पाशविकता की पराकाष्ठा और अदम्य साहस का साक्षी कालापानी
(स्वातंत्र्यवीर वि.दा.सावरकर की पुण्यतिथी २६ फरवरी पर विशेष)
– तुषार कोठारी
अमानवीय अत्याचारों की इन्तेहा,पाशविकता की पराकाष्ठा और इनके साथ देश की आजादी के लिए मौत से भी ज्यादा खतरनाक कष्टों को हंसते,हंसते झेलने का अदम्य साहस और वीरता। भारत का स्वातंत्र्य समर, अण्डमान के पोर्टब्लेयर स्थित कालापानी के नाम से कुख्यात सेलुलर जेल में जीवन्त हो उठता है। अपने देशप्रेम के लिए एक साथ दो दो आजीवन कारावास की सजा भुगतने वाले वीर सावरकर के अप्रतिम शौर्य और साहस की गाथाएं यहां सजीव हो उठती है। तेरह फीट लम्बी और सवा सात सात फीट चौडी कालकोठरी में रहकर हर दिन बैल की जगह कोल्हू में जुतकर तेल निकालने वाले वीर सावरकर और अन्य असंख्य क्रान्तिकारियों के बलिदान की साक्षी रही सेलुलर जेल आज भारत का राष्ट्रीय स्मारक बन चुका है। लेकिन इसे देखें बिना सिर्फ शब्दों से यहां की गई क्रूरता और अत्याचारों का अनुमान लगा पाना बेहद कठिन है।
भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने क्रान्तिकारियों को कठिन यातनाएं देने के लिए अण्डमान द्वीप समूह का चयन कुख्यात कालापानी जेल बनाने के लिए किया था। अंग्रेज जानते थे कि क्रान्ति के दीवानों का साहस तोडने के लिए कोई अनूठा प्रयास करना पडेगा। इसी धारणा के चलते अण्डमान में सेलुलर जेल बनाने की योजना बनाई गई। योजना यह थी कि एक ऐसी जेल बनाई जाए,जहां भेजा गया कोई कैदी जीवित वापस ना आ सके। बन्दियों को बरबाद करने के लिए नए नए तरीकों की खोज की गई। १८५७ की क्रान्ति असफल होने के बाद पकडे गए करीब दो सौ क्रान्तिकारी कैदियों का पहला जत्था १० मार्च १८५८ को यहां भेजा गया था।
ऐसे बनी सेलुलर जेल
शुरुआत में तो इसे बन्दी उपनिवेश बनाया गया था,लेकिन जल्दी ही अंग्रेजों को लगा कि यहां आकर क्रान्तिकारी उतने परेशान नहीं हो रहे है,जितना कि उन्हे होना चाहिए। आखिरकार १८९८ में यहां एक विशाल जेल के निर्माण की योजना बनाई गई। जेल निर्माण की प्रारंभिक योजना डॉ.लेथब्रिज की सलाह पर कलकत्ता के कार्यपालक अभियन्ता डेविस द्वारा तैयार की गई थी। उस समय इस पर ५ लाख १७ हजार रु.की लागत आने का अनुमान लगाया गया था। पहले दो मंजिला भवन बनाने की योजना थी,लेकिन कैदियों की बढती तादाद को देखते हुए तीन मंजिला इमारत बनाने का निर्णय लिया गया। जेल के भवन के लिए पोर्टब्लेयर के आबरडीन नामक स्थान पर एक उंची पहाडी का चयन किया गया। इस पहाडी के पीछे की ओर समुद्र है। अंतिम योजना के मुताबिक सात भुजाओं वाले दैत्याकार जेल भवन का निर्माण शुरु किया गया। इस भवन की खासियत यह थी काल कोठरियों की सात भुजाएं एक केन्द्रिय मीनार से जुडी हुई थी और इस केन्द्रिय मीनार से पूरी जेल पर नजर रखी जा सकती थी। केन्द्रिय मीनार से जुडी इन सात भुजाओं में कुल ६९३ काल कोठरियां बनाई गई थी,ये सभी कोठरियां १३.६ फीट लम्बाई और ७.६ फीट चौडाई की थी। इसकी एक खासियत यह भी थी कि किसी भी कोठरी में बन्द कैदी किसी दूसरी कोठरी के कैदी को देख नहीं सकता था। कोठरी के सामने अगली विंग का पिछला हिस्सा बनाया गया था,ताकि कैदी को सामने सिर्फ दीवार दिखाई दे। प्रत्येक कोठरी में उपर की ओर एक छोटा रोशनदान लगाया गया था,जिससे रोशनी तो कोठरी के भीतर नहीं आ पाती थी,लेकिन जीने के आवश्यक हवा जरुर भीतर आ जाती थी। इस अनोखी जेल के निर्माण के लिए कैदियों की एक बडी फौज लगाई गई। जेल का निर्माण अक्टूबर १८९८ में प्रारंभ हुआ और करीब आठ साल बाद १९०६ में इसका निर्माण पूरा हुआ। इस पर कुल ७ लाख ८३ हजार ९९४ रुपए की लागत आई।
जेल नहीं यातनागृह
कुख्यात सेलुलर जेल सिर्फ अपने विशीष्ट आकार प्रकार की वजह से कुख्यात नहीं थी,बल्कि यह एक विशीष्ट प्रकार का यातनागृह था,जहां आजादी की लडाई लडने वाले दीवानों की विभिन्न प्रकार की यातनाएं देकर उनका साहस तोडने और उनकी जान लेने का प्रयास किया जाता था। इस जेल की खासियत यह भी थी कि हत्या,डकैती आदि करने वाले नृशंस कैदियों को तो यहां सुविधा दी जाती थी,लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले क्रान्तिकारियों को यातनाएं दी जाती थी।
इस कुख्यात जेल में दिन गुजारने वाले वीर सावरकर तथा अन्य क्रान्तिकारियों ने यहां होने वाले अत्याचारों का दिल दहला देने वाला वर्णन किया है। क्रान्तिकारियों को बैल की जगह कोल्हू में जोतकर नारियल और सरसों का तेल निकालने का काम दिया जाता था। किसी बैल के लिए भी एक दिन में नारियल का तीस पौण्ड तेल निकालना संभव नहीं था,लेकिन क्रान्तिकारियों को प्रतिदिन तीस पौण्ड तेल निकालने का लक्ष्य दिया जाता था। इस असंभव कार्य में असफल रहने पर भोजन नहीं देने का दण्ड दिया जाता था। कैदियों के आपस में बात करने पर सख्त मनाही थी और यदि कोई बात कर लेता तो उसे बेंत की सजा दी जाती। रात भर पानी में भीगी हुइ बेंत क्रान्तिकारियों के शरीर की चमडी तक खींच लेती थी। रक्तरंजित क्रान्तिकारी रात भर तडपते थे,लेकिन सुबह उन्हे फिर से कोल्हू में जुतना पडता था। नारियल के छिलकोंको कूटकर रस्सी बनाने का काम भी कैदियों को दिया जाता था।
कैदियों को अकेले रखने के कारण ही इसे सेलुलर जेल का नाम दिया गया था। कैदी एक दूसरे से मिल भी नहीं पाते थे। स्वातंत्र्यवीर विदा सावरकर के छोटे भाई गणेश सावरकर भी सेलुलर जेल में बन्द थे,लेकिन डेढ साल तक दोनो भाईयों को एक दूसरे के बारे में पता तक नहीं चल पाया। डेढ साल बाद अचानक संयोग से दोनो का आमना सामना हो गया,तब उन्हे पता चला कि उनका भाई भी यहीं बन्द है। इसके बावजूद दोनो भाई आपस में बात तक नहीं कर पाए।
कैदियों को शाम छ: बजे कोठरी में बन्द कर दिया जाता था और इसके बाद सुबह छ: बजे ही वे कोठारी से बाहर लाए जाते थे। इस दौरान यदि उन्हे शौच या पेशाब करने की आवश्यकता पडती,तो इसके लिए कोई अनुमति नहीं थी। यदि रात के वक्त किसी बन्दी को शौच अथवा पैशाब करना होता तो उन्हे अपनी कोठारी में ही करना पडता था। कोई गलती करने पर बन्दी को खडी हथकडी नामक सजा दी जाती थी। खडी हथकडी में कैदी को खडा कर हाथ उंचे कर हथकडी लगाई जाती थी और उसे इस अवस्था में आठ घण्टे लगातार रहना पडता था। खडी हथकडी की सजा लगातार दो दो सप्ताह तक दी जाती थी। इस यातनागृह की यातनाओं का नतीजा था कि यहां लाए गए बन्दियों में से कई अपना मानसिक सन्तुलन खोकर आत्महत्या कर लेते थे या उनकी मौत हो जाती थी।
नहीं रुका संघर्ष
अमानवीय क्रूर पाशविक यातनाओं के बावजूद देशभक्तों के साहस को अंग्रेज तोड नहीं पाते थे। सेलुलर जेल की यातनाओं पर रोक लगाने के लिए बन्दियों ने यहां तीन बार भूख हडताल की। जब भी हडताल की घोषणा की जाती,आतताइयों के अत्याचार और बढ जाते। भूख हडताल के दौरान कई क्रान्तिकारियों के साथ जबर्दस्ती कर नाक के रास्ते भोजन देने की कोशिशें की जाती। इन प्रयासों से भी कई क्रान्तिकारियों ने अपनी जानें गंवाईं। अंग्रेजों के सारे प्रयासों के बावजूद आजादी के दीवाने हार मानने को राजी नहीं होते थे। कुख्यात सेलुलर जेल का जेलर डेविड बैरी भी किसी राक्षस से कम नहीं था। डेविड बैरी की क्रूरता के किस्से दूर दूर तक प्रसिध्द थे। कैदियों को यातना देने में उसे आनन्द आता था। डेविड बैरी क्रान्तिकारियों की हिम्मत पस्त करने को अपनी बडी जीत मानता था और इन्ही कोशिशों में लगा रहता था। स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जब सेलुलर जेल पंहुचे तो डेविड बैरी ने उनका मजाक उडाते हुए कहा था कि सावरकर तुमको यहां पचास साल गुजारने है। इस पर सावरकर जी ने उसे जो उत्तर दिया,वह वीर सावरकर के अडिग आत्मविश्वास को दर्शाता है। वीर सावरकर ने डेविड बैरी से कहा कि क्या तुम्हे भरोसा है कि पचास साल तक अंग्रेज भारत पर राज कर पाएंगे?
राष्ट्रीय स्मारक
देशभक्तों ने भारत की आजादी के लिए जो यातनाएं सहीं,उन्हे सेलुलर जेल में ही आकर समझा जा सकता है। शाब्दिक वर्णन उन यातनाओं को समझाने में कभी समर्थ नहीं हो सकते,जितना कि यहां आकर उन्हे महसूस किया जा सकता है। भारत के स्वातंत्र्य समर की इस जीवन्त निशानी को अब राष्ट्रीय स्मारक बना दिया गया है। ११ फरवरी १९७९ में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। आज इस सेलुलर जेल की सात भुजाओं में से सामने के दो पूरे खण्ड और एक आधा खण्ड बाकी बचा है। अब इसे संरक्षित कर लिया गया है। वह कोठरी,जहां सावरकर जी ने अपने जीवन के दस वर्ष गुजारे,यहीं मौजूद है। प्रतिदिन शाम को यहां लाइट एण्ड साउण्ड शो के माध्यम से सेलुलर जेल का इतिहास अत्यन्त प्रभावी ढंग से बताया जाता है। प्रत्येक देशवासी को अपने शहीदों की वीरता और अप्रतिम साहस को समझने के लिए यहां जरुर आना चाहिए।