December 24, 2024

प्रचार में तेजी,लेकिन मतदाता पूरी तरह मौन

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मतदाताओं के मौन से नेताओं में घबराहट

रतलाम,15 नवंबर (इ खबरटुडे)। रतलाम झाबुआ संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव को अब केवल पांच दिन शेष बचे है। दीपावली निपटते ही दोनो पार्टियों ने प्रचार अभियान तेज कर दिया है,लेकिन मतदाता पूरी तरह मौन नजर आ रहा है। मतदाताओं के मौन से नेताओं में घबराहट है कि ऊंट आखिर किस करवट बैठेगा?
21 नवंबर को होने वाले उपचुनाव में प्रचार सिर्फ 19 नवंबर तक हो सकेगा। यानी प्रचार के लिए अब महज चार दिन शेष बचे है। भाजपा और कांग्रेस दोनो ही पार्टियों ने प्रचार के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और प्रदेश अध्यक्ष नन्दकुमार सिंह चौहान समेत तमाम बडे नेता एक तरह से क्षेत्र में डेरा डाले बैठे है। मुख्यमंत्री की छोटे छोटे गांवों तक निरन्तर सभाएं की जा रही है।
भाजपा ने प्रदेश भर के अनेक विधायकों और संगठन मंत्रियों को क्षेत्र में बुला लिया है। संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन के नेतृत्व में संगठन के तमाम बडे पदाधिकारी पूरी तरह सक्रिय हो चुके है। सक्रियता का आलम यह है कि प्रदेश अध्यक्ष नन्दकुमार सिंह चौहान तो दीवाली की रात ही रतलाम आ गए थे। क्षेत्र के चप्पे चप्पे पर भाजपा के विधायक और अन्य वरिष्ठ नेताओं को तैनात कर दिया गया है। रतलाम में कार्यकर्ताओं के सम्मेलन और बैठकों का क्रम भी निरन्तर जारी है।
दूसरी ओर,कांग्रेस में भी इस चुनाव को करो या मरो की तर्ज पर लडा जा रहा है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश निरन्तर इस क्षेत्र में बने हुए हैं। इन्दौर के वरिष्ठ नेता महेश जोशी को चुनाव का प्रभारी बनाया गया है और वे दीवाली होते ही रतलाम आ चुके थे। इसके अलावा प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव समेत कई बडे नेता गांव गांव तक पंहुच रहे है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य ङ्क्षसधिया की सभाएं हो चुकी है। अन्य प्रदेशों के नेताओं को भी यहां बुलाया जा रहा है। महाराष्ट्र से कांग्रेस प्रवक्ता संजय निरुपम को बुलाया गया है।
दोनो ही पार्टियों के धुंआधार प्रचार के बावजूद आम मतदाताओं में चुनाव को लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा है। मतदाता पूरी तरह मौन है। मतदाता का मौन दोनो ही पार्टियों के नेताओं को परेशानी में डाल रहा है।
अमूमन चुनावी मौसम में शहर के चौराहों पर चुुनावी चर्चाएं जोर पकडने लगती है। लेकिन इस बार लोगों की उदासीनता का आलम यह है कि चुनावी चर्चाएं भी जोर नहीं पकड पा रही। संसदीय उपचुनाव दोनों ही पार्टियों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है। बिहार की हार से बौखलाई भाजपा के लिए यह चुनाव जीतना बेहद अहम है। इस चुनाव की हार जीत से सीधे मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा जुड गई है।
भाजपा के सामने कई तरह की चुनौतियां है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने रतलाम जिले की नगर और रतलाम ग्रामीण सीट से करीब अस्सी हजार मतों की बढत हासिल की थी। इस बढत को बरकरार रखना भाजपा के लिए बडी चुनौती है। मतदाताओं की उदासीनता के चलते मतदान प्रतिशत में गिरावट आना तय माना जा रहा है। ऐसे में मतों का अन्तर कम होना अवश्यंभावी है। इसके अलावा शहर विधायक के प्रति आम लोगों व कार्यकर्ताओं में नाराजगी का भाव है। यह बात भी भाजपा के खिलाफ जाती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार चुनाव में भाजपा ने देशभर से नेताओं और कार्यकर्ताओं की फौज को बुला लिया था। इसके बावजूद नतीजे अनुकूल नहीं आए। इससे यह तथ्य स्थापित होता है कि बाहरी नेताओं की भीड से वोट नहीं खींचे जा सकते। जब तक स्थानीय कार्यकर्ता पूरी ताकत नहीं लगाता,मतदाता का मन नहीं बदलता। शहर में हालत यह है कि वार्डों में जीत कर आए भाजपा पार्षद अपने वार्डों में अब तक सक्रिय नहीं हुए है। वार्ड पार्षदों की नाराजगी का खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड सकता है।
लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए रतलाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। रतलाम से ही भाजपा सर्वाधिक बढत हासिल करती रही है। यदि रतलाम से भाजपा को तगडी बढत मिल जाती है,तो जीत आसान हो जाती है। लेकिन यदि मतदाताओं और कार्यकर्ताओं की उदासीनता के चलते मतों का अन्तर कम होता है,तो भाजपा की जीत पर खतरा भी मंडरा सकता है।
दूसरी ओर कांग्रेस को भी इन्ही बातों का सहारा है। कांग्रेस के रणनीतिकार मान कर चल रहे है कि यदि कांग्रेस रतलाम शहर में लीड कम कर लेती है और रतलाम ग्रामीण में बढत बना लेती है,तो कांग्रेस के लिए जीत कोई कठिन सपना नहीं होगा। हांलाकि भोपाल और दिल्ली में भाजपा की सरकार होना,कांग्रेस के लिए सबसे घातक तथ्य है,लेकिन स्थानीय स्तर पर मतदाता और भाजपा कार्यकर्ता की उदासीनता कांग्रेस को रास आने वाली है। हांलाकि कांग्रेस प्रत्याशी कांतिलाल भूरिया के खाते में कोई बडी उपलब्धि दर्ज नहीं होना कांग्रेस के लिए बेहद नुकसानदायक है। श्री भूरिया के मन में रतलाम के लिए हमेशा उपेक्षा का भाव रहा है। इसीलिए वे संगठन की कमान जनाधार विहीन नेताओं को सौंपते रहे है। वर्तमान में भी चुनाव की बागडोर उन्ही नेताओं के हाथ में है,जो खुद कभी कोई चुनाव नहीं जीत सके है। ऐसे में कांतिलाल भूरिया की चुनावी नैया पार होना आसान नहीं है।

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