November 22, 2024

तो संगठन का ज्ञान ले गए सिंधिया

प्रकाश भटनागर

लीजिए। खुल गया दो दिन पहले की मुलाकात का राज। ज्योतिरादित्य सिंधिया और शिवराज सिंह चौहान की मुलाकात। कहा जा सकता है कि सिंधिया ने बंद कमरे में शिवराज से संगठन चलाने के गुर सीखे होंगे। क्योंकि अब वह कांग्रेस के महासचिव बना दिए गए हैं। ऐसा काम जो उनकी खानदानी और विरासत में मिली फितरत से कतई मेल नहीं खाता। संगठन का जिम्मा देने की बात उन्हें विश्वास में लेकर ही तय की गयी होगी।

यही वजह दिखती है कि सिंधिया को इस अपने लिहाज से जटिल काम के लिए चौहान जैसे किसी गुरू की जरूरत पड़ गयी। क्योंकि खुद की पार्टी में तो उन्हें गुरूघंटालों ने कहीं का नहीं छोड़ा है। कह सकते हैं कि शिवराज को संगठन की जटिलताएं, सत्ता की जटिलताओं के पहले से पता है।

यह कटाक्ष मिला हुआ कयास है। उम्मीद है कि सिंधिया इसका बुरा नहीं मानेंगे। क्योंकि यह संगठन में सिंधिया की शुरुआत है। उत्तर प्रदेश उन्हें आधा मिला है, वह भी राजनीति में खुद से कम से कम दो दशक जूनियर प्रियंका गांधी के साथ। प्रियंका को आगे लाना कांग्रेस की रणनीति हो सकती है। निश्चित ही आज मायावती और अखिलेश यादव की जोड़ी भी सकते में आ गयी होगी। क्योंकि यह तय है कि गांधी परिवार की यह लड़की कम से कम उत्तरप्रदेश में तो पार्टी के पक्ष में कुछ तो माहौल बना ही सकती है। राहुल के किसी भी संभावित करिश्मे की मुट्ठी उत्तरप्रदेश में काफी पहले खुल चुकी है। अब बारी प्रियंका की मुट्ठी खुलने की है। किंतु सिंधिया को प्रियंका के समकक्ष जिम्मेदारी दिया जाना समझ से परे है।

सिंधिया फितरत से शासक हैं। माधवराव से लेकर वसुंधरा और यशोधरा तक की तासीर शासन करने वाले की ही है। संगठन के तौर पर यह परिवार यदि कभी थोड़ा बहुत भी दिखा भी तो वह केवल विजयाराजे सिंधिया के जीवित रहते ही हो पाया था। क्योंकि तब पार्टी सत्ता से कोसो दूर रहती थी लिहाजा श्रीमती विजयाराजे सिंधिया संगठन में शोभाएमान रहती थीं। ज्योतिरादित्य की फितरत में भी संगठन का वह अहम तत्व नहीं दिखता, जिसमें सबको साथ लेकर चलने की अनिवार्यता रहती है। इस आवश्यकता के लिहाज से सिंधियाओं का सियासी इतिहास और वर्तमान, दोनो ही जरा तंग दिखते हैं। ज्योतिरादित्य के अखाड़े में वही पट्ठे आज भी हैं, जो उनके पिता के समय से वहां थे और वर्तमान में भी सशरीर अस्तित्व में हैं। उससे अधिक पट्ठों की श्रेणी वाले समर्थक जोड़ने में उन्होंने रुचि नहीं दिखाई। इस तरह के स्थापित तथ्य तथा तत्वों के बीच उत्तरप्रदेश में घोर निराशा के बीच काम कर रहे कांग्रेसियों में नयी चेतना फूंकना कम से कम सिंधिया के लिए तो आसान नहीं दिख रहा है।

यही वजह है कि सिंधिया के शिवराज से मिलने को उनकी कठिनाई को कम करने के जतन के तौर पर भी देखने में कोई बुराई नहीं दिखती। खैर, मामला तो प्रियंका का भी रोचक दिखता है। यह जताता है कि कम से कम उत्तरप्रदेश के स्तर पर राहुल गांधी ने खुद की असफलता स्वीकार ली है। क्योंकि यही वह राज्य है, जिसके अधिकांश कांग्रेसियों ने हमेशा से राहुल की तुलना में प्रियंका को तवज्जो दी। गांधी ने राज्य के बीते विधानसभा चुनाव में सपा को गले लगाया। कांग्रेस के बैक्टीरिया सपा में भी कुछ यूं गए कि फिर सरकार बनाने का सपना देख रहे अखिलेश एक झटके में सियासत के आईसीयू वार्ड तक पहुंच गए। यह कमजोरी दूर करने के लिए अब उन्हें मायावती नामक ग्लूकोज का सहारा लेना पड़ रहा है। सपा और बसपा ने गठबंधन में जिस तरह कांग्रेस को खारिज किया, उसके बाद प्रियंका को आगे लाकर गांधी ने प्रकारांतर से इस राज्य की दुश्वारी भरी जिम्मेदारी से खुद को दूर कर लिया है। लेकिन कांग्रेस ने दो हिस्सों में उत्तरप्रदेश को बांटकर दो महत्वपूर्ण युवाओं को जवाबदारी दी है और उनके ऊपर अनुभवी गुलाम नबी आजाद हैं। सवाल यह उठता है कि अब प्रियंका भी पार्टीजनों की उम्मीद पर कितनी खरी उतर सकेंगी। श्रीमती वाड्रा के आसपास आज वाले जयकारों की गूंज जब शांत होगी, तब वह पाएंगी कि किस कदर सन्नाटे में लिपटा खोखला संगठन उनके सामने किसी चुनौती की तरह मौजूद है। प्रियंका को बेहद निर्मम तरीके से आगे बढ़ना होगा। क्रूरता इस बात की कि वह अपने भाई की एक-एक राजनीतिक असफलता से सबक लें। तय करें कि वह कम से कम अपने भाई को तो राजनीतिक आदर्श नहीं मानेंगी। उन्हें उन दरबारियों से भी अपनी दादी जैसे चातुर्य के साथ निपटना होगा, जिन्होंने राहुल को उनकी कमियां न बताकर कई मौकों पर सारी दुनिया के सामने हास्य का पात्र बना दिया। कांग्रेस को वास्तव में एक इंदिरा गांधी की ही जरूरत है। क्या प्रियंका दूसरी इंदिरा साबित हो पाएंगी? यह बस एक सवाल ही है। क्योंकि बात इंदिरा और प्रियंका के राजनीतिक परिदृश्य के बहुत बड़े अंतर की है। फिर भी प्रियंका कोई करिश्मा कर ही लेंगी तो कांग्रेस को पुर्नजीवन के लिए अग्रिम बधाई। लेकिन यदि जवाब ‘ना’ है तो इस पार्टी को यही कहकर सांत्वना दी जा सकती है कि दो साल और इंतजार कर लें। प्रियंका की बेटी मिराया तब तक 18 साल की होकर वयस के तौर पर राजनीतिक एंट्री पाने की हकदार हो चुकी होंगी। मां के नाकाम होने पर मिराया के रूप में अगली इंदिरा को पाने का नारा लगाने में कांग्रेस को भला देर कहां लगेगी! फिर कांग्रेसी तो इसके अभ्यस्त हैं।

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