अहमदाबाद, 15 अक्टूबर (इ खबर टुडे)। केंद्र सरकार ने सोमवार को अधिसूचना जारी कर गुजरात हाईकोर्ट के दो न्यायाधीशों का स्थानांतरण किया है। न्यायमूर्ति संदीप नटवरलाल भट्ट को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में और न्यायमूर्ति चीकेटी मनवेन्द्रनाथ रॉय को आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट में भेजा गया है।
लेकिन इन दोनों में सबसे अधिक चर्चा उस नाम की है जिसे गुजरात बार ने न्यायिक पारदर्शिता और निष्ठा का प्रतीक माना था। गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन (GHAA) ने न्यायमूर्ति भट्ट के स्थानांतरण की सिफारिश के बाद प्रखर विरोध दर्ज किया था, यह कहते हुए कि उनका योगदान न्यायिक पारदर्शिता और संस्थागत जवाबदेही को सशक्त बनाने में रहा है। इसके बावजूद, सोमवार को जारी अधिसूचना के साथ न्यायमूर्ति भट्ट का स्थानांतरण औपचारिक रूप से कर दिया गया।
यह निर्णय केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि उस मौन संकेत की तरह देखा जा रहा है जो यह दर्शाता है कि न्यायिक साहस और संस्थागत असुविधा अक्सर एक ही रेखा पर आकर ठहर जाते हैं।
फिर भी, संविधान के अनुच्छेद 222(1) के तहत किया गया यह स्थानांतरण एक नियमित और वैध संवैधानिक-प्रशासनिक प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसके तहत न्यायाधीशों के तबादले पर अंतिम निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा पारित किया जाता है।
फरवरी 2025: रोस्टर परिवर्तन और संस्थागत बहस की शुरुआत
13 फरवरी 2025 को न्यायमूर्ति भट्ट ने R/SCR.A/13562/2023 (राधनपुर कोर्ट की Criminal Case No. 75/2010 — “फाइल गुम कांड”) में रजिस्ट्री की कार्यप्रणाली और जवाबदेही पर कड़ी टिप्पणियाँ दर्ज कीं। इसके अगले दिन, 14 फरवरी 2025 को उनका रोस्टर बदल दिया गया, जो 17 फरवरी से प्रभावी हुआ। यह निर्णय, यद्यपि प्रशासनिक था, लेकिन इसकी टाइमिंग ने न्यायिक पारदर्शिता पर उठ रही चर्चा को और गहरा कर दिया।
उसी दिन, 17 फरवरी 2025, गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन (GHAA) ने एक असाधारण आमसभा आयोजित की। अध्यक्ष बृजेश जे. त्रिवेदी की अध्यक्षता में वरिष्ठ अधिवक्ताओं असीम पांड्या, भार्गव भट्ट, दीपेन दवे और पर्सी कविना सहित कई सदस्यों ने उपरोक्त घटनाक्रम पर विस्तृत चर्चा के बाद सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में भारत के मुख्य न्यायाधीश से न्यायपालिका की पवित्रता और स्वतंत्रता की बहाली के उद्देश्य से, कानूनी प्रावधानों के दायरे में रहकर मुख्य न्यायाधीश सुनीता अग्रवाल के स्थानांतरण की सिफारिश का उल्लेख किया गया।
GHAA का यह प्रस्ताव गुजरात बार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण संस्थागत प्रतिक्रिया के रूप में दर्ज हुआ — जहाँ बार ने स्पष्ट किया कि उसका रुख किसी व्यक्ति–विशेष के समर्थन का नहीं, बल्कि न्यायिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता की रक्षा के लिए था।
18 अगस्त: CCTV टिप्पणी और सात दिनों में अपील
लगभग छह महीने बाद, 18 अगस्त 2025 को, न्यायमूर्ति भट्ट ने C/SCA/23158/2019 (Babubhai Pateliya & Ors. v/s State of Gujarat & Ors.) में रजिस्ट्री में CCTV कैमरे लगाने में वर्षों की देरी को “prima facie unbelievable” (प्रथम दृष्टया अविश्वसनीय) और “red–tapism” (प्रशासनिक लालफीताशाही) बताया। टिप्पणी का आधार यह था कि CCTV लगाने का निर्णय 2016 में लिया गया था, फिर भी कार्यान्वयन अब तक अधूरा था।
सिर्फ सात दिन बाद, 25 अगस्त 2025 को, हाईकोर्ट प्रशासन ने उनके आदेश के खिलाफ Letters Patent Appeal No. 1035/2025 दाख़िल की। उसी दिन अपील सूचीबद्ध, सुनी और निर्णीत भी कर दी गई। खंडपीठ (न्यायमूर्ति ए.एस. सुपेहिया एवं न्यायमूर्ति आर.टी. वच्हानी) ने सिंगल–जज के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि “रजिस्ट्री का प्रशासनिक नियंत्रण केवल मुख्य न्यायाधीश के पास है।”
इस तेज़ी ने अदालत की प्रक्रियात्मक पारदर्शिता को लेकर कानूनी समुदाय में नए सवाल खड़े किए, क्योंकि सामान्य परिस्थितियों में इस प्रकार की अपीलें कई सप्ताह तक प्रक्रिया में रहती हैं।
अगस्त 2025: कॉलेजियम की सिफारिश और बढ़ता विरोध
अगस्त 2025 के अंतिम सप्ताह में जब सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने देशभर के 14 हाईकोर्ट न्यायाधीशों के स्थानांतरण की सिफारिश की — उस सूची में न्यायमूर्ति संदीप भट्ट का नाम प्रमुखता से शामिल था।
उसी दौरान GHAA ने अपनी रणनीति तय की। 28 अगस्त 2025 को GHAA का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली पहुँचा और भारत के मुख्य न्यायाधीश व कॉलेजियम सदस्य न्यायमूर्ति सूर्यकांत से मुलाक़ात कर औपचारिक प्रतिवेदन सौंपा।
प्रतिवेदन में कहा गया कि न्यायमूर्ति भट्ट ने अपने आदेशों में कभी न्यायिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया; उन्होंने केवल रजिस्ट्री पारदर्शिता और संस्थागत सुधार की दिशा में पूर्ववर्ती आदेशों के अनुपालन की बात की थी।
इस प्रतिवेदन ने गुजरात के न्यायिक समुदाय में व्यापक प्रतिक्रिया उत्पन्न की और बार के भीतर यह धारणा मज़बूत हुई कि स्थानांतरण की सिफारिश कहीं न कहीं न्यायिक साहस की कीमत बन गई है।
संविधान और पारदर्शिता के बीच खिंची रेखा
यह निर्णय संवैधानिक प्रक्रिया का हिस्सा है, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि — फरवरी के आदेश, रोस्टर परिवर्तन, CCTV टिप्पणी, तेज़ अपील और GHAA का प्रतिवेदन — इसे एक व्यापक संस्थागत संदर्भ प्रदान करती है।
न्यायमूर्ति भट्ट का तबादला कानूनी दृष्टि से एक प्रशासनिक निर्णय है; परंतु इसकी संवेदनात्मक परतें भारतीय न्यायपालिका के भीतर चल रहे उस गहरे प्रश्न को फिर उभारती हैं — कि पारदर्शिता और प्रशासनिक नियंत्रण की सीमाएँ आखिर तय कौन करेगा?
यह घटनाक्रम बताता है कि संविधान के प्रावधान और संस्थागत परंपराएँ अक्सर एक ही धारा में बहते हुए भी अलग–अलग अर्थ ले लेती हैं।
बार का विरोध अपने उद्देश्य तक नहीं पहुँचा, पर इस बहस ने यह जरूर दिखा दिया कि न्यायिक पारदर्शिता अब अदालतों की दीवारों तक सीमित नहीं रही — वह जनचेतना का हिस्सा बन चुकी है।
(साभार "खुली किताब")