November 15, 2024

कोई विकल्प तो हो मोदी का

प्रकाश भटनागर

‘गरज-चमक के साथ’ भाषण देने को यदि चुनाव में जीत का आधार माना जाए तो समझ लीजिये कि कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने सन 2019 में बहुमत पाने का रास्ता साफ़ कर लिया है । क्योंकि अपने बहुप्रतीक्षित महाधिवेशन में कांग्रेस जमकर गरजी, मोदी सरकार पर खूब बरसी। ऐसा करना पार्टी के लिए बहुत जरूरी हो गया था, क्योंकि गुजरात और हिमाचल के बाद पूर्वोत्तर के हालिया चुनावी नतीजों ने भाजपा-विरोधी दलों का कांग्रेस पर से भरोसा कम किया है । बेहद तीखे तेवर दिखाकर कांग्रेस ने यह यक़ीन दिलाने का प्रयास किया है कि उसका दम अभी चुका नहीं है ।
अधिवेशन में राहुल गाँधी को जिस तरह कौरव और पांडव याद आये, उससे तय है कि यह दल सॉफ्ट हिंदुत्व की अपनी ताजा-तरीन अवधारणा पर फिलहाल तो कायम रहेगा । कुछ समय पहले राहुल ने अपने कुर्ते की फटी जेब दिखाई थी, मुमकिन है कि अब वह ऐसे ढीले कुर्ते पहने दिखें, जिनसे झांकता उनका यज्ञोपवीत साफ़ दिख सके । हाँ, यह संभव है कि भाजपा-विरोधी स्वयंभू प्रगतिशील दलों के नेताओं से मिलते समय यह यज्ञोपवीत छुपा लिया जाए ।
लेकिन क्या महज गरजने-बरसने या हिंदुत्व की डगर पर पांव दिखाने भर से मामला पुख्ता हो जाता है? सन 2014 के बाद से अब तक कांग्रेस खुद को भाजपा के ठोस विकल्प के तौर पर पेश नहीं कर पायी है । जबकि खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्थापित करने में नरेंद्र मोदी पूरी तरह सफल रहे थे । यक़ीनन, मोदी के अधिकाँश चुनावी वायदे जुमलेबाज़ी की क़ैद में दम तोड़ते दिख रहे हैं, इसके बावजूद यदि वे आज भी जनता की पहली पसंद बने हुए हैं तो उसकी वजह केवल यह है कि देश को उनका विकल्प नहीं दिख रहा । कांग्रेस की फटेहाली सबके सामने है । वामपंथी दल एक और राज्य में विधवा हो चुके हैं । राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं की एक आँख कुढ़ती हुई मोदी के बढ़ते असर को देख रही है और दूसरी लाचारी वाले अंदाज़ में काल कोठरी में बंद लालू प्रसाद के लिए आंसू बहा रही है । बहुजन समाज पार्टी का हाथी बहुमत रूपी चारे के अभाव में ऐसा लड़खड़ाया कि साइकिल को उसे घसीटते हुए राज्यसभा तक ले जाने का जतन करना पड़ रहा है । उत्तरप्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर सीट के उपचुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत के बावजूद इसका सेहरा पहनने में अखिलेश यादव को कुछ असुविधा ही हो रही होगी । क्योंकि वह जानते हैं कि इस जीत के लिए उन्हें पार्टी के उस बहुत बड़े तबके को नाराज़ करना पड़ा है, जो उत्तरप्रदेश में मायावती के कार्यकाल के दौरान हुए अपमानजनक व्यवहार से आज तक नहीं उबर सका है । अखिलेश को यह भी भली-भांति पता है कि सियासी मंडी में मायावती आठ आना उधार देकर आठ रूपया वसूलने में माहिर हैं । आम आदमी पार्टी तो अरविन्द केजरीवाल के माफीनामे की चादर के नीचे मुंह छिपाए पड़ी हुई है ।
आज की तारीख में ‘थकेले’ दिख रहे इन दलों को अब अपनी-अपनी डफली अपने-अपने घरों पर छोड़कर संयुक्त मंच पर एकता का नगाड़ा बजाना होगा । बेशक, इन पार्टियों की तुलना में आज भी कांग्रेस बेहतर है । वह उनका नेतृत्व कर सकती है, लेकिन तराजू में मेंढकों को तौलने के लिए आवश्यक समझ और क्षमता किसके पास है? सोनिया गाँधी, राहुल या फिर कोई और? कांग्रेस के लिए इस सवाल के जवाब की ईमानदारी से तलाश आज उसकी सबसे बड़ी जरूरत है ।

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