लहर में कांग्रेस की पराजय के बाद जब कांग्रेस में टूट हुई तो जो इंदिरा कांग्रेस अस्तित्व में आई थी, वो ही आज की कांग्रेस है। अब क्योंकि यह कांग्रेस इंदिरा गांधी की हो गई थी लिहाजा, ‘गेंद मेरी, बल्ला मेरा..कप्तान भी मैं ‘ वाला खेल कांग्रेस में शुरू हो गया।
इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी के बाद प्रधानमंत्री और कांग्रेसाध्यक्ष दोनों पद अपने पास रखे थे। उनकी हत्या के बाद प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष का दायित्व राजीव गांधी ने संभाला। जिस कांग्रेस में उसकी स्थापना के बाद से 1979 तक हर साल अपना अध्यक्ष चुना जाता था, उसमें पिछले चालीस सालों में राहुल गांधी केवल छठे अध्यक्ष हैं। इंदिरा और राजीव के बाद 1991 में दुर्घटनावश प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव ने भी दोनों पद एक साथ संभाले। 96 में वे हारे तो उन्हें अध्यक्ष पद से हटा कर उनकी जगह सीताराम केसरी को पार्टी की कमान दी गर्इं। सोनिया गांधी के राजनीति में आगमन के साथ महज दो साल में उन्हें अपमानित कर इस पद से हटा दिया गया। एक सौ चौतीस साल पुरानी इस पार्टी में सोनिया गांधी ने लगातार उन्नीस साल अध्यक्ष रह कर एक इतिहास बना दिया। और फिर उनके पुत्र की ताजपोशी के साथ उनकी पारी का समापन हुआ।
अब लगातार दो शर्मनाक हार के बाद अगर राहुल गांधी इस्तीफे पर अड़ गए हैं तो भी कांग्रेस में क्या बदलाव आने जा रहे हैं? बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र के दलित नेता सुशील कुमार शिंदे को राहुल गांधी की जगह नया अध्यक्ष बनाया जा सकता है। अब शिंदे की उम्र 77 साल की है। और जो भी बाकी नाम सामने आएंगे वे भी उम्र के आठवें दशक से कम में तो कोई नहीं है। अब सुशील कुमार शिंदे का चयन ऐसे ही हो सकता है, जैसे प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह का हुआ था। वे भी परिवार के आज्ञाकारी नेता हैं। महाराष्ट्र विधानसभा में पांच बार विधायक, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, केन्द्र सरकार में गृहमंत्री जैसे पदों की जिम्मेदारी निभा चुके शिंदे पिछले दोनों लोकसभा चुनाव हारे हैं। उनकी वफादारी का सबूत इसे माना जा सकता है कि जब महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख और शिंदे के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर घमासान मचा हुआ था तब कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें आंध्रप्रदेश में राज्यपाल बना कर भेज दिया था। विरोध में एक शब्द बोले बिना वे आंध्र प्रदेश चले गए। लिहाजा, उन्हें वफादारी का ईनाम मिला और 1999 में उन्हें पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़वाया गया। वे जीते तो एनडीए की अटल सरकार के दौरान भैरोसिंह शेखावत के सामने उन्हें उप राष्ट्रपति का चुनाव लड़वा दिया गया। बाद में यूपीए की सरकार के दस सालों के दौरान वे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे।
शिंदे की इस हाई प्रोफाइल के बाद भी यह सवाल तो है ही कि क्या महाराष्ट्र के बाहर भी सुशील कुमार शिंदे की कोई व्यापक पहचान है? जरूरत भी क्या है? कांग्रेस की पहचान तो देश भर में वैसे भी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से रहेगी ही। पार्टी के सर्वमान्य नेताओं में शुमार तो परिवार का रहेगा ही। यानि स्टाम्प के लिए एक अदद अध्यक्ष चाहिए और परिवार का वफादार चाहिए। क्या राहुल की जगह लेने वाला कांग्रेसाध्यक्ष देश भर में दौरे कर कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश कर पाएगा? सुशील कुमार श्ािंदे को तो महाराष्ट्र में दलित नेता माना जाता है, लेकिन क्या वे कांग्रेस से टूटे उसके दलित जनाधार को महाराष्ट्र में भी लौटा पाएं? क्या वे मायावती या रामविलास पासवान जैसे दलित नेताओं जितना आधार भी इन समुदायों में रखते हैं। मायावती का उत्तरप्रदेश में प्रदर्शन चाहे जैसा हो, उनका समर्थक एक तयशुदा वोट प्रतिशत तो उनके पास है। पासवान बिहार की कम से कम पांच सात सीटों पर तो अपना आधार रखते ही हैं। शिंदे के पास ऐसी कोई खूबी महाराष्ट्र में भी रही हो, इसमें शंका है। इसलिए अगर राहुल गांधी को हटाकर कांग्रेस को पार्टी में केवल प्रतिकात्मक बदलाव ही करना है तो फिर इससे अच्छा तो यही होगा कि राहुल गांधी ही कांग्रेस के अध्यक्ष बने रहें।
मैंने कांग्रेस के इतिहास में कहीं पढ़ा था कि अपने शुरूआती दौर में सभ्रांतों की जमात कांग्रेस को महात्मा गांधी ने जन आंदोलन में तब्दील किया था। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में गांधी जी ने नीचे से ऊपर तक संगठन में पदाधिकारियों के चुनाव की व्यवस्था को खड़ा किया था। जाहिर है इस व्यवस्था से चुनकर आए कांग्रेस के नेताओं ने ही पार्टी को मजबूत, जनआंदोलन और जनाधार से जोड़ा होगा। इसी का फायदा कांग्रेस को आजाद भारत में मिला। देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का अवसर केवल उसके पास था। ऐसा हुआ भी। जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस में कामराज जैसे अध्यक्ष हुए जिन्होंने तत्कालीन नेतृत्व को मजबूत करने के लिए न सिर्फ खुद मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ा बल्कि अपने नैतिक दबाव से कई मुख्यमंत्रियों और संगठन के पदाधिकारियों के भी इस्तीफ करवाए। तब इंदिरा गांधी भी गूंगी गुडिया ही कहाती थी, लेकिन इसी कामराज प्लान से वे मजबूत हुर्इं। अब आज के अध्यक्ष को तो रोना आ रहा है कि उसने तो हार की जिम्मेदारी अपने सिर लेकर इस्तीफा दे दिया लेकिन बाकी कोई इस्तीफा नहीं दे रहा है? मुख्यमंत्री तो अभी भी कह ही रहे हैं कि हमने भी पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी है, लेकिन दे नहीं रहे हैं। देकर करेंगे भी क्या? आखिर कांग्रेस का संकट तो यही है कि हर स्तर पर उसके पास नेतृत्व का अभाव है। राहुल मार्का संगठन चुनाव तो कांग्रेस करवा ही चुकी है लेकिन हर जगह नेताओं के परिवारों के बोझ से दबी कांग्रेस जनाधार वाले नए नेतृत्व नहीं खडेÞ कर सकी है। ये उसकी सबसे बड़ी समस्या है। इसके हल तो हैं लेकिन इच्छाशक्ति कहां?