निडर निर्भीक शहीद खुदीराम बोस
(ड़ॉ.डीएन पचौरी)
अभी हमने हर्षोल्लास के साथ स्वतंत्रता की ६५ वीं वर्षगांठ मनाई,किन्तु क्या एक क्षण के लिए भी सोचा कि इस स्वतंत्रता के लिए कितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। अगस्त माह की ११ तारीख को सन १९०८ में एक ऐसी घटना हुई थी कि जिससे पूरा देश हिल उठा था। ११ अगस्त को एक १८ वर्षीय किशोर को फांसी पर लटकाया गया था। १२ अगस्त १९०८ के अंग्रेजी समाचार पत्र द एम्परर ने लिखा था -कल एक भारतीय किशोर को फांसी पर लटकाया गया। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और मुस्कुराहट थी। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि उसे लेशमात्र भी दुख है। वह फांसी के तख्ते तक सीधा चलकर गया।- ऐसे निर्भीक और निडर किशोर का नाम था खुदीराम बोस,
जिसकी फांसी के बाद उस समय के बंगाल की प्रसिध्द समाचार पत्रिका अमृत बाजार ने लिखा- खुदीराम बोस का अन्त-प्रसन्नता और मुस्कुराहट के साथ इस दुनिया से बिदा हुआ। अंतिम क्षण तक मुस्कुराता रहा। यहां तक कि जब गले पर फन्दा डालने के पूर्व उसे टोपी पहनाई गई तब भी उसने मुस्कुरा कर टोपी पहनी।-
खुदीराम बोस की निर्भीकता,निडरता और साहस के लिए निम्र घटना काफी महत्वपूर्ण है। फांसी लगने के एक दिन पूर्व १० अगस्त को उसे दो पके हुए आम दिए गए। शाम को सन्तरी ने देखा कि खिडकी में आम ज्यों के त्यों रखे हुए हैं। संतरी ने सोचा कि कल फांसी लगने वाली है तो आम कहां अच्छे लगेंगे। वह आम उठाने लगा तो आम एकदम से पिचक गए और खुदीराम बोस खिलखिलाकर हंस पडे। हुआ यूं था कि खुदीराम ने आम चूस कर उनकी गुठली फेंक दी और हवा से फुलाकर आम जैसे के तैसे दिखें ऐसी अवस्था में रख दिए। जिस व्यक्ति को १२ घण्टे बाद फांसी लगने वाली है उसे इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं है। जिस मृत्यु से अच्छे अच्छों के दिल दहल जाते हैं उसे सामने देख कर भी वह खिलखिला रहा है,आश्चर्य की बात थी। संतरी की आंखों में आंसू आ गए कि ऐसा वीर बहादुर बालक कल मौत का आलिंगन करेगा।
जीवन वृतान्त
बंगाल के मिदनापुर जिले में एक गांव हबीबपुर है,जहां लगान वसूल करने वाले कर्मचारी त्रिलोकीनाथ बसु रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। उनको तीन लडकियां अपरुपा,सरोजनी व नैनीबाला थी। फिर दो लडकों की अबोध अवस्था में मृत्यु के बाद खुदीराम का जन्म हुआ। अंधविश्वास के चलते इस बच्चे को मौत से बचाने के लिए लोक परम्परा के अनुसार तीन मु_ी अनाज के बदले इस बच्चे को अपरुपा को बेच दिया गया। अनाज को खुद कहा जाता है अत: बालक का नाम खुदीराम रखा गया और उस बालक का पालन पोषण बडी बहन अपरुपा के घर होने लगा।
खुदीराम किशोर वय के पहले ही प्रसिध्द होने लगे थे। जब वे १३ या १४ वर्ष के थे तो १९०२ व १९०३ में श्री अरविन्द की मीटिंगों में जाने लगे थे। श्री अरविन्द प्रारंभ में एक क्रान्तिकारी के रुप में उभर रहे थे तथा बंगाल और कलकत्ता में जगह जगह खुफिया तौर पर मीटिंग ले रहे थे। श्री अरविन्द क्रान्तिकारी होने के साथ साथ बंगाल के अनेक युवकों के आदर्श पुरुष थे,जिनमें खुदीराम बोस भी थे। उन्होने बाल क्रान्तिकारी संस्था का निर्माण किया था। वे हर काम में सबसे आगे रहते थे। कालेज में वे राजनैतिक व सामाजिक कार्यों में बढ चढ कर भाग लेने लगे। जिससे वे अपनी पार्टी के लोगों की आंख का तारा थे और कम उम्र में ही प्रसिध्द होने लगे थे। कालेज में खुदीराम बोस उनके प्रोफेसर सत्येन्द्रनाथ बोस और उनके भगवत गीता पर होने वाले प्रवचनों से बहुत प्रभावित होते थे। अंग्रेज रुपी दुष्टों का दमन करना कोई पाप नहीं हैं। ब्रिटीश राज समाप्त कर भारत को परतंत्रता की बेडियों से मुक्त कराना है। इसके लिए खुदीराम बोस ने बम बनाना सीखना शुरु कर दिया। १९०५ के अंग्रेजों द्वारा किए गए बंगाल विभाजन से क्रान्तिकारी नाराज थे। इससे क्रान्तिकारी सदस्यों जिनमें सबसे आगे खुदीराम रहते थे,शासकीय कार्यालयों और पुलिस हैडक्वार्टरों पर बम फेंकना शुरु कर दिया था।
मुजफ्फरपुर बम काण्ड
एक अंग्रेज किंग्स फोर्ड था,जो कलकत्ता में प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट था। वह भारतीयों से बहुत चिढता था और हर केस में भारतीयों को बडी से बडी सजाएं देता था। छोटे मोटे अपराधों पर बडी बडी सजाओं से जनता त्रस्त थी और उसे उसके अत्याचारों का दण्ड देना चाहती थी। कुछ समय बाद उसका तबादला मुजफ्फपपुर बिहार में हो गया किन्तु उसके पापों का दण्ड देने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को मुजफ्फरपुर भेजा गया।
मुजफ्फरपुर बिहार में ये दोनो छद्म नाम से किशोरी मोहन बन्धोपाद्याय की धर्मशाला में रुके। बन्धोपाद्याय स्वयं एक वकील थे और क्रान्तिकारियों का समर्थन करते थे। खुदीराम ने अपना नाम हीरेन सरकार व प्रफुल्ल चाकी का नाम दिनेश राय रखा। दोनो नहीं चाहते थे कि किंग्स फोर्ड के अलावा कोई बेकसूर मारा जाए इसलिए कई दिनों तक उसकी दिनचर्या नोट करते रहे। ३०अप्रैल१९०८ को रात ८.३० बजे ये दोनो एक क्लब से किंग्स फोर्ड के लौटने का इन्तजार कर रहे थे। जैसे ही किंग्स फोर्ड की घोडागाडी इनके सामने से गुजरी इन्होने उस पर बम फेंक दिया,किन्तु दुर्भाग्य से गाडी में ङ्क्षकग्स फोर्ड नहीं था,बल्कि एक अंग्रेज वकील कैनेडी की पत्नी व बेटी थी,दोनो मारी गई। पहले निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दोनो एक दूसरे के विपरित दिशा में भागे। खुदीराम बोस रात भर चलते रहे और २५ मील की दूरी तय करके समस्तीपुर से २० किमी व पूसा बाजार से १० किमी दूर ओयानी स्टेशन पंहुचे। वहां एक चाय वाले की दुकान पर उन्होने एक गिलास पानी मांगा। दो सिपाही वहां खडे थे। उन्होने इस किशोर को नंगे पांव धूल से सने कपडों में देखा तो उन्हे शक हो गया और उन्होने पूछताछ शुरु कर दी। दोनो सिपाही पहचान गए कि यही बम फेंकने वाला अपराधी है,अत: उन्होने खुदीराम को पकडना चाहा। खुदीराम ने एक गोली चलाई किन्तु दूसरे सिपाही ने थके हारे दुबले पतले इस किशोर बालक को पीछे से जकड लिया और उसे कैद कर लिया गया। इनके पास ३७ राउण्ड की गोलियां,३० रु.नगद व रेलवे टाइम टेबल पाया गया। इन्हे वापस मुजफ्फरपुर लाया गया। मजिस्ट्रेट वुडमैन के सामने इनके बयान कराए गए। उधर प्रफुल्ल चाकी उर्फ दिनेश राय को त्रिगुण चरण घोष नामक व्यक्ति अपने घर ले गया और नहला धुला कर भोजन कराया व नए व दिए। प्रफुल्ल को समस्तीपुर से गौतमघाट जाना था,जहां से हावडा के लिए ट्रेन पकडनी थी। ट्रेन में एक पुलिस सब इन्स्पेक्टर नन्दलाल बनर्जी ने चाकी को पहचान लिया और एक स्टेशन पर जब प्रफुल्ल चाकी पानी पीने उतरे तो नन्दलाल बनर्जी ने पुलिस को फोन कर दिया। गौतमघाट पर प्रफुल्ल चाकी ने नन्दलाल बनर्जी को पुलिस के साथ आते देखा तो उस पर गोली चलाई,निशाना चूकने पर स्वयं को गोली मारकर अपनी जान दे दी।
कोर्ट में केस की सुनवाई (अदालत की कार्यवाही)
२१ मई १९०८ को जज मिस्टर कार्नडोफ व जूरी सदस्य जनक प्रसाद तथा नाथुनी प्रसाद के सम्मुक केस की सुनवाई प्रारंभ हुई। खुदीराम की ओर से किशोरी मोहन बन्धोपाद्याय,जिनकी धर्मशाला में दोनो रुके थे,केस लड रहे थे। शासन की ओर से विनोद बिहारी मजूमदार थे। खुदीराम की ओर से उपेन्द्रनाथ सेन,नरेन्द्र नाथ लाहिडी तथा सतीशचन्द्र चक्रवर्थी भी बाद में जुड गए किन्तु सेशन कोर्ट से फांसी का आर्डर हुआ। खुदीराम हाईकोर्ट में अपील करने को तैयार नहीं थे,किन्तु बडी मुश्किल से तैयार हुए।
हाईकोर्ट में इनके केस की पैरवी नरेन्द्र कुमार बसु ने की। वकील साहब ने पूरे देश के इस हीरो को बचाने के लिए जान लगा दी थी। उन्होने पहला एतराज उठाया कि सी.आर.पी.सी की धारा १६४ के अन्तर्गत खुदीराम का कन्फेक्शन गलत था। इनका बयान प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष होना था,जबकि वुडमैन द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट था। १९०८ में द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट धारा १६४ के तहत सक्षम नहीं थे,आजकल है। दूसरी आपत्ति धारा ३२४ में लगाई। जो बयान रेकार्ड किए गए उन्हे कथित अपराधी को उसकी मातृभाषा में सुनाना चाहिए,जबकि अंग्रेजी में सुनाया गया। एक और कमी यह थी कि अपराधी के हस्ताक्षर उसी समय लेने चाहिए जबकि खुदीराम के हस्ताक्षर बाद में लिए गए तथा मजिस्ट्रेट भी दूसरा था। ये भी हो सकता है कि बयान बदल दिए गए हो।
वकील नरेन्द्र नाथ का कहना था कि प्रफुल्ल चाकी उर्फ दिनेश राय बडा व खुदीराम की तुलना में बलवान था। बम उसी ने फेंका था व इसीलिए उसने आत्महत्या कर ली थी। इस प्रकार खुदीराम की जान बचाने की जी जान से कोशिश की गई किन्तु अंग्रेज जज जो पहले ही निश्चित कर चुके थे कि मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में नहीं बदलना है,घण्टो की बहस के बाद भी टस से मस नहीं हुए। फांसी की सजा बहाल रखी गई। ११ अगस्त १९०८ का दिन फांसी के लिए तय किया गया। अंग्रेजों ने उस बालक की आयु का भी ध्यान नहीं रखा और
उसे फांसी लगवा कर रहे।
समीक्षा
गौरतलब बात यह है कि अंग्रेज अपराध के चार माह और इससे भी कम समय में फांसी दे देते थे,जैसे शहीद उधमसिंह को लगभग चार माह,शहीद खुदीराम को तीन माह आदि। हमारा देश आज अजमल कसाब को चार वर्ष से व अफजल गुरु को लगभग ६ वर्ष से फांसी नहीं दे पाया है। कानून भी वही है। फिर क्या कारण है कि हम क्रूरतम अपराधियों को भी दण्ड नहीं दे पा रहे हैं? क्या हमारा अहिंसक होना भी इसका एक कारण है? खुदीराम बोस की फांसी के बाद देश में जगह जगह प्रदर्शन हुए। बंगाली समाचार पत्र के सम्पादक उपेन्द्रनाथ ने कफन व क्रियाकर्म का प्रबन्ध किया था। काजी नजरुल इस्लाम ने खुदीराम बोस पर श्रध्दांजलि स्वरुप कविता या नज्म लिखी पर आज इसी वर्ग के लोगों के प्रदर्शन के डर से शायद सरकार कट्टर क्रूर आतंकवादियों को फांसी नहीं दे पा रही है। ये देश का कैस दुर्भाग्य है।