जर्मनी से प्रकाशित होगी डा.त्रिवेदी की खोज
सिंधुघाटी के रहस्य से पर्दा हटाया है डा.त्रिवेदी ने
रतलाम, 3 सितम्बर (इ खबरटुडे)। स्थानीय कन्या महाविद्यालय में प्राचार्य रहे डा. सीपी त्रिवेदी द्वारा सिंधु घाटी की सभ्यता में प्राप्त हुई सीलों पर किए गए शोधपत्र को जर्मनी के लेप पब्लिकेशन द्वारा पुस्तक के रुप में प्रकाशित किया जा रहा है। वाटॅसन और क्रिक द्वारा सन 1953 में डीएनए की खोज इस युग की सबसे महत्वपूर्ण खोज है। जिसने जैव तकनीकी के क्षेत्र मे क्रांति ला दी। इसी खोज केआधार ने सिंधु घाटी पर से रहस्य का पर्दा हटाया, यह सिंधु-वेदिक
अनुवांषिकी विज्ञान का सार है। डा.सीपी त्रिवेदी की उक्त पुस्तक इंडस-वैदिक जैनेटिक्स में यह रहस्योद्धाटन किया गया है। डीएनए को आधार बनाकर सिंधु-घाटी के रहस्य को अनावृत करने का वैज्ञानिक कार्य डॉ. त्रिवेदी ने किया,। ड़ा. सीपी त्रिवेदी ने बताया कि सर जॉन मार्शल ने सिंधु-घाटी सभ्यता की खोज के साथ, भारत को विश्व मे एक नई वैज्ञानिक पहचान दी और भारत को विश्व प्रसिध्द सभ्यताओं की श्रेणी मे ला खडा किया।
भारत की इस उपलब्धि पर तब ग्रहण लग गया जब यह कहा गया कि आर्य बाहर से आये और उन्होने काले द्रविडो को मार कर भगाया । सिंधु घाटी की लिपी को न समझने तथा वेदो की भाषा का ज्ञान न होने के कारण यह सभ्यता रहस्य मे परिवर्तित हो गई, और भारत वासियो पर प्रश्नचिन्ह लग गया। जिसके परिणामस्वरुप भारत
का विभाजन हुआ।
इसका वैज्ञानिक हल वैदिक शोध के अध्येता डॉ. सी.पी.त्रिवेदी ने अपनी पुस्तक
सिंधु-वेदिक जेनेटिक्स सिंधु घाटी-वेदिक सभ्यता मे निकाला है। ज्ञातव्य है
कि डॉ. त्रिवेदी पर्यावरण वैज्ञानिक होने के साथ वेदिक शोध के प्रणेता
है, 45 वर्ष के गहन वैज्ञानिक शोध और वेद विज्ञान के परिपेक्ष्य मे राष्ट्ीय
और अंतर्राष्टिय स्तर पर विश्व के महान वैज्ञानिको के सामने अपने निष्कर्ष
को रखा, जिसे सराहा गया। अंतर्राष्टिय स्तर पर केप टाउन दक्षिण
अफ्रीका मे नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सिडनी ब्रेनर, एथेंस ग्रीस,
स्वीडन तथा कोलम्बस ओहियो मे डीएनए पर डा सीपी. त्रिवेदी के कार्य को प्रशंसा प्राप्त हुई।
डा. त्रिवेदी ने बताया कि सिंधु घाटी का अनुवांषिकी विज्ञान चरम उत्कर्ष पर था, इसके द्वारा प्रयोगशाला मे जीव विकसित किए जाते है, इसका प्रमाण भारत और अफ्रीका
की विकसित जैव विविधता है। यह विधि विनाशकारी भी हो सकती है। जीन तकनीकी मे भी सिन्धुघाटी के निवासियों को महारत हासिल थी, जो अन्तत: विनाश का कारण भी बना।
डा. त्रिवेदी ने सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई के दौरान मिली सिलो के सम्बन्ध में बताया कि इन सीलों पर जैव अनुवांषिकी के सूक्ष्म चित्र आधुनिक जैव तकनीकी के साकेंतिक प्रतिरूप है। जिसके द्वारा प्रकृति मे जीव का विकास होता है,और प्रयोगशाला
मे कृत्रिम जीवो का विकास किया जाता है। जैव तकनीकी मे सिंधु घाटी को
महारत हासिल थी, जो उनका मुख्य व्यवसाय था, इसके लिखित प्रमाण वेदो की
सांकेतिक भाषा मे उल्लेखित है। अध्ययन और अध्यापन के लिए सिलो पर वेदिक रुपको को चित्रांकित किया गया है। वेदिक रुपको का उपयोग अध्यापन मे तथा पहेलियों का उपयोग परीक्षा मे किया जाता था।
जैव विज्ञान के वेदिक शब्द संकेत और जैव अनुवांषिकी विज्ञान के चित्र चिन्ह
एक दूसरे के पूरक है, जो इंडस-वेदिक सभ्यता का पर्याय है। उत्खनन मे प्राप्त सिले – मोहर इसका स्वत:ं प्रमाण है।
उल्लेखनीय है कि वेदो की भाषा और सिलो पर सूक्ष्म चित्र संकेत पुरातत्वविद, इतिहासकार, भाषा शास्त्री तथा वैज्ञानिको के लिए अनबुझ पहेली रहे है। जिसके वैज्ञानिक हल की भारत को लम्बें समय से प्रतीक्षा थी। प्रकृति का अनियंत्रित दोहन, तथा आण्विक अस्त्र पृथ्वी के लिए अभिशाप है। जैव तकनीकी के द्वारा धरेलु उपयोग हेतु जीवो का विकास सहज संभव है, परन्तु यह तकनीक इतनी भयंकर भी हो सकती है कि सभ्यता को ही नष्ट कर दे। सिंधु घाटी के खंडहर इसके प्रमाण,है तत्कालीन प्राकृतिक प्रकोप के कारण ही बाद में लोग ग्रामीण संस्कृति की तरफ अग्रसर हुए।