July 1, 2024

प्रकाश भटनागर

‘माई के लाल’ की दुर्गति देखकर नरेंद्र मोदी संभल गये। वह भी समय रहते। समय, यानी आम चुनाव के पहले। उन्होंने गरीब सवर्णाें के लिए दस फीसदी आरक्षण को मंजूरी दे दी है। जिस देश में वोट की राजनीति के लिए समुदायों को आरक्षण की बैसाखी देने की परिपाटी हो, वहां इस निर्णय का भी स्वागत किया जाना चाहिए।

कुछ अधिक स्तर पर तारीफ यूं की जा सकती है कि मोदी ने जाति की बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण की दिशा में एक कदम तो आगे बढ़ा ही दिया है।

शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद के दम्भ में जिस समय पदोन्नति में आरक्षण को लेकर मदमस्त आचरण दिखाया था, तब उनके साथ-साथ मोदी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि इसका क्या परिणाम होगा। सपाक्स भले ही राजनीतिक गलियारों में दमदार उपस्थिति दर्ज न करवा सका हो, किंतु सामाजिक स्तर पर उसने वह हलचल मचा दी, जिसके चलते कहीं नोटा का असर दिखा तो कहीं सवर्ण बाहुल्य वाली सीटों पर भाजपा के मत प्रतिशत कमी दर्ज की गयी। जाहिर कि एट्रोसिटी एक्ट को लेकर फैली विपरीत गरम हवा के थपेड़ों ने भी मोदी की नींद उड़ा दी है।

उनकी स्वाभाविक चिंता आने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर है। मोदी की काबीना मंत्री स्मृति ईरानी भी दो दिन पहले एक सार्वजनिक कार्यक्रम में ‘2019 सभी के लिए मुश्किल होने वाला है’ कह चुकी हैं। सीधी सी बात है कि उनका भी इशारा आम चुनाव की ओर था और मोदी की सवर्णों के प्रति यह चिंता भी खालिस सियासी स्वरूप की है।

जाहिर है कि आम चुनाव आने तक ऐसी लोक-लुभावनी घोषणाओं का क्रम जारी रहेगा। आज सरकार की बारी थी, कल विपक्ष का दिन आएगा। वह भी अपनी सरकार बनने की सूरत में उठाए जाने वाले ऐसे ही कदमों की बात करेगा। फिलहाल तो हुआ यह है कि मोदी ने बहुत बड़ा जोखिम लेते हुए विपक्ष के हाथ से एक अहम मुद्दा बखूबी छीन लिया है। ऐसा करने से पहले का कुछ होमवर्क वह खुद कर चुके हैं और उनकी सहूलियत का कुछ बंदोबस्त खुद-ब-खुद हो गया है।

जातिगत राजनीति की दम पर राजनीतिक श्वांस लेते रामविलास पासवान को राज्यसभा भेजने का मार्ग प्रशस्त किया जा चुका है। दिल्ली में कल पकी राजनीतिक खिचड़ी से दलितों को साधने के जतन की भी शुरूआत हो गयी है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पहले ही सामाजिक समरसता अभियान को गति प्रदान कर चुका है। इस सबके बीच हुआ यह कि सामाजिक विघटन के दम पर सियासी रोटी सेंकने वाले उपेंद्र कुशवाह ने खुद ही एनडीए से किनारा कर लिया।

इसलिए सवर्णों को साधने की मोदी की कोशिश में उन्हें खास कठिनाई पेश नहीं ही आएगी। देखना तो यह है कि कांग्रेस का इस दिशा में अब क्या रुख होगा। उसके लिए यह विषय सांप-छछुंदर की तरह का जटिल बन सकता है। वह मोदी की इस घोषणा का विरोध कर अपने सवर्ण वोटर की नाराजगी मोल लेने का जोखिम नहीं उठा सकती। दूसरी ओर, इस कदम के लिए उसका समर्थन वापमंथी दलों सहित राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों को नाराज कर सकता है।

इस सबको ध्यान में रखने के बावजूद मोदी के आज के निर्णय को उनके साहस का परिचायक कहा जाना चाहिए। हां, देखने वाली बात यह होगी कि आरक्षण के नाम पर आजादी के बाद से आज तक खुद को शोषित एवं उपेक्षित पाने वाले सवर्ण वर्ग के बीच इस झुनझुने को लेकर क्या प्रतिक्रिया होगी। क्योंकि मामला उस तबके का है, जो सतत जलालत के बाद केवल दस फीसदी की लॉलपॉप चूसकर तो मुंह बंद करने से रहा।

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