December 23, 2024

अनुमानों और भ्रम के भरोसे राजनीति

– तुषार कोठारी

वर्तमान समय की राजनीति अनुमानों और भ्रम के भरोसे चल रही है। नेताओं की सफलता इसी बात से आंकी जाती है कि उनके अनुमान कितने सटीक रहे। नेता अपने पूर्वानुमान कुछ तथ्यों के आधार पर लगाते है और इन तथ्यों पर वे पूरा भरोसा भी करते है। कई बार उनके पूर्वानुमान सटीक बैठ जाते है,तो नेता सत्ता पा जाते है और जब पूर्वानुमान गलत साबित होते है,तो नेता को सत्ता से बाहर का रास्ता देखना पडता है।

मतदाता के मन में झांकने की कला या कोई वैज्ञानिक तरीका आज तक विकसित नहीं हो सका है। नतीजा यह है कि राजनीति में कुछ भ्रमों को सत्य की तरह स्वीकार कर लिया गया है। इनमें से कुछ भ्रम किसी समय भ्रम नहीं थे,बल्कि तथ्य थे,लेकिन समय गुजरने के साथ ये तथ्य भ्रम बनकर रह गए। नेता तथ्यों को भ्रम में बदल जाने को समय रहते समझ नहीं पाए और सत्ता से बेदखल कर दिए गए। ये भ्रम इसलिए भी मजबूती पाते रहे कि जीत का कारण कुछ और रहा लेकिन जीता हुआ नेता अपने भ्रम को ही इसका श्रेय देता रहा।
जाति आधारित वोट राजनीति का एक ऐसा ही बडा भ्रम है। निस्संदेह रुप से कुछ विशेष स्थानों पर कुछ सीमा में जाति के आधार पर वोट दिए जाते रहे है,लेकिन नेताओं और पार्टियों का पूरा गणित ही इस पर आधारित हो चुका है। इसका परिणाम यह है कि पार्टियां टिकट का वितरण भी जातिगत आधार पर करने लगी। कम से कम मध्यप्रदेश जैसे राज्य में तो आज तक जाति आधारित वोटिंग एक भ्रम ही बनी हुई है। जाति के इस भ्रम ने न सिर्फ नेताओं को बल्कि मीडीया के भी एक बडे वर्ग को अपनी चपेट में ले रखा है।
जाति के इस भ्रम के कारण कई बडे नेता बुरी तरह चोट खा चुके है। इसका सबसे बडा उदाहरण मध्यप्रदेश में लगातार दो बार मुख्यमंत्री रह चुके कांग्रेस नेता दिग्विजयसिंह है। लगातार दूसरी बार सत्ता में आए दिग्विजयसिंह ने तीसरी बार के चुनाव में जीत हासिल करने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कथित तौर पर सफलता पूर्वक आजमाया जा चुका फार्मूला उपयोग में लाने की योजना बनाई थी। उत्तर प्रदेश में कभी एमवाय(मुस्लिम यादव) फैक्टर और कभी दलित मुस्लिम गठजोड के फार्मूलों से मुलायम और मायावती सत्ता हथिया चुकी थी। इसी को देखते हुए दिग्विजय सिंह ने अपनी दूसरी पारी के बाद तीसरी बार की जीत को पक्का करने के लिए मुस्लिम दलित कार्ड खेलने की योजना बनाई थी। इसी के मद्देनजर उन्होने उस समय मध्यप्रदेश में दलित एजेण्डा भी लागू किया था। दलित एजेण्डा के भरोसे दिग्विजय सिंह को अपनी सफलता पर पूरा भरोसा था। लेकिन उनका दलित वोट हासिल होने का फार्मूला भ्रम साबित हुआ और उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा ने धुआंधार बहुमत हासिल किया था। तब से बेचारे दिग्विजयसिंह बेकार है।
इसी तरह का भ्रम मुस्लिम वोटों को लेकर भी लम्बे समय से नेताओं में है। ये सही है कि मुस्लिम समुदाय ही एक मात्र समुदाय है,जो थोकबन्द वोटिंग करता है और एक ही दिशा में वोटिंग करता है। इसलिए तमाम नेताओं को मुस्लिम वोट हमेशा से ललचाते रहे है। लम्बे समय तक मुस्लिम वोटों की एकमात्र हकदार कांग्रेस ही हुआ करती थी। लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस का मुस्लिम वोटबैंक पूरी तरह खिसक गया। नतीजा हर कोई जानता है कि इन प्रमुख प्रदेशों में कांग्रेस का अस्तित्व ही खतरे में पडा हुआ है।
नेता के पूर्वानुमानों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। कांग्रेस के मुस्लिम वोट क्यों खिसके? इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ अनुमान आधारित ही हो सकता है। अधिकृत तौर पर कोई यह नहीं जानता कि ऐसा क्यो हुआ होगा? सामान्य तौर पर मुस्लिम जनाधार खिसकने की वजह राम जन्मभूमि आन्दोलन के घटनाक्रम को माना गया। हांलाकि मुस्लिम वोट खिसकने के लिए कुछ और कारण भी जिम्मेदार रहे होंगे। मुस्लिम समुदाय की गरीबी,अशिक्षा,आवास,गंदी बस्तियां जैसे कारण भी नाराजगी के कारण हो सकते है। लेकिन उनका न तो कभी जिक्र हुआ और न उन पर विचार किया गया। वहां के अन्य क्षेत्रीय दलों ने सत्ता हासिल करने के लिए मुस्लिम वोटो को रिझाने के नए नए तरीके खोजे और धीरे धीरे कांग्रेस से दूर हुए मुस्लिम मतदाता इन पार्टियों के साथ जुडते चले गए।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान नेताओं या विश्लेषकों ने कभी भी किसी दूसरे नजरियें से मामले को देखने की कोई कोशिश तक नहीं की। मुस्लिम समुदाय की अशिक्षा,गरीबी इत्यादि अन्य समस्याओं का कभी जिक्र नहीं किया गया। किसी नेता के मन में यह विचार नहीं आया कि मुस्लिमों की नाराजगी की वजह उनकी समस्याएं भी हो सकती है। उनका किसी पार्टी से दूर जाने या नजदीक आने के पीछे नेता से नाराजगी और नेता के प्रति आकर्षण भी कारण हो सकता है। मीडीया का भी पूरा फोकस एक ही घटना पर बना रहा। नेता तब से लेकर आज तक इसी भ्रम को पाले हुए है कि मुस्लिम समुदाय हिन्दूवादी संगठनों से नाराज है। उन्हे हिन्दूवादी संगठनों का डर दिखाया जाता रहेगा,तो उनके वोट एकमुश्त गिरेंगे।
अपने इस भ्रम से नेता अपने आपको मुक्त करने को तैयार ही नहीं है। वे यह मानने को तैयार नहीं है कि किसी कानून के बना देने से,या किसी विवादास्पद बयान दे देने से वोटों में कोई बडा अन्तर नहीं आ जाता। मतदाता अब इतना मूर्ख नहीं रहा। सामान्य सब्जी बेचने वाले से लेकर साइकिल का पंचर जोडने वाला भी राजनीति पर चर्चा कर रहा है। महिला आरक्षण बिल पास कर देने भर से कोई पार्टी महिला वोटों की मालिक नहीं बन जाती।
दूसरी ओर इसी तरह के भ्रमों के चक्कर में कभी गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे,तो कभी दिग्विजय सिंह,तो कभी सलमान खुर्शीद आतंकवाद का रिश्ता आरएसएस और भाजपा से जोडकर दिखाते है। इसी भ्रम के चक्कर में अफजल गुरु की फांसी अटकाई जाती है और इसी भ्रम के चक्कर में हाफिज सईद,हाफिज साहब कहे जाते है। लम्बा समय राजनीति में गुजार चुके इन नेताओं में शायद आम आदमी के दिल को भीतर से टटोलने की योग्यता नदारद हो गई है। यदि यह योग्यता बाकी होती,तो ये नेता समझ पाते कि अफजल कसाब की फांसी पर जितनी खुशी किसी हिन्दू को हुई होगी,उतनी ही खुशी आमतौर पर मुस्लिमों को भी हुई। सीमा पर तनाव भडकने पर आम मुस्लिम पाकिस्तान को उतनी ही गाली देता है,जितना कि कोई और। गृहमंत्री शिन्दे और दिग्विजय सिंह चाहे जितने भ्रम पाले,दुनिया जहान के तुष्टिकरण दर्शाने वाले बयानों और हरकतों से दूर जा चुके वोटों को पास नहीं लाया जा सकता। भ्रमों के भरोसे राजनीति का ही उदाहरण है कि एक एक सौ बीस साल पुरानी पार्टी के पाचं पांच दशक राजनीति में गुजार चुके भारी भरकम नेता एक ऐसे युवक के आगे दण्डवत करते नजर आते है,जिसके पास अपने परिवार के नाम के अलावा कोई और योग्यता नहीं है। भगवान जाने भ्रम के भरोसे राजनीति का यह सिलसिला कब तक चलेगा?

You may have missed

Here can be your custom HTML or Shortcode

This will close in 20 seconds