December 23, 2024

मन्दिर वाले पण्डित जी

(डा.डी.एन.पचोरी)
दो भाई,दोनो की विशालकाय काया,बालरहित घुटी हुई खोपडियां बिलकुल तरबूज के माफिक,सफाचट मूंछे और लम्बाई से ज्यादा चौडाई वाले दोनो पण्डित भाईयों को लोग बडे मियां-छोटे मियां की तर्ज पर बडा हाथी छोटा हाथी के नाम से पुकारते है। जापान के सूमो पहलवान जैसे दिखने वाले दोनो भाई फोकट का माल खा खाकर दिन दूने रात चौगुने फूलते ही जा रहे हैं। रोज सबेरे ही दोनो मन्दिर के चबूतरे पर बैठ जाते है और फिर जो भी सामने की सड़क से सामान बेचने वाला या ठेले वाला निकले तो उसकी खैर नहीं,कोई केले वाला निकला तो आधा दर्जन केले उठा लिए,सब्जी वाले के ठेले से सब्जी ले ली,यहां तक कि कोई घांस बेचने की गाडी निकली तो भगवान के नाम पर घांस के पुले भी उटा लिए जाते है,जो उनकी गाय के काम आते है। वही गाय जो दिनभर खुली घूमती है और शाम सुबह पण्डित जी को दूध प्रदान करती है। अव्वल तो कोई ठेले गाडी वाला कुछ बोलता नहीं है और कभी कोई झगडे पर उतारू हो ही जाता है तो लोग शान्त कर देते हैं। अरे भाई भगवान के नाम पर पुण्य कर दिया समझो। और बेचारे फल,सब्जी वालों को मन मारकर चुप रहा जाना पडता है।

जहां तक मन्दिर का सवाल है तो निश्चित रुप से कोई नहीं जानता कि यह मन्दिर किस भगरान का है?? कोई उसे अनन्त नारायण भगवान का ,तो कोई सत्यनारायण भगवान,तो कोई गोपाल जी का मन्दिर कहता है। क्योकि कृष्ण जन्माष्टमी पर मन्दिर में कृष्ण जी का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है। ऐसे कोई उत्सव जिसमें मंदिर में चढावा चढता हो,मंदिर में जरुर मनाया जाता है। महाशिवरात्रि को छोडकर,क्योंकि उसमें मूर्ति पर जल चढाया जाता है,जो इस मन्दिर में संभव नहीं है। वर्षभर मंदिर में दान दक्षिणा और चढावे  की भरमार रहती है। जो लोग एक भूखे पर हिकारत की नजर डालकर आगे बढ जाते हैं,जो सार्वजनिक हित के कामों में एक रुपया देने में पीछे हट जाते है,मंदिर में उनकी दरियादिली देखने योग्य होती है। पण्डितों की दो तीन पीढी तक के लिए तो काफी पैसा इक_ा हो चुका है, किन्तु कमी न रह जाए इसलिए दोनो भाई साल में एक या दो बार पैसे उगाई के नए नए ढंग खोज लेते है। जैसे-डोलग्यारस के दिन भगवान की मूर्ति को घर घर ले जाया जाता है। लोग अपनी सामथ्र्य के अनुसार,२१,५१,१०१ या और ज्यादा रुपए दान करते है। बताया जाता है कि डोल ग्यारस के दिन भगवान प्रजा का हाल-चाल जानने मंदिर से बाहर लाए जाते है। अब कोई पूछे कि भगवान क्या इन्सान है जो घर घर जानकर हाल जानेंगे,पर धर्म कर्म के मामले में तर्क को स्थान कहां?
 एक दिन बाजार से लौटकर दोपहर को मैने देखा तो मंदिर के चबूतरे पर एक तखत पर बडे पण्डित लगभग नंगे बैठे थे। नाममात्र का गमछा लपेट रखा था,लाल लाल नेत्र,विशाल थुलथुल काया,उस पर चन्दन की चित्रकारी का बडा भयावह रुप लिए पण्डित जी एक पुस्तक में से देख देख कर कुछ चीख चिल्ला रहे थे। सामने कुछ महिलाएं आपस में बातों में मशगूल थीं। दस बारह बच्चे धमाचौकडी मचा रहे थे और पकडमपाटी खेल रहे थे। लाउडस्पीकर फुल आवाज में बज रहा था। शोर के अलावा कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मैने एक दर्शक से पूछा कि ये क्या हो रहा है? उसने जवाब दिया सप्ताह जी बैठे हैं। मैने शायद गलत सुन लिया या मेरी समझ में नहीं आया। इसलिए मैने इधर उधर देखा कि शायद गुप्ता जी बैठें हों,तो उनसे पूछ लूं लेकिन मुझे गुप्ता जी कहीं दिखाई नहीं दिए। मैने फिर पूछा तो उसने मेरी अज्ञानता पर जैसे तरस खाते हुए बताया कि सप्ता जी बैठे है का अर्थ ये है कि ये भागवत कथा चल रही और अगले हफ्ते तक अर्थात ७ दिन तक दिन में १२ से सायं ५ बजे तक बडे पण्डित जी इस कथा का वाचन करेंगे। कथा का श्रवण कोई करे न करे परन्तु मुहल्ले वालों का एक सप्ताह तक चैन से बैठना दूभर हो गया।
  मंदिर के ठीक सामने डा.दिनेश्वर शाी रहते हैं,कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं,पीएचडी हैं। मैने शाी जी को कभी मन्दिर जाते या मन्दिर का सामने सिर झुकाते नहीं देखा,कारण पूछने पर वो टाल जाते है। एक दिन जब मैने बहुत पूछा तो उन्होने कहा -मै नास्तिक नहीं हूं,उस सर्वशक्तिमान ईश्वर में मेरी पूर्ण आस्था है,किन्तु मुझे इन पण्डितों के आडम्बर से घृणा है। उनका कहना था कि इस मुहल्ले के अधिकतर लोग नौकरीपेशा हैं व बाहर से आए हुए हैं। किन्तु मेरा जन्म इसी मुहल्ले में हुआ है। मैं बचपन से इन दोनो पंडितों को देखता आया हूं। ये दोनो मेरे साथ ही पढते थे। पढते क्या थे। एक नम्बर के आवारा थे। दोनो के साथ ऐसा कौन सा दुर्गुण था जो इन दोनो में नहीं था। स्कूल से गायब रहना। सिगरेट पीना। जुआ खेलना,किसी से भी पैसे छीन लेना,छोटी मोटी चोरियां कर लेना इनका रोज का काम था।दो-दो तीन-तीन साल में एक कक्षा पास करना। यही कारण था कि दोनो पढ नहीं पाए और मैट्रिक फेल है। शाी ने आगे कहा कि मैने एमए पास किया,हिन्दी में पी.एच.डी की। बी.ए. में संस्कृत विषय था इसलिए मुझे मालूम है कि दोनो पण्डितों में से एक भी संस्कृत के श्लोकों का सही उच्चारण नहीं करता। श्लोक क्या बोलते है,गोलगप्पे से गपकते हैं। इन्होने अपने ढंग से संस्कृत शब्दों को तोड मरोड रखा है। यदि मंत्रों और श्लोकों का कोई प्रभाव भी पडता होगा तो गलत श्लोकों का क्या पडता होगा? सोचने की बात है,मंदिर में अधिक ठंड व अधिक बरसात के दिनों में भगवान की आरती कई कई दिन तक नहीं होती है। बरसात में मूर्ति के सामने एक रस्सी बांध दी जाती है,और उस पर कपडे सूखने डाल दिए जाते है। जो हवा से उडकर भगवान की मूर्ति को लगते है। ऐसी हालत में कैसे श्रध्दा उत्पन्न होगी? आप ही बताईए,पंडित जी ग्रह,नक्षत्र योग व ज्योतिष ज्ञान रखने का भी दावा करते है। शादी ब्याह के शुभ मुहूर्त निकालते हैं। कोई यजमान किसी शुभ कार्य का पूछने जाय तो बताते कि गुरुवार शुभ है किन्तु यजमान ने कह दिया कि मेरी छुट्टी तो बुधवार को रहती है। तब वो कहेंगे कि बुधवार और भी शुभ है। यदि बुधवार ही शुभ था तो गुरुवार क्यो बताया? एक बार श्री गोयल साहब को अमुक दिन कथा करवाना थी,किन्तु उसी दिन उन्हे आवश्यक कार्यसे दस बजे बाहर जाना था। वे बडे परेशान थे। बाहर जाए तो धार्मिक कार्य में बाधा आती है,और कथा जैसा धार्मिक कार्य कराया तो आवश्यक कार्य नहीं हो पाएगा। शाी जी ने गोयल साहब को तरकीब बता दी। निश्चित दिन प्रात: आठ बजे कथा प्रारंभ हुई और शाी जी के कहे अनुसार पंडित जी को २० का नोट अलग से थमा दिया कि कथा वाचन शीघ्र करें। फिर क्या था। नौ बजे के पहले कथा समाप्त हो गई,हवन भी हो गया और गोयल साहब दस बजे की गाडी से बाहर भी चले गए। जान पहचान वाले व कथा सुनने के लिए श्रध्दालु जब गोयल साहब के यहां पंहुचे तो पंडित जी भी जा चुके थे। आगन्तुकों के लिए प्रसाद की व्यवस्था थी,जिसे ग्रहण कर सब धन्य हो गए। वैसे भी कथा में यही दर्शाया जाता है कि असली महत्व प्रसाद का है। जिसने प्रसाद ग्रहण किया भगरान ने उसका कल्याण कर दिया और जो प्रसाद से वंचित रह गया उसका बंटाधार हो गया। सत्यनारायण भगवान की जय।
 उन्होने एक मजेदार घटना सुनाई। लगभग पन्द्रह या बीस वर्ष पूर्व की बात है। नगर की महारानी की ओर से पंडितों को सन्देश मिला कि महारानी कुछ आभूषण भगवान को अर्पण करना चाहती है। बस फिर क्या था। पंडित जी पांच ग्राम लार पोंछते तो मुंह से दस ग्राम लार टपकने लगती। आभूषण अर्पण का दिन निश्चित हुआ। मंदिर में रंगाई पुताई व साज सज्जा की गई। हार फूलों से मंदिर को सजाया गया। निश्चित दिन पर भण्डारे का आयोजन भी किया गया। उस दिन सुबह से लाउड स्पीकर बजने लगा। भजन कीर्तन होने लगे। महारानी हैं इसलिए भोजन तो मन्दिर में नहीं करेंगी। अत: उनके लिए काजू पिश्ते बादाम आदि मेवों का स्पेशल प्रसाद मंगाया गया। दोपहर १२ बजे के लगभग महारानी साहिबा मंदिर में पधारी। उनके अनुचरों ने मूर्ति पर पहले सोने का एक लगभग अस्सी तोले का मुकुट,फिर दो हार,और भगवान के हाथ में सोने के कडे कुण्डल,कुल मिलाकर बीस तोले सोना अर्पण किया। दोनो पंडितों की खुशी देखते ही बनती थी। सफेद कपडों में दोनो की जोडी प्रेमचन्द की कहानी के दो बैलों हीरा मोती की जोडी दिखाई पड रही थी। महारानी और उनके सेवकों की आवभगत मुस्तैदी से की जा रही थी। खातरिदारी में कोई कमी ना रह जाए,इस बात का विशेष ध्यान रखा जा रहा था। एक घण्टे बाद महारानी साहिबा अपने लाव लश्कर के साथ बिदा हुई। शाम को पंडितों ने हिसाब लगाया तो लगभग एक लाख का सोना मूर्ति पर चढाया गया था। पर सब्र कहां? सभी आभूषणों को दोनो भाई चिरंजीलाल सुनार की दुकान पर ले गए। चिरंजीलाल ने आभूषणों को देखा और मुस्कुराया।उसने कहा -पंडित जी कितने रुपए खर्च किए हैं आयोजन में? पंडित जी ने बताया कि पांच हजार के लगभग खर्चा हुआ है। चिरंजीलाल ने कहा कि तीन से चार हजार के घाटे में हो पंडित जी। ये आभूषण चांदी के हैं जिन पर सोने की पालिश की गई है। इनकी कीमत दो हजार से ज्यादा नहीं है। दोनो पंडितों के मुंह पर हवाईयां उडने लगी। बडे पंडित तो लगभग बेहोश जैसे हो गए और सिर पकडकर सड़क पर ही बैठ गए। बडी मुश्किल से दोनो को मन्दिर तक लाया गया। अगले एक हफ्ते तक मन्दिर के पट बन्द ही रहे। जनता बाहर से ही हाथ जोडकर भगवान के दर्शन करती रही। शाी जी ने कहा कि जनता की अंधभक्ति और अंध श्रध्दा ही तो है कि ऐसे हजारों मन्दिरों में करोडों की सम्पत्ति जमा है तथा ऐसे अयोग्य निपट मुर्ख पंडित फल फूल रहे है।

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