कुछ सवाल मोदी और कांग्रेस से
प्रकाश भटनागर
चलिए मान लिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कल संसद में दिया गया भाषण खालिस राजनीति था। यह भी मान लिया कि कांग्रेस सहित अन्य दलों द्वारा मोदी का शोर मचाकर विरोध करना उतना ही अनुचित था, जितना अनुचित आचरण भाजपा सदस्यों ने कांग्रेसी सांसद वीरप्पा मोइली का भाषण अवरुद्ध करके दिया। लेकिन इस सारे घटनाक्रम, खासतौर पर मोदी के कथन से कुछ सवाल तो उठते हैं।
पहला सवाल मोदी से। प्रधानमंत्री ने आज फरमाया कि यदि जवाहर लाल नेहरू की जगह सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या नहीं होती। एकबारगी मान लें कि मोदी का यह आंकलन सही है। लेकिन प्रधानमंत्री यह तो बताएं कि आज उन्हें सरदार पटेल बनने से कौन रोक रहा है? वह देश के प्रधानमंत्री हैं। जम्मू-कश्मीर में उनकी ही पार्टी के सहयोग से सरकार चल रही है। फिर कौन सी ऐसी बाधा या हिचक है जो मोदी को देश के इस राज्य के प्रति पटेल जैसा सख्त आचरण करने से रोक रही है? प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के श्रीमुख से ‘…तो कश्मीर की समस्या नहीं होती’ सुनना अरुचिकर लगता है। प्रधानमंत्री बनने से पहले तक देश उनके मुंह से ‘कश्मीर समस्या नहीं होगी’ सुनता था और अब सुनना चाहता है, ‘कश्मीर समस्या अब नहीं रही।’ कश्मीर में आतंकियों और उनके रहनुमाओं को कब्र तक पहुंचाना वहां की बड़ी जरूरत बन चुका है, लेकिन ऐसा करने की बजाय मोदी गड़े मुर्दे उखाड़ने में ही मसरूफ हैं। प्रधानमंत्री यह तो बताएं कि क्यों उनके नजदीकी लोगों में शामिल राजनाथ सिंह के इस राज्य के प्रति निर्णयों में सरदार पटेल जैसी मजबूती नजर नहीं आ रही है? पटेल ने हैदराबाद के निजाम के लिए सेना भेजकर उसकी सारी हेंकड़ी काफूर कर दी थी।
उन्हें देश की सेना पर भरोसा था। इधर, मोदी के कार्यकाल में कश्मीर में सैनिकों पर मुकदमे दर्ज हो गए और सेना पर पत्थर फेंकने वालों पर से मुकदमे वापस ले लिए गए। जब आप मोहनदास करमचंद गांधी की इच्छा का हवाला देते हुए पूरे यत्न से देश से कांग्रेस को समाप्त करने पर आमादा हो सकते हैं तो पटेल की इच्छा के अनुरूप कश्मीर की समस्या के प्रति कठोर निर्णय लेने में आप क्यों पीछे हट जा रहे हैं?
अब जरा कांग्रेस भी एकाध जवाब दे दे। वह क्यों इस देश को नहीं बता पा रही कि गांधी की इच्छा के बावजूद उसका वजूद कायम रहना जरूरी है? यदि पार्टी के पास इसका जवाब होता तो आज उसके हाथ से एक-एक कर राज्य नहीं छिन जाते। लोकसभा में उसकी संख्या शर्मनाक स्थिति में नहीं पहुंच पाती। पार्टी आज तक इस बात का तथ्यात्मक प्रतिवाद क्यों नहीं कर सकी है कि नेहरू के रहते ही कश्मीर में अलगाव का बीज बोया गया और फिर उसे पनपने के लिए पर्याप्त सियासी खाद मुहैया कराई गई? मोहनदास करमचंद तो भाजपा-कांग्रेस के सियासी मंथन में शेषनाग की तरह इधर से उधर खींचे जा रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र नेहरू की देन नहीं था (बकौल मोदी) के आरोप पर इस पार्टी के पास दमदार तर्क क्यों नजर नहीं आ रहे?
केंद्र और जम्मू-कश्मीर में कोई भी सरकार रही हो, कश्मीर की समस्या थी, है और मोदी सरकार के आचरण को देखकर भरे मन से कहा जा सकता है कि यह समस्या बनी रहेगी। और लोकतंत्र! बेचारा रह-रहकर सियासी महाभारत में चीरहरण का शिकार होता रहेगा। कभी वह गुजरात में शंकर सिंह वाघेला के मुख्यमंत्री बनने के समय निर्वस्त्र किया गया, कभी उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को गिराने की नाकाम कोशिश के जरिए आहत हुआ। छोड़िए कश्मीर और रहम कीजिए लोकतंत्र पर। बस इन सवालों के जवाब दे दीजिए। हो सकता है कि राजनीति के सड़ांध मारते परनाले को विवशता में सह रही जनता को कुछ राहत मिल जाए।