प्रगतिशीलता के नाम न्यायपालिका द्वारा भारतीय परम्पराओं पर प्रहार
-तुषार कोठारी
भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय सर्वोपरि है। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा दिया गया कोई भी निर्णय आलोचनाओं से परे स्वीकार योग्य होता है। वैसे भी भारतीय पंरम्परा में प्राचीन काल से न्यायासन को सर्वोच्च और ईश्वर के समकक्ष माना जाता रहा है। लेकिन हाल के दिनों में आए कुछ फैसलें प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीय संस्कृति और परम्पराओं पर प्रहार करते से नजर आ रहे है। पिछले कुछ समय में उच्चतम न्यायालय द्वारा सामाजिक तौर पर वर्जित माने जाने वाले विषयों पर फैसलें दिए गए है। भारतीय समाज ने इन फैसलों को स्वागतयोग्य भी करार दिया है,लेकिन यदि गहराई से विश्लेषण किया जाए तो साफ प्रतीत होता है कि प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को नष्ट करने के प्रयास किए जा रहे है।
सबसे पहला मामला भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 का था,जिसे उच्चतम न्यायालय द्वारा अंसवैधानिक करार दे दिया गया। धारा 377 अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों को अपराध घोषित करती थी और इसके लिए दण्ड का प्रावधान भी था। यह मामला पहले उच्च न्यायालय के समक्ष आया था और उच्च न्यायालय ने इसे संवैधानिक माना था। परन्तु बाद में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने इसे बदल दिया।
भारतीय दण्ड संहिता,भारत की स्वतंत्रता के भी पहले 1862 में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी। स्वतंत्रता के पश्चात स्वतंत्र भारत ने भी इस संहिता को थोडे बहुत हेर फेर के साथ लागू कर दिया गया था। धारा 377 इस संहिता में उसी समय से थी,जब से यह संहिता अस्तित्व में आई थी।
अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों को कोई भी स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति सही करार नहीं दे सकता। इस सृष्टि में मानव सहित जितने भी प्राणी है,वे प्रकृति के नियमों द्वारा संचालित होते है। मानव ही नहीं अन्य सभी प्रकार के जीव जन्तुओं में नर और मादा के संसर्ग से नई उत्पत्ति होती है। पशु पक्षियों में विचार क्षमता नहीं होती,इसलिए वे प्रकृति प्रदत्त प्रेरणा से संचालित होते है। पशुओं में नर मादा उनके मेटिंग सीजन के दौरान ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते है और उसी सीजन में उनका संसर्ग होता है। मानव विचारशील प्राणी है,इसलिए उसका कोई मेटिंग सीजन नहीं है। मानव बारहों महीने संसर्ग कर सकता है। लेकिन विचारवान प्राणी होने के ही कारण कुछ मानवों के मस्तिष्कों में असन्तुलन आने का खतरा भी होता है। असन्तुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति असामान्य और अप्राकृतिक व्यवहार करते हुए भी दिखाई देते है। स्वस्थ मस्तिष्क के किसी व्यक्ति को समान लिंगी के प्रति कभी उत्तेजना महसूस नहीं हो सकती। विपरित लिंग के प्रति आकर्षण एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया है। परन्तु यदि किसी व्यक्ति में समान लिंगी के प्रति आकर्षण और उत्तेजना का भाव उत्पन्न होता है तो निश्चित तौर पर यह उसकी मानसिक अस्वस्थता का द्योतक है।
ऐसी स्थिति में यदि सर्वोच्च न्यायिक आसन से यदि समलैंगिकता को मान्यता दे दी जाती है,तो इसका क्या अर्थ निकाला जाएगा। भारतीय समाज में समलैंगिकता के अस्तित्व को कभी नकारा नहीं गया। ऐसी अनेक प्राचीन प्रतिमाएं भी प्राप्त हुई है,जिसमें मानव को पशुओं के साथ संसर्ग करते हुए चित्रित किया गया है। इसका अस्तित्व तो था,लेकिन इस अस्वस्थता को समाज की स्वीकार्यता नहीं थी। जिस किसी में इस प्रकार की अस्वस्थता होती थी वह समाज में छुप छुपा कर अपनी विकृत मनोवृत्तियों को पूरा करने की कोशिश करता था। लेकिन इस तबके में यह साहस नहीं था,कि वह अपनी मनोविकृतियों को बेशर्मी से समाज के सामने उजागर कर सके।
वर्तमान समय में महानगरीय और पाश्चात्य संस्कृति के असर में समलैंगिकता धीरे धीरे सतह पर आने लगी थी। समलैंगिकता की मनोविकृति वाले ऐसे लोग विश्व के कतिपय अन्य देशों के उदाहरण देकर समलैंगिकता को मान्यता देने के प्रयासों में जुटे हुए थे। इसी कडी में यह मामला उच्चतम न्यायालय में पंहुचा और छद्म आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर एक मनोविकृति को मान्यता दे दी गई।
इसी से जुडा दूसरा मामला अभी हाल में सामने आया,जब कि उच्चतम न्यायालय ने भादवि की धारा 497 को अंसवैधानिक करार दे दिया। यह धारा जारता के सम्बन्ध में थी। यह धारा किसी विवाहित ी द्वारा परपुरुष से अनैतिक सम्बन्ध बनाने को अपराध घोषित करती थी। दण्ड संहिता में महिला की जारता को तो अपराध निरुपित किया गया था,परन्तु पुरुष की अनैतिकता को अपराध नहीं बनाया गया था। इसी आधार पर सर्वोच्च पीठ ने इसे महिला और पुरुष के समानता के अधिकार का हनन माना। यह माना गया कि यह धारा महिलाओं को पुरुष से नीचे दर्जे पर रखती है। इसी आधार पर सर्वोच्च पीठ ने महिलाओं की गरिमा को सर्वोपरि बताते हुए इस धारा को अंसवैधानिक घोषित कर दिया।
इस फैसले ने जहां महिलाओं को पुरुषों की बराबरी पर लाकर खडा कर दिया,वहीं भारत की प्राचीन विवाह परम्परा में अनैतिकता को मान्यता भी प्रदान कर दी है। अब तक विवाहित महिला पुरुषों से उच्च नैतिक आदर्श की अपेक्षा की जाती थी,लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने विवाहित महिला पुरुषों की अनैतिकता को सामाजिक मान्यता दे दी है। जबकि यदि न्यायालय ने इसी धारा में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों की अनैतिकता को भी अपराध घोषित कर दिया होता,तो यह निर्णय भारत के उच्च आदर्शों को स्थापित करने वाला साबित होता। होना तो यह चाहिए था कि विवाहित पुरुष या महिला दोनों के ही विवाहेतर सम्बन्धों को अपराध घोषित कर दिया जाता। इससे समाज में बढ रही अनैतिकता पर भी अंकुश लग सकता था।
लेकिन आजकल नैतिकता को प्रतिगामी माना जाने लगा है। सर्वोच्च न्यायासन भी इसी समस्या से ग्रस्त हो गया प्रतीत होता है। यही कारण है कि अनैतिकता को अपराध घोषित करने की बजाय उसे स्वीकार्यता दे दी गई।
ऐसा ही एक फैसला सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का है। मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को समानता के आधार पर रोका नहीं जा सकता। इस लिहाज से यह बिलकुल सही फैसला है। लेकिन इसके कुछ और भी पहलू है। महिलाओं के मासिक धर्म के समय भारतीय परिवारों में महिलाओं को धार्मिक गतिविधियों और गृहकार्यों से दूर रखे जाने की परम्परा है। मासिक धर्म के समय महिलाओं को अपवित्र माना जाता है। चिकित्सकीय तौर पर भी देखा जाए तो मासिक धर्म के समय महिलाओं की शारीरिक और मानसिक दशा ठीक नहीं होती। अनेक महिलाएं तो इन दिनों में काफी परेशानियों से गुजरती है। आधुनिक समाज में,टीवी और फिल्मों के विज्ञापनों में महिलाओं को सलाह दी जाती है कि वे इन मुश्किल दिनों में भी सैनेटरी नैपकिन (पैड) की मदद से अपने रोजमर्रा के काम कर सकती है। विज्ञापनों में तो लडकियों को पैड की मदद से खेलते कूदते भी दिखाया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकांश महिलाएं इन दिनों में आराम ही करना चाहती है।
हिन्दू धर्म में कोई भी धार्मिक क्रियाकलाप बिना महिला की उपस्थिति के पूर्ण नहीं हो सकता। हवन पूजन के कामों में पति के साथ पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य होती है। लेकिन यदि महिला मासिक धर्म के समय में होती है,तो वह धार्मिक क्रियाकलाप में भाग नहीं लेती। भारत की अधिकांश महिलाएं ऐसे दिनों में स्वयं ही मन्दिर में प्रवेश नहीं करती। वे जानती हैं कि ऐसे समय में मन्दिर प्रवेश नहीं करना चाहिए। लेकिन हमारे सर्वोच्च न्यायासन को इससे कोई मतलब नहीं। उन्होने मन्दिर में प्रवेश का अधिकार दिया,तो यह भी स्पष्ट किया कि यदि महिला चाहे तो मासिक धर्म के समय भी मन्दिर में प्रवेश कर सकती है। जबकि देश के लोगों को न्यायासन से अपेक्षा यह थी कि कुप्रथा को समाप्त करेगा। लेकिन एक कुप्रथा को समाप्त करने के साथ ही दूसरी कुप्रथा को मान्यता दे दी जाएगी,यह समझ से परे है।