कहीं इतिहास की वस्तु बनकर न रह जाएं कांग्रेस और कम्यूनिस्ट
(सन्दर्भ-जेएनयू प्रकरण)
-तुषार कोठारी
आत्महत्या जैसा कायरताभरा कृत्य करके अपना जीवन समाप्त करने वाले किसी व्यक्ति को अपना आदर्श मानने वाले लोग कैसे हो सकते है? यह देखने के लिए आपको देश की राजधानी नई दिल्ली में बसे जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी के केम्पस में जाना होगा। कहते हैं कि गीदडों का नेता शेर नहीं हो सकता,कोई गीदड ही गीदडों को नेतृत्व दे सकता है। दुनियाभर में अपना अस्तित्व गंवा चुके वामपंथ के बचे खुचे परजीवियों ने जब जेएनयू को अपना गढ बनाया,तो यहां के छात्रसंघ चुनावों का नेतृत्व भी उसी प्रकार का बना,जो साहसिक कृत्य करने में सक्षम ही नहीं है। देश की जनता साहसी नेतृत्व चाहती है,कायर नेतृत्व नहीं।
भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारियों का जिक्र करने वालों को पता होना चाहिए कि चन्द्रशेखर आजाद व अन्य क्रान्तिकारी इस बात से बिलकुल भी सहमत नहीं थे कि असेम्बली में बम फोडने के बाद उन्हे वहां रुक कर गिरफ्तारी देना चाहिए,लेकिन भगतसिंह ने कहा था कि साम्राज्यवादियों के बहरे कानों को खोलने के लिए धमाका जरुरी है और इस बात को वहां मौजूद रह कर कहना भी जरुरी है। अपनी इसी योजना के तहत बम विस्फोट के बाद भगतसिंह,सुखदेव और राजगुरु वहीं रुके रहे और अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाते रहे। अंग्रेजों की पुलिस आने के बाद उन्होने बिना प्रतिरोध के गिरफ्तारी दी। यह भगतसिंह की ही योजना थी कि उन्होने अंग्रेजी सरकार के न्यायालय का उपयोग अपनी विचारधारा को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए किया। इसी का परिणाम था कि उस दौर में भगतसिंह की लोकप्रियता गांधी से भी अधिक बढ गई थी। ऐसा नहीं था कि भगतसिंह ने जेल में जाते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लिया। यदि ऐसा होता तो आज भगतसिंह को कौन सम्मान दे रहा होता?
लेकिन अब देखिए,जेल से छूटने के बाद अपने भाषण में भगतसिंह का जिक्र करने वाले,नए उगते नेता के व्यवहार को। जब यूनिवर्सिटी में देशविरोधी नारे लगा रहे थे,तो खुद को बडा कामरेड मान रहे थे। जैसे ही मामला दर्ज हुआ और लोगों के गुस्से की झलक मिली,फौरन अपने सुर बदले और खुद को भारत विरोधी नारे लगाने वालों से अलग करते हुए देशभक्त बताने लगे। कहने लगे कि देश के कानून और संविधान में आस्था है,केवल वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ है। कल तक अपने जिन साथियों का साथ देने पर आमादा थे,उनका जिक्र तक अपने भाषण में नहीं किया,क्योंकि पूरे देश ने टीवी पर उनके चीखते हुए चेहरों को साफ देखा है,जो भारत के टुकडे करने की घोषणाएं कर रहे थे।
टीवी के इंटरव्यू में अफजल गुरु की बजाय हैदराबाद के आत्महत्या करने वाले छात्र को अपना आदर्श बताने वाले इस नए उभरते नेता को देश के कई सारे स्थापित नेताओं तक ने अपना नया आदर्श मान लिया। मोदी की मार से आहत कुछ मुख्यमंत्रियों और वामपंथी नेताओं ने धडाधड ट्विट करके बताया कि नए नेता का भाषण अद्भुत था। कुछ और असंतुष्टों ने भी इस भाषण को अतुलनीय घोषित कर दिया। इनमें से कुछ ने आगामी चुनावों में नए उभरते नेता के भरपूर उपयोग की योजना भी बना डाली।
यह सही है कि इस देश में टीवी का पर्दा महत्वहीन व्यक्तियों को भी कुछ देर के लिए ही सही,लेकिन महत्वपूर्र्ण बना देता है। मुद्दा देशविरोधी नारों का था। इसलिए टीवी की खबरें बनी और खलनायकों के चेहरे उजागर हुए। खलनायकों की बचीखुची फौज ने मीडीया में अपने सहयोगियों की मदद से इन खलनायकों को नायक की तरह प्रोजेक्ट भी किया। खलनायक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लडने वाला नायक बताया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि मीडीया भी साफ-साफ दो हिस्सों में बंटा हुआ नजर आने लगा। अफजलप्रेमी मीडीया के सूत्रधारों ने अंतरिम जमानत के आदेश को प्रकरण के अंतिम निराकरण की तरह पेश किया। एक टीवी न्यूज चैनल ने तो बाकायदा खलनायक का साक्षात्कार भी लिया। इस सक्षात्कार को लेने का राज भी यही था,कि मीडीया का यह वर्ग देशद्रोह के नारे लगाने वाले खलनायक को क्लीनचिट देना चाहता था। वे यह भी चाहते थे कि अंतरिम जमानत के आदेश को प्रकरण के अंतिम निराकरण के रुप में प्रदर्शित किया जाए और उसे एक उभरता हुआ नेता दिखाया जाए।
लेकिन ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद वे अपना लक्ष्य हासिल करने में सफल नहीं हो पाए। इसका सीधा सा कारण यह है कि देश का आम आदमी देश को प्यार करता है। उसे ऐसी लफ्फाजियों से कोई खास फर्क नहीं पडता। देश को प्यार करने वाले व्यक्ति की नजर से जो एक बार उतरा वह हमेशा के लिए उतर गया।
आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को अपना आदर्श मानने वाला कोई व्यक्ति न तो साहसी हो सकता है और ना ही किसी को दिशा दे सकता है। अपने भाषण में जिक्र तो करे भगतसिंह का,और अपना आदर्श बताए आत्महत्या करने वाले कायर व्यक्ति को। देश की संसद पर हमला करने वाले जघन्य अपराधी के बारे में पूछे जाने पर कहे कि वह भारत का नागरिक था,लेकिन उसकी निन्दा ना कर सके। ऐसी प्रवृत्ति वाले दिग्भ्रमित व्यक्ति को मीडीया का एक वर्ग चाहे जितना नेता के रुप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश करे,देश की आम जनता पर इसका कोई असर नहीं होता।
वामपंथियों और कांग्रेस की वर्तमान दुर्दशा का कारण भी इसी में छुपा है। वे समझ ही नहीं पाते कि देश का मुड क्या है? वे देश के जनमानस को पीडा देने वाले मुद्दों को अपने लिए लाभकारी समझते रहे। इसी का नतीजा था कि देश की जनता ने उन्हे कूडेदान पर फेंक दिया। जेएनयू का वर्तमान घटनाक्रम भी यही दर्शा रहा है।
जेएनयू के घटनाक्रम के साथ ही इशरत की कहानी के जरिये चिदम्बरम जी का असली चेहरा भी देश के सामने आ गया। अफजल को गुरु जी और ओसामा को ओसामा जी कहने की आदतों ने ही कांग्रेस को इस स्तर पर लाकर खडा कर दिया है। यही हाल वामपंथियों का है। दुनिया के साथ साथ वे अब देश से भी बहिष्कृत किए जा रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बाद भी अगर वे समझते है कि देश विरोधी नारे लगाकर वे देश के जनमानस में अपनी पकड बना सकते है,तो उनका भगवान ही मालिक है। कहीं ऐसा न हो कि कुछ वर्षों बाद बच्चों को पढाए जाने वाले राजनीतिक इतिहास में इन पार्टियों के बारे में भी पढाया जाने लगे,कि किसी जमाने में देश में कांग्रेस और कम्यूनिस्ट पार्टियां हुआ करती थी।