तकनीकी गलती की भेंट नहीं चढ़ सकता किसी छात्र का भविष्य, गुजरात हाई कोर्ट ने अंतिम क्षणों में दिलाया परीक्षा का प्रवेश पत्र,परीक्षा में शामिल हुई रतलाम की छात्रा
गुजरात हाईकोर्ट ने आज इस सवाल का जवाब “नहीं” में दिया — और ऐसा करते हुए एक सशक्त, संवेदनशील और संविधानसम्मत उदाहरण पेश किया।
मध्य प्रदेश के रतलाम शहर की 17 वर्षीय छात्रा आरोही परमार, जिसने NID की प्रवेश परीक्षा (DAT Prelims) में 44 अंक प्राप्त कर मेरिट सूची में स्थान बनाया, मात्र इस कारण मेन्स परीक्षा से वंचित कर दी गई कि उसने OBC प्रमाणपत्र राज्य सरकार के फॉर्मेट में प्रस्तुत किया — जबकि संस्थान को केंद्र सरकार के फॉर्मेट की अपेक्षा थी।
न तो जातीय स्थिति पर विवाद था, न मेरिट पर। विवाद सिर्फ “फॉर्मेट” का था — और उसकी कीमत थी, मेन्स परीक्षा से बाहर कर दिया जाना। लेकिन इस बार संविधान की आत्मा, और वकालत की दृढ़ता ने मिलकर इस अन्याय को रोका।
जब विधिक रणनीति और मानवीय विवेक ने रास्ता बनाया
गुजरात हाईकोर्ट में पारित वह अंतरिम आदेश केवल एक कानूनी कार्यवाही का परिणाम नहीं था, बल्कि समय की सीमा, संस्थागत प्रक्रिया और संवैधानिक विवेक का संतुलित समायोजन भी था। एडवोकेट सलोनी कटारिया ने ’खुली किताब ’ से इस मामले की पृष्ठभूमि साझा करते हुए बताया कि यह मामला सामान्य वाद या स्थगन याचिका जैसा नहीं था, बल्कि यह एक ऐसा हस्तक्षेप था, जो समय से पहले न्याय सुनिश्चित करने की अपेक्षा करता था।
एडवोकेट कटारिया ने बताया कि याचिका दाखिल होते समय परीक्षा की तारीख बेहद करीब थी, और नियमित प्रशासनिक प्रक्रिया में लिस्टिंग (सुनवाई) की कोई निश्चितता नहीं थी। ऐसे में उन्होंने कानूनी मार्ग के समानांतर, संस्थागत संरचना को समझते हुए मेंशनिंग की — पहले न्यायमूर्ति अनिरुद्ध पी. माई की कोर्ट में, और बाद में उचित रोस्टर (निर्धारित पीठ) के तहत न्यायमूर्ति निर्झर एस देसाई के समक्ष। इस निर्णय ने प्रक्रिया को सुगम ही नहीं, सार्थक भी बनाया।
उन्होंने आगे बताया कि अदालत के समक्ष प्रस्तुत युक्तियाँ मात्र एक प्रमाणपत्र की तकनीकी त्रुटि नहीं थीं — वे समान अवसर, मेरिट और नागरिक अधिकार की बुनियादी बातों को छू रही थीं। छात्रा की योग्यता असंदिग्ध थी, और गलती प्रपत्र के स्वरूप तक सीमित थी। अदालत को यह स्पष्ट रूप से बताया गया कि यह गलती जानबूझकर नहीं हुई और सुधार भी कर लिया गया है। जस्टिस देसाई ने इस स्थिति की कानूनी, नैतिक और प्रशासनिक तहों को संतुलित रूप से परखा, और यह इंगित किया कि ऐसे मामलों में न्याय का उद्देश्य मात्र प्रक्रिया का पालन नहीं, बल्कि अवसर की रक्षा भी है।
एडवोकेट कटारिया ने बताया कि आदेश मिलने के बाद उसका क्रियान्वयन, स्वयं में एक दौड़ थी। आदेश की प्रति इसी दिन (2 मई 2025) करीब शाम 5 बजे उपलब्ध हुई, और महज़ एक घंटे में उसे संबंधित परीक्षा प्राधिकरण तक पहुंचाया गया। देर रात लगभग 10 बजे छात्रा को एडमिट कार्ड प्राप्त हुआ — और आज, 3 मई की सुबह, वह नियत समय पर परीक्षा में शामिल हुई। एडवोकेट कटारिया ने बताया कि यह निर्णय अब सिर्फ एक अंतरिम आदेश नहीं, एक पूर्ण क्रियान्वित न्यायिक उदाहरण बन गया है।
उल्लेखनीय विचार
“कानून सिर्फ धाराओं का अनुक्रम नहीं है — वह अवसर की रक्षा का माध्यम है। अगर एक योग्य छात्रा को सिर्फ एक तकनीकी फॉर्मेट की वजह से परीक्षा से वंचित किया जाए, तो यह संविधान के मूल उद्देश्य के साथ अन्याय होगा।”
— सलोनी कटारिया, याचिकाकर्ता की एडवोकेट |इ खबर टुडे से विशेष बातचीत में
कोर्ट का ऑपरेटिव आदेश (मूल रूप में)
आदेश: C/SCA/6189/2025 | दिनांक: 02/05/2025 | न्यायमूर्ति निर्झर एस. देसाई
> “In view of that considering the fact that petitioner is a student of only 17 years and also considering the fact that even before start of examination, she has produced the certificate which is in the correct format and therefore, interest of justice would be served if the petitioner is permitted to appear in the examination that is scheduled for admission to the Bachelor Course (Mains) by National Institute of Design without creating any equity in favour of the petitioner the interest of justice would be served.
Accordingly, issue NOTICE to the respondents making it returnable on 08.05.2025.
In the meantime, the petitioner may be permitted to appear in the DAT Mains examination for the academic year 2025–26 subject to further orders that may be passed by this Court and without creating any equity in favour of the petitioner. The petitioner is also directed to file an undertaking to the effect that merely because the petitioner is permitted to appear in the examination, the same shall not create any right or equity in favour of the petitioner before returnable date.
Direct service, Today is permitted.”
कोर्ट के आदेश की व्याख्या (सरल भाषा में)
गुजरात हाईकोर्ट ने छात्रा आरोही परमार को 3 मई 2025 को आयोजित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिज़ाइन की मुख्य प्रवेश परीक्षा (DAT Mains) में बैठने की अनुमति दी है। यह अनुमति इस आधार पर दी गई कि याचिकाकर्ता ने परीक्षा से पूर्व ही सही प्रारूप में ओबीसी प्रमाणपत्र प्रस्तुत कर दिया था, और वह मात्र 17 वर्ष की छात्रा है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अनुमति अस्थायी है और इसका उद्देश्य केवल “न्याय के हित” में परीक्षा देने का अवसर सुनिश्चित करना है। इससे आरोही को प्रवेश या ओबीसी आरक्षण संबंधी कोई अधिकार (equity) स्वतः प्राप्त नहीं होगा। अंतिम निर्णय मामले की आगामी सुनवाई के बाद ही लिया जाएगा।
कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि छात्रा एक शपथ-पत्र दाखिल करे जिसमें वह यह माने कि परीक्षा में बैठने की अनुमति से उसे कोई कानूनी लाभ अग्रिम रूप से नहीं मिलेगा। आदेश की तत्काल तामील की भी अनुमति दी गई, ताकि छात्रा समय पर परीक्षा में सम्मिलित हो सके।
जब परीक्षा सिर्फ मेरिट पर नहीं, न्याय पर भी निर्भर थी…
छात्रा आरोही परमार ने ’इ खबर टुडे से बातचीत में बताया कि जैसे-जैसे 3 मई की सुबह 9 बजे शुरू होने वाली मेन्स परीक्षा नज़दीक आती गई, उसके भीतर तनाव और असमंजस लगातार गहराता गया। आरोही ने बताया, “मुझे अपनी मेहनत और मेरिट पर भरोसा था, लेकिन 2 मई की शाम तक सब कुछ अधर में था। मुझे नहीं पता था कि क्या मैं उस परीक्षा में बैठ पाऊंगी, जिसके लिए मैंने पूरे वर्ष तैयारी की थी।”
शाम करीब 5 बजे कोर्ट से परीक्षा में बैठने की अनुमति का आदेश मिला — लेकिन आदेश मिलना भर ही पर्याप्त नहीं था। असली सवाल यह था कि क्या इतने कम समय में यह आदेश परीक्षा प्राधिकरण तक पहुंचेगा और लागू हो पाएगा?
आरोही ने बताया—“मैं बिल्कुल असमंजस में थी। उस समय मेरे मन में यही चल रहा था — अब क्या होगा? क्या यह आदेश समय पर पहुंच पाएगा? क्या परीक्षा देने का सपना अभी भी अधूरा रह जाएगा?लेकिन, कुछ घंटों में ही तस्वीर बदल गई।” आरोही ने बताया— एडवोकेट सलोनी कटारिया की त्वरित सक्रियता और प्रशासनिक प्रयासों के चलते आदेश तामील हुआ और रात करीब 10 बजे, परीक्षा प्राधिकरण की ओर से ईमेल आया, जिसमें उसका एडमिट कार्ड संलग्न था।
“जब ईमेल खोला और एडमिट कार्ड देखा,” आरोही ने कहा, “तो वो एक कागज नहीं था, वो मेरा आत्मविश्वास था। मुझे उस रात समझ आया कि सही समय पर लिया गया न्यायिक फैसला सिर्फ एक परीक्षा नहीं, एक भविष्य भी बचा सकता है।”
और आज, यह परीक्षा देकर मैं कह सकती हूँ कि कोर्ट के हस्तक्षेप ने मेरी मेहनत को अर्थ दिया।
बीती रात करीब 10 बजे से पहले के घटनाक्रम और मानसिक तनाव की झलक, आज भी आरोही के शब्दों में साफ़ महसूस की जा सकती थी — जैसे उस क्षण की बैचैनी अब भी उसमें जीवित हो।
जब वकील सिर्फ पक्षकार नहीं, उम्मीद का चेहरा बन जाए…
यह केस एक बार फिर साबित करता है कि जब कानून की भाषा में मानवीय संवेदना जुड़ जाती है, तब वह सिर्फ तकनीकी प्रक्रिया नहीं रहती — वह न्याय बन जाती है।
एडवोकेट सलोनी कटारिया का यह प्रयास सिर्फ एक छात्रा को परीक्षा में बैठने की अनुमति दिलाना नहीं था — यह उस व्यवस्था में भरोसे की पुनर्प्रतिष्ठा भी है, जो अक्सर नियमों के पीछे मानवता को भूल जाती है।