फाँसी एक समस्या
– ड़ा.रत्नदीप निगम
देश की तमाम समस्याओं में से एक है किसी की फाँसी । जब देश के किसी न्यायालय द्वारा किसी भी दोषी व्यक्ति को फाँसी की सजा सुनाई जाती है तो वह देश के मिडिया के लिए एक प्राइम टाइम का विषय हो जाती है और यदि किसी व्यक्ति को आतंकवाद के कारण फाँसी की सजा होती है तो फिर आतंकवाद की परिभाषाएँ नए सिरे से गढ़ी जाती है । उसमें भी यदि सजा किसी मुस्लिम को सुनाई हो तो फिर तो देश का सेकुलरिज्म ही खतरे में आ जाता है । राष्ट्रपति से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक देश की महान् सेविकाएँ सक्रिय हो जाती है और न्याय दिलाने के लिए उन्हें देशी – विदेशी फण्ड तक मिल जाते है । राष्ट्रिय मिडिया के सर्व गुण संपन्न एंकर लोकतंत्र की रक्षा के सबसे बड़े सेनापति बन कर मैदान में उतरते है । टीवी चैनलों की बहस में निष्पक्ष विश्लेषक तो तालिबानी प्रवक्ता की तरह बम विस्फोटों से लेकर सजायाफ्ता आतंकवादी बीबनने की पृष्ट भूमि तक को जायज ठहराने लगते है ।
अभी वर्तमान में सेक्युलर आतंकवादी याकूब मेनन पर जनता को छोड़कर सभी चिंताग्रस्त है । सेक्युलर आतंकवादी शब्द का प्रयोग करने पर इस देश के सभी सेक्युलर के विश्वविद्यालयों में हड़कम्प मच जायेगा लेकिन मेरे पास इस शब्द के अलावा विकल्प उपयोग करने पर यह उपदेश मिल जायेगा कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता । इस देश में सेकुलरिज्म की डिग्री बाँटने वाले वामपंथियों की टिप्पणी तो अदभुत थी । सेक्युलर इंस्टिट्यूट के प्राध्यापक सीताराम येचुरी ने याकूब मेनन ने को फाँसी का विरोध करते हुए भारतीय संविधान से फाँसी को ही हटाने की माँग की । बाटला हॉउस पर प्रश्न खड़े करने वाले दिग्विजय सिंह मौन है । सेकुलरिज्म की राजनीती करने वाली समाजवादी पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने तो याकूब मेनन को क़ानूनी सहायता तक प्रदान की । भारतीय कानून से फाँसी को ही हटाने की माँग करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने तो गुजरात में हुए दंगो के लिए नरेंद्र मोदी को फाँसी पर चढ़ाने की माँग की थी । जिन ओवैसी जी ने देश की न्यायालयीन प्रकिया की आलोचना करते हुये न्यायाधीशों को ही मजहब के आधार पर साम्प्रदायिक घोषित कर दिया । ये ओवैसी बंधुओं का इतिहास यदि देखा जाये तो इन्होंने कभी भी हैदराबाद के भारत में विलय को स्वीकार नहीं किया है इसीलिए 17 सितम्बर को हैदराबाद को आजाद कराने के लिए की गई पुलिस कार्यवाही में मारे गए निजाम के सैनिको की मौत पर शहीद दिवस मनाते है । आजाद भारत में कांग्रेस पार्टी का 47 वर्षो तक इनकी पार्टी से गठबंधन रहा है । देश में सेकुलरिज्म की डिग्री बांटने वाली वामपंथी विश्वविद्यालय ने भी इनसे गठबंधन किया है ।
इस सम्पूर्ण परिद्रश्य को देखने पर किसी भी भारतीय को यह एहसास हो जाता है कि इस देश में भारत का निर्वाचित प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री साम्प्रदायिक हो सकता है लेकिन अफजल गुरु और याकूब मेनन सेकुलरिज्म के आधार स्तम्भ है । इनके खिलाफ एक भी शब्द आपको हिन्दू आतंकवादी बना देगा अथवा जीवन भर के लिए आपके ऊपर साम्प्रदायिक लेबल लग जायेगा । रही बात मिडिया की तो लोकतंत्र के प्रहरी तो पीपली लाइव के निर्माण में निरंतर सक्रिय बने रहते है । गुजरात के एक एक व्यक्ति की ओपिनियन लेने वाले महान् खोजी पत्रकार 93 बम विस्फोटों से पीड़ित एक भी व्यक्ति के घर तक नहीं पहुँचे । ये शायद नीरा राडिया की अनुमति का इंतजार कर रहे होंगे । मैं समझता हूँ कि भविष्य में हम देश की संसद में यह कानून बनते देखें जिसमें किसी भी मुस्लिम को किसी भी अपराध के लिए पकड़ना जुर्म होगा ।