भारत की ऊर्जा सुरक्षा आज कई मोर्चों पर चुनौती बन चुकी है - रक्षा वैज्ञानिक श्री मिश्रा
उज्जैन,17नवम्बर (इ खबर टुडे/ ब्रजेश परमार)। भारत की ऊर्जा सुरक्षा आज कई मोर्चों पर चुनौती बन चुकी है। तेल–गैस जैसी जीवनरेखा जिन देशों पर निर्भर है, वे हमारे स्थायी मित्र नहीं। पड़ोसी देशों की अस्थिरता अलग खतरा है। हमारे प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, पर 140 करोड़ बुद्धिमान भारतीय यही हमारी सबसे बड़ी शक्ति हैं। और इसी शक्ति को सुरक्षित रखने के लिए रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भरता केवल विकल्प नहीं बल्कि आवश्यकता है। जिस राष्ट्र की सुरक्षा क्षमता उसके अपने हाथों में होती है, वही राष्ट्र आत्मविश्वास के साथ विश्व के बीच खड़ा होता है। यही विकसित भारत की नींव है।
उक्त विचार भारत के सुप्रसिद्ध रक्षा वैज्ञानिक, पूर्व महानिदेशक ब्रह्मोस, डीआरडीओ, रक्षा मंत्रालय भारत, डॉ. सुधीर कुमार मिश्रा ने व्यक्त किए। उन्होंने 23 वीं अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला के शुभारंभ प्रसंग पर “विकसित भारत की यात्रा में रक्षा प्रौद्योगिकी का योगदान” विषय पर अपना रेकार्डेड विडियो व्याख्यान प्रस्तुत किया। डॉक्टर मिश्रा ने कहा कि—2047 तक हमारे पास 80 करोड़ युवा मस्तिष्क होंगे। यह कोई साधारण संख्या नहीं—यह दुनिया की सबसे बड़ी बौद्धिक सेना है। पर केवल संख्या नहीं, दिशा भी चाहिए। जीडीपी में हम भले पाँचवें स्थान पर हों, पर विकसित बनने का रास्ता जीडीपी से नहीं, प्रति व्यक्ति आय से तय होता है। आज हमारी प्रति व्यक्ति आय का स्थान 142वाँ है—और यह वह सच्चाई है जिसे समझे बिना विकास का दावा अधूरा है।
एक विकसित राष्ट्र तभी बनता है जब नागरिकों को उत्तम भोजन मिले, शिक्षा सुदृढ़ हो, स्वास्थ्य सबके लिए उपलब्ध हो, आवास सुरक्षित हो, संचार और आवागमन विश्वस्तरीय हो, और लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी निरंतर बढ़ती रहे। पर इन सबके साथ एक और शर्त है—रक्षा क्षमता मज़बूत हो। बिना सुरक्षा के विकास केवल एक सुन्दर सपना है, वास्तविकता नहीं।
ड्रोन, अंडरवॉटर वेपंस और स्मार्ट मिसाइलें हर कुछ साल में बदल रही हैं। यदि हम केवल खरीदते रहेंगे, तो कुछ साल में वही हथियार आउट ऑफ डेट हो जाते हैं और अरबों रुपये डूब जाते हैं। राष्ट्र खरीदकर नहीं, अपनी क्षमता बनाकर सुरक्षित होता है। इसलिए भारत को यह क्षमता बनानी होगी कि हर वर्ष अपने ड्रोन, अपने विमान और अपने हथियार स्वयं बना सके।
उन्होंने चेतावनी दी आने वाला दशक क्वांटम तकनीक का होगा। हमारे रडार, मिसाइलें, ड्रोन, हथियार प्रणाली—सब कुछ क्वांटम पर आधारित होगा। जो देश क्वांटम पर राज करेगा, वही तकनीक और सुरक्षा पर राज करेगा। रक्षा निर्यात बढ़ाना होगा। एक मजबूत विनिर्माण अर्थव्यवस्था खड़ी करनी होगी। रक्षा–स्टार्टअप्स की एक नई पीढ़ी तैयार करनी होगी। सरकार की नीतियों को तकनीक की गति के बराबर तेज करना होगा। नीति धीमी और तकनीक तेज—यह विरोधाभास हमें आगे नहीं बढ़ने देगा।
उन्होंने कहा दुनिया का केवल 0.1 प्रतिशत इंटरनेट ही खुला है, बाकी सब डार्क नेट। और वहाँ पारंपरिक सुरक्षा काम नहीं करती। भविष्य के युद्ध मैदान ज़मीन पर नहीं, साइबर–स्पेस में बन रहे हैं। श्री मिश्रा ने ब्रह्मोस मिसाइल के निर्यात का अनुभव भी साझा किया। हथियार खरीदने वाले देशों से संवाद आसान था सबसे कठिन था अपनी ही नौकरशाही से लड़ना। रक्षा क्षमता की सबसे बड़ी बाधा बाहरी नहीं, अक्सर हमारी अपनी व्यवस्था होती है। उन्होंने स्पष्ट कहा भारत को केवल 10–12 औद्योगिक शहरों से नहीं चलना। 140 करोड़ लोगों के लिए सौ नए औद्योगिक नगर चाहिए—ऐसे नगर जो पुणे और बेंगलुरु को चुनौती दें और उनसे आगे निकलें। नए भारत के लिए नए शहर, नई तकनीक और नई सोच अनिवार्य है।अंत में उन्होंने अपने संदेश में कहा कि—2047 का विकसित भारत कोई कल्पना नहीं; यह एक प्रतिज्ञा है। यह प्रतिज्ञा तभी पूरी होगी जब हम सच बोलने का साहस रखें, छोटे–छोटे लक्ष्य तय करें, और उन्हें पूरा करने का संयम रखें। भारत जितना रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भर होगा, उतना ही विकसित भारत का सपना वास्तविकता में बदलेगा।
व्याख्यानमाला की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ शिक्षाविद, विचारक तथा महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलगुरु डॉ. मोहन गुप्त ने कहा कि विकसित भारत की कल्पना तभी सार्थक होगी, जब हम लोगों को सामाजिक सरोकारों से गहरे रूप में जोड़ पाएँ।
उन्होंने कहा कि रक्षा क्षेत्र में यदि तकनीकी प्रशिक्षण तो दे दिया जाए, परंतु उसे सही दिशा न दी जाए, तो वही तकनीक समाज के लिए विध्वंसक भी बन सकती है। इसलिए विकसित भारत के लिए आवश्यक है कि तकनीक के साथ-साथ उसके नैतिक उपयोग की संस्कृति भी विकसित हो।
डॉ. गुप्त ने स्पष्ट किया कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था अभी भी मनुष्य को “केवल कुशल” तो बनाती है, पर “मानव” बनाने के अपने मूल उद्देश्य को पूरा करती हुई दिखाई नहीं देती। केवल स्किल डेवलपमेंट किसी राष्ट्र को विकसित नहीं बनाता, बल्कि ऐसी शिक्षा चाहिए जो नागरिकों में कर्तव्य-बोध, संवेदनशीलता और सामाजिक दायित्व को जागृत करे।